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कानपुर
सामने आंगन में फैली धूप सिमटकर दीवारों पर चढ़ गई और कन्धे पर
बस्ता लटकाए नन्हे-नन्हे बच्चों के झुंड-के-झुंड दिखाई दिए, तो
एकाएक ही मुझे समय का आभास हुआ। घंटा भर हो गया यहाँ खड़े-खड़े
और संजय का अभी तक पता नहीं! झुंझलाती-सी मैं कमरे में आती
हूँ। कोने में रखी मेज़ पर किताबें बिखरी पड़ी हैं, कुछ खुली,
कुछ बन्द। एक क्षण मैं उन्हें देखती रहती हूँ, फिर
निरुद्देश्य-सी कपड़ों की अलमारी खोलकर सरसरी-सी नज़र से कपड़े
देखती हूँ। सब बिखरे पड़े हैं। इतनी देर यों ही व्यर्थ खड़ी
रही; इन्हें ही ठीक कर लेती। पर मन नहीं करता और फिर बन्द कर
देती हूँ।
नहीं आना था तो व्यर्थ ही मुझे समय क्यों दिया? फिर यह कोई आज
ही की बात है! हमेशा संजय अपने बताए हुए समय से घंटे-दो घंटे
देरी करके आता है, और मैं हूँ कि उसी क्षण से प्रतीक्षा करने
लगती हूँ। उसके बाद लाख कोशिश करके भी तो किसी काम में अपना मन
नहीं लगा पाती। वह क्यों नहीं समझता कि मेरा समय बहुत अमूल्य
है; थीसिस पूरी करने के लिए अब मुझे अपना सारा समय पढ़ाई में
ही लगाना चाहिए। पर यह बात उसे कैसे समझाऊँ! |