गत दिनों मुझे एक जोड़ी जूते
खरीदने थे। सो जूतों के बारे में सोचता रहा। दो दिन बाद मैं बहुत चौंका कि चिंतन
में लगातार जूता ही चल रहा है यानि कि जूता दिमाग में भी चलने लगा। अब तक तो यही
सुना था कि जूता लोगों के बीच में चलता है।
अब दिमाग में जूता घुसा तो ऐसा घुसा कि जूते के विषय में नये-नये तथ्य सामने आने
लगे। यों तथ्यों को नये कहना भी गलत होगा। हैं तो वो बहुत पुराने बहुत आम, पर अब तक
दिमाग में नहीं आए। दूकानदार ने तो दार्शनिक मुद्रा में सत्य उद्घाटित किया कि
'जूतों से आदमी की पहचान होती है, आदमी की सबसे पहली नज़र जूतों पर ही पड़ती है।
जूतों से आदमी का स्तर नापा जा सकता है। यानि कि जूते स्टैंडर्ड की पहचान होते हैं।
अब यह तथ्य बड़ी-बड़ी कंपनियाँ भी जान गयी हैं इसलिए अब बहुत बड़ी-बड़ी
अंतर्राष्ट्रीय कंपनियाँ जूते के मार्केट में उतर आयी हैं। अब जूता कैसा है इससे
मतलब
नहीं है जूता किस कंपनी का है यह महत्त्वपूर्ण है। आपके जूते किस ब्रांड के हैं यह
पता चलते ही यह पता पड़ जाएगा कि आप उद्योगपति हैं, बड़े व्यापारी हैं, बड़े अपफसर
हैं मध्मम दर्जे के आदमी हैं, क्लर्क हैं या चपरासी हैं। जूतों को देखकर आप आसानी
से पता कर सकते हैं कि अमुक आदमी का आर्थिक स्तर लगभग ऐसा है यानि कि जूता आदमी का
मेजरमेंट है।`
यदि आपकी नज़र में कोई ऐसा जूता आए जिसके तलवे घिसे पिटे हैं फटीचर हैं और किसी
जवान लड़के के पैर में हैं तो
आप समझ जाएँगे कि बेचारा बेरोजगार है गरीबी का मारा है और ऐसे जूते किसी प्रौढ़
व्यक्ति के पैर में हों तो आप तत्काल समझ जाएँगे कि बेचारा परिस्थिति का मारा है
आदि-आदि यानि कि जूते आपकी सच्ची कहानी आसानी से बयाँ कर देते हैं। इसलिए कुछ चालाक
लोग अपने हालात छुपाने के लिए यानि कि अपनी इज्जत बचाने के लिए बढ़िया कंपनी का
महँगा जूता पहनते हैं चाहे इसके लिए उनको कितने ही जूते चटखाने पड़ें। कहने का मतलब
आदमी की इज्जत का रखवाला जूता ही होता है यदि एकदम यथार्थ में देखें तो यह बात सोलह
आना सही है कि यदि जूता पैरों में पड़ा हो तो इज्जत बढ़ाता है। और यही अगर सर पर
पहुँच जाए तो वर्षों की इज्जत पल भर में मिट्टी में मिल जाए। यदि कोई गलत-शलत तरीके
से धनाढ्य होकर अहंकारी हो जाता है तो ऐसे लोगों के लिए ही एक मुहावरा प्रचलित है
कि 'पैरों की जूती सर पर पहुँचने लगी है।'
जूता ही आदमी की इज्जत घटा सकता है जूता ही आदमी की इज्जत बढ़ा सकता है। आप कितना ही
बेशकीमती सूट पहन लें और कीमती टाई लगा लें। रेबैन का चश्मा पहन लें और बिना जूते
के नंगे पैर सड़क पर निकल आएँ तो लोग आपको पागल समझने लगेंगे; हाँ एक अपवाद चित्राकार
हुसैन को छोड़ दें तो यों जूता न पहनने के कारण ही वे अपने चित्रों से अधिक चर्चा
में आए। यहाँ भी कारण जूता ही रहा, यानि कि जूतों के कारण आप संभ्रांत व्यक्ति
गिने जाते हैं। लीजिए यदि जूते आपने हाथ में ले लिए और चलाने लगे किसी पर तो पल भर
में ही आप संभ्रांत से बदतमीज आदमी कहे जाने लगेंगे। सिर्फ़ यह होता है कि जूता
पहनने के काम आता है और खाने के काम भी, जूता पहनने से इज्जत बढ़ती है और जूता खाने
से इज्जत घटती है।
यदि सही अर्थों में देखा जाए तो जूते का सर्वाधिक महत्त्व है। व्यक्तिगत जीवन में
भी, समाज में भी, राजनीति में भी, यानि कि जीवन के हर क्षेत्र में जूतों का
सर्वाधिक महत्त्व है। इसका चलन बहुआयामी है। यह निर्बाध रूप से गली-मुहल्ले, सड़कों
से लेकर विधान सभा और संसद तक में चलता है। जब कोई मंत्री कोई बड़ा घोटाला अपनी
'जूतों' की नोक पर कर लेता है तब संसद में महीनों 'जूता' चलता है। यानि कि देश की
सभी समस्याएँ दर किनार बस जूता ही प्रमुख। इसको इस तरह से भी देखा जा सकता है।
जिसका जूता पुजता है वही नेता पुजता है। आप बड़े राष्ट्रीय चरित्रवान नेता हैं तो
बने रहिए। यदि आपका जूता नहीं पुज रहा है तो कोई आपको दो टके में भी नहीं पूछेगा।
और अगर आपका जूता पुज रहा है तो आप कोई भी हों, डकैत हों, कत्ली हों, अपराधी हों,
बलात्कारी हों, महाभ्रष्ट हों, लोग आपको नेताजी, राजा साहब, कुंवर साहब आदि-आदि
संबोधानों से संबोधित करेंगे। राजनीतिक पार्टियों में भी यही हाल है जिस नेता का
जूता पुज रहा है पूरी पार्टी उसकी ही। राजनीति में केवल वही सफल हो सकता है जो या
तो जूता-पुजवाता रहे या जूता पूजता रहे।
जूता पुजवाने या पूजने की कोई नयी परंपरा नहीं है। यह परंपरा इस देश में सदियों से
चली आ रही है। राजा रजवाड़ों के जमाने में, राजा, महाराजाओं, नवाबों, सूबेदारों,
हाकिम हुक्कामों और शहर कोतवाल का जूता पुजता था। अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेजों
का जूता पुजता था और कुछ लोग उनका जूता पूज पूज कर, राय साहब राय बहादुर बनकर अपना
जूता पुजवाते थे। तो आज बड़े-बड़े नेताओं, बड़े-बड़े अपराधियों, आला अधिकारियों और शहर
कोतवाल का जूता पुजता है। बड़े से बड़ा काम चाँदी के जूते से बन जाता है। मुहावरा भी
है चाँदी का जूता, चाँद गरम। वर्षों तक राज सिंहासन पर रख कर जूतों को पूजा गया राम
के खड़ाऊँ उस जमाने के जूते ही तो थे। लीजिए राम भले ही बन-बन नंगे पैर डोलते रहे पर
अयोध्या में जूते राम के ही पुजते रहे और भरत उन जूतों को पूज-पूज कर ही महान बन गए।
आज भी जूतों को पूज-पूज कर मूर्ख और छुटभइये महान बन जाते हैं।
कहने का मतलब जिसका जूता पुजता है वही इलाके पर शासन करता है वही प्रदेश पर शासन
करता है वही देश पर शासन करता है और वही विश्व पर शासन करता है आज पूरे विश्व में
अमेरिका का जूता पुज रहा है। सिद्ध यह होता है कि जूता व्यक्ति से इलाके से प्रदेश,
देश से और विश्व से भी बड़ा होता है इसलिए मेरी समझ में तो यही आता है कि जूते को
राष्ट्रीय चिह्न घोषित कर देना चाहिए। १२ जुलाई २०१० |