सप्ताह
का
विचार-
किताबों में वजन होता है! ये यूँ ही किसी के जीवन की दशा और दिशा
नहीं बदल देतीं। - इला प्रसाद |
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अनुभूति
में-
रावेन्द्रकुमार रवि, मुकेश जैन, प्रेम सहजवाला, हेमन्त स्नेही और
डॉ. प्रेम जनमेजय की रचनाएँ। |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
भारत से
ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी
गवर्नेस
दीनानाथ चुप बैठे हैं। सामने देख
रहे हैं। सामने बैठी स्त्री को उन्होंने ज़रा-सा देखा है। वह
नर्स की नौकरी के लिए उनके पास आई है। वह दीनानाथ के सामने
बैठी है। बीच में मेज़ है। मेज़ पर वो खत है जो दीनानाथ जी ने,
जवाब के रूप में इस स्त्री को लिखा था।
दून टाइम्स जैसे लोकल अखबार में
दीनानाथ जी ने गवर्नेस के लिए विज्ञाजन दिया था। संपर्क के लिए
अपनी केवल बिहार की कोठी का पता भी दिया था। कुल एक चिट्ठी आई।
उनकी शर्तें ही ऐसी थीं। सबसे मुश्किल शर्त यही कि गवर्नेस को
चौबीस घंटे उनके रेजिडेंस में रहना होगा। विज्ञापन में
उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि वो अकेले हैं और उन्हें गवर्नेस
की ज़रूरत है। विज्ञापन में यह भी साफ कर दिया गया था कि उनकी
सेहत ठीक नहीं है। कुल एक चिट्ठी।
मारिया की चिट्ठी। जो सामने बैठी है। दीनानाथ जी ने मारिया के
साथ खतो-किताबत की।
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अविनाश
वाचस्पति का व्यंग्य
अचार में चूहा
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घर परिवार में
अर्बुदा ओहरी के साथ-
यात्रा की तैयारी
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गोपीचंद्र श्रीनागर का आलेख
डाकटिकटों पर भारत के प्रसिद्ध किले
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फुलवारी में याक के विषय में
जानकारी,
शिशु गीत और
शिल्प |
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पिछले सप्ताह
संजय पुरोहित
का व्यंग्य
लोन ले लो लोन
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प्रकाश गोविंद का लेख
भारतीय नाटकों पर विदेशी प्रभाव
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हमारी संस्कृति
के अंतर्गत
डॉ.
आशीष मेहता का आलेख-
मल्लखंभ
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राहुल संकृत्यायन का साहित्यिक निबंध
अथातो घुमक्कड़ -
जिज्ञासा
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समकालीन कहानियों में
यू.एस.ए. से
इला प्रसाद की कहानी
मुआवज़ा
"सब साले
काले - पीले हैं !"
श्रुति और इन्द्र की आँखों में सीधा देखते हुए उसने एक जोर का
ठहाका लगाया। सामने से आ रहे एक चीनी और एक काले मित्र के
अभिवादन पर दी गई प्रतिक्रिया थी यह। वे हँसे, एक नासमझ हँसी,
एक खुली, निश्छल हँसी - उसका साथ
देने के लिए- बिना यह जाने कि वह कमेन्ट उन्हीं के लिए है।
वह चाह कर भी साथ नहीं दे पाई। मुस्करा कर रह गई। एक
उदास मुस्कराहट, जो जबरन ओठों के कोरों तक फैलती है और आँखों
में कोई अहसास नहीं उपजता। उसकी हँसी भी तो कैसी थी! अन्दर का
सारा खालीपन मूर्त हो उठा था एकबारगी। मैनहट्टन में सब-वे के
उस सूने प्लेटफ़ार्म पर वे खड़े थे जहाँ से उस दिन कोई ट्रेन
नहीं जानी थी। वह यही समझा रहा था उन्हें। सप्ताहांत में
ट्रेनों के रूट बदल जाते हैं और वे दोनों घूम- फ़िर कर
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