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                           २३ 
                          मार्च को स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर 
                          लोहिया के जन्म शती मनाई गई। उनके जीवन और कार्य को याद 
                          करते हुए वेद प्रताप वैदिक का आलेख-- 
 
                          यह लोहिया 
                          की सदी हो 
 जन्म 
                          शताब्दियाँ तो कई नेताओं की मन रही हैं, लेकिन प्रश्न यह 
                          है कि स्वतंत्र भारत में क्या राममनोहर लोहिया जैसा कोई 
                          और नेता हुआ है? इसमें शक नहीं कि पिछले ६३ सालों में कई 
                          बड़े नेता हुए, कुछ बड़े प्रधानमंत्री भी हुए, लेकिन 
                          लोहिया ने जैसे देश हिलाया, किसी अन्य नेता ने नहीं 
                          हिलाया। उन्हें कुल ५७ साल का 
                          जीवन मिला, लेकिन इतने छोटे से जीवन में उन्होंने जितने 
                          चमत्कारी काम किए, किसने किए? जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा 
                          गांधी से लोहिया का अपने युवाकाल में कैसा आत्मीय संबंध 
                          था, यह सबको पता है। लेकिन यदि लोहिया नहीं होते तो क्या 
                          भारत का लोकतंत्र शुद्ध परिवारतंत्र में नहीं बदल जाता?
 वे लोहिया ही थे, जो नेहरू की दो-टूक आलोचना करते थे। 
                          चीनी हमले के बाद लोहिया ने ही नेहरू सरकार को 
                          ‘राष्ट्रीय शर्म की सरकार’ कहा था। उन्होंने ही ‘तीन 
                          आने’ की बहस छेड़ी थी। यानी इस गरीब देश का प्रधानमंत्री 
                          खुद पर २५ हजार रुपए रोज खर्च करता है, जबकि आम आदमी 
                          ‘तीन आने रोज’ पर गुजारा करता है। लोहिया ने ही उस समय 
                          की अति प्रशंसित गुट-निरपेक्षता की विदेश नीति पर 
                          प्रश्नचिह्न् लगाए थे और नेहरूजी की ‘विश्वयारी’ पर तीखे 
                          व्यंग्य बाण चलाए थे।
 
 उन्होंने सरकारी तंत्र के मुगलिया ठाठ-बाट की निंदा इतने 
                          कड़े शब्दों में की थी कि सारा तंत्र भर्राने लगा था। 
                          उन्होंने देश के हजारों नौजवानों में सरफरोशी का जोश भर 
                          दिया था। सारे देश में तरह-तरह के मुद्दों पर सिविल 
                          नाफरमानी के आंदोलन चला करते थे। राजनारायण, मधु लिमये, 
                          रवि राय, किशन पटनायक, एसएम जोशी, लाडली मोहन निगम, 
                          जॉर्ज फर्नाडीज जैसे कई छोटे-मोटे मसीहा लोहिया ने सारे 
                          देश में खड़े कर दिए थे। कहीं जेल भरो, कहीं रेल रोको, 
                          कहीं अंग्रेजी नामपट पोतो, कहीं जात तोड़ो, कहीं कच्छ 
                          बचाओ, कहीं भारत-पाक एका करो जैसे आंदोलन निरंतर चला 
                          करते थे।
 
 लोहिया के आंदोलनों में अहिंसा का ऊँचा स्थान था, लेकिन 
                          वे वस्तु की हिंसा यानी तोड़-फोड़ को हिंसा नहीं मानते 
                          थे। उन्होंने प्राण की हिंसा करने वाली यानी 
                          प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने वाली अपनी ही केरल की 
                          सरकार को गिरवा दिया था। लोहिया ने भारत के नेताओं और 
                          राजनीतिक दलों को यह सिखाया कि सशक्त विपक्ष की भूमिका 
                          कैसे निभाई जाती है? लोकसभा में लोहियाजी की संसोपा के 
                          दर्जनभर सदस्य भी नहीं होते थे, लेकिन वहां बादशाहत 
                          संसोपा की ही चलती थी। जब लोहिया और मधु लिमये सदन में 
                          प्रवेश करते थे तो वह समां देखने लायक होता था। एक 
                          करंट-सा दौड़ जाता था। मंत्रिमंडल के सदस्य लगभग 
                          ‘अटेंशन’ की मुद्रा में आ जाते थे और स्वयं प्रधानमंत्री 
                          इंदिरा गांधी के चेहरे पर बेचैनी छा जाती थी।
 
 दर्शक दीर्घा में बैठे लोग कहते सुने जाते थे, वो लो, 
                          डॉक्टर साहब आ गए। डॉक्टर लोहिया ने अपनी उपस्थिति से 
                          लोकसभा को राष्ट्र का लोकमंच बना दिया। जिस दबे-पिसे 
                          इंसान की आवाज सुनने वाला कोई नहीं होता, उसकी आवाज को 
                          हजार गुना ताकतवर बनाकर सारे देश में गुँजाने का काम डॉ 
                          लोहिया करते। कोई मामूली मजदूर हो, कोई सफाई कामगार हो, 
                          कोई भिखारी या भिखारिन हो- डॉ लोहिया उसे न्याय दिलाने 
                          के लिए अकेले ही संसद को हिला देते थे। लोकसभा अध्यक्ष 
                          सरदार हुकुम सिंह कई बार बिल्कुल पस्त हो जाते थे। मई 
                          १९६६ में जब डॉ लोहिया ने मेरा अंतरराष्ट्रीय राजनीति का 
                          पीएचडी का शोध-प्रबंध हिंदी में लिखने का मामला उठाया तो 
                          इतना जबर्दस्त हंगामा हुआ कि सदन में मार्शल को बुलाना 
                          पड़ा। डॉ लोहिया और उनके शिष्यों के तर्क इतने प्रबल थे 
                          कि सभी दलों के प्रमुख नेताओं ने मेरा समर्थन किया। 
                          इंदिराजी के हस्तक्षेप पर स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज ने 
                          अपना संविधान बदला और मुझे यानी प्रत्येक भारतीय को पहली 
                          बार स्वभाषा के माध्यम से ‘डॉक्टरेट’ करने का अधिकार 
                          मिला।
 
 डॉ लोहिया के व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण था। वे 
                          देखने में सुंदर नहीं थे। उनका कद छोटा और रंग सांवला 
                          था। उनके खिचड़ी बाल प्राय: अस्त-व्यस्त रहते थे। उनके 
                          खादी के कपड़े साफ-सुथरे होते थे, लेकिन उनमें नेहरू या 
                          जगजीवनराम या सत्यनारायण सिंह जैसी चमक-दमक नहीं रहती 
                          थी। वे सादगी और सच्चई की प्रतिमूर्ति थे। वे जिस विषय 
                          पर भी बोलते थे, उसमें मौलिकता और निर्भीकता होती थी। वे 
                          सीता-सावित्री पर बोलें, शिव-पार्वती पर बोलें, 
                          हिंदू-मुसलमान या नर-नारी समता पर बोलें, अंग्रेजी हटाओ 
                          या जात तोड़ो पर बोलें- उनके तर्क प्राणलेवा होते थे। जो 
                          एक बार डॉ लोहिया को सुन ले या उनको पढ़ ले, वह उनका 
                          मुरीद हो जाता था।
 
 डॉ लोहिया ने अपने भाषण और लेखन में जितने विविध विषयों 
                          पर बहस चलाई है, देश के किसी अन्य राजनेता ने नहीं चलाई। 
                          सिर्फ डॉ भीमराव आंबेडकर और विनायक दामोदर सावरकर ही ऐसे 
                          दो अन्य विचारशील नेता दिखाई पड़ते हैं, जो डॉ लोहिया की 
                          श्रेणी में रखे जा सकते हैं। डॉ लोहिया ने जर्मनी से 
                          डॉक्टरेट की थी। इस खोजी वृत्ति के कारण वे हर समस्या की 
                          जड़ में पहुँचने की कोशिश करते थे। सप्रू हाउस में उस 
                          समय रिसर्च कर रहे डॉ परिमल कुमार दास, प्रो कृष्णनाथ और 
                          मेरे जैसे कई नौजवान उनके अवैतनिक सिपाही थे। इसी का 
                          परिणाम था कि १९६७ में डॉ लोहिया देश में गैर 
                          कांग्रेसवाद की लहर उठाने में सफल हुए। जनसंघियों और 
                          कम्युनिस्टों ने भी उनका साथ दिया और देश के अनेक 
                          प्रांतों में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं। यदि 
                          डॉक्टर लोहिया १०-१५ साल और जीवित रहते तो उन्हें 
                          प्रधानमंत्री बनने से कौन रोक सकता था? अब से ३०-३५ साल 
                          पहले ही भारत का चमत्कारी रूपांतरण शुरू हो जाता और अब 
                          तक वह दुनिया की ऐसी अनूठी महाशक्ति बन जाता, जिसका जोड़ 
                          इतिहास में कहीं नहीं मिलता।
 
 जो भी हो, डॉ लोहिया असमय चले गए हों, लेकिन उनके विचार 
                          इस इक्कीसवीं सदी के प्रकाश-स्तंभ की तरह हैं। 
                          सप्त-क्रांति का उनका सपना अभी भी अधूरा है। जाति-भेद, 
                          रंग-भेद, लिंग-भेद, वर्ग-भेद, भाषा-भेद और शस्त्र-भेद 
                          रहित समाज का निर्माण करने वाले नेता अब ढूंढ़ने से भी 
                          नहीं मिलते। इस समय सभी दल चुनाव की मशीन बन गए हैं। वे 
                          सत्ता और पत्ता के दीवाने हैं। यदि डॉ लोहिया का साहित्य 
                          व्यापक पैमाने पर पढ़ा जाए तो आशा बंधेगी कि शायद 
                          आदर्शवादी नौजवानों की कोई ऐसी लहर उठ जाए, जो इस भारत 
                          को नए भारत में और इस दुनिया को नई दुनिया में बदल दे। 
                          लोहिया को गए अभी सिर्फ ४३ साल ही हुए हैं। उनका शरीर 
                          गया है, विचार नहीं, विचार अमर हैं। विचारों को परवान 
                          चढ़ने में कई बार सदियों का समय लगता है। अभी तो सिर्फ 
                          पहली सदी बीती है। हम अपना धैर्य क्यों खोएं? क्या मालूम 
                          आने वाली सदी लोहिया की सदी हो?
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