डाक टिकटों
पर भारत के प्रसिद्ध किले
—गोपीचंद
श्रीनागर
भारत की सभ्यता अतिप्राचीन होने के
कारण यहाँ प्राचीन किलों का होना स्वाभाविक है। भारतीय डाक विभाग
ने देश की इस सांस्कृतिक धरोहर को टिकटों पर प्रकाशित करके
सम्मानित किया है।
किसी भारतीय किले पर पहला डाकटिकट
जार्ज पंचम के अँग्रेजी शासन काल में ९ फरवरी १९३१ को निकला था।
सन १९३१ के प्रसिद्ध दिल्ली दरबार के समय आधुनिक नई दिल्ली को
राजधानी बनाने की घोषणा हुई थी और इसी वर्ष अँग्रेजी शासन के
कार्यालय को कलकत्ता से नई दिल्ली स्थानांतरित किया गया था। इस अवसर पर
६ स्मारक डाक टिकटों का एक
समूह जारी किया गया था, जिसमें पौन आने वाले एक डाक-टिकट की
पृष्ठभूमि में नई
दिल्ली स्थित पुराने किले का चित्र था। भारत के चित्रमय स्थलों वाले
इन पहले स्मारक डाकटिकटों कलारचना एच डब्लू बर्र ने की थी।
उत्तर भारत की प्राचीन राजधानी
इंद्रप्रस्थ नगर का यह पुराना किला महाभारत कालीन पांडव राजाओं
का कहा जाता है। इस प्रकार यह भारत का सबसे पुराना किला है। बाद
में एक बार फिर से १७ अक्तूबर १९८७ को इस किले को टिकट पर
प्रकाशित होने का अवसर मिला जब "भारत ८९ विश्व डाकटिकट प्रदर्शनी"
के अवसर पर चार टिकटों का एक सेट जारी किया गया।
जिसमें से एक
में दिल्ली के पुराने किले को भी दर्शाया गया था।
भारत
के स्वतंत्र हो जाने के बाद १५ अगस्त १९४९ को नियत डाकटिकटों की
पहली शृंखला निकली। यह शृंखला पुरातत्त्व विषयों पर थी। इनमें
से २ रुपये मूल्य वाला डाक टिकट दिल्ली के लाल किले पर निकला था।
इस डाकटिकट पर इसका मूल्य अंग्रेजी व हिंदी अंकों में था। छोटे
आकार में अंग्रेजी में रेड फोर्ट शब्द इसके ऊपर अंकित किए गए थे।
लाल किले को भी एक बार और भारतीय टिकटों में स्थान मिला जब भारत
सोवियत संघ के बीच ट्रोपोस्कैटर संचार संपर्क स्थापना की पहली
वर्षगांठ २ नवंबर १९८२ को जारी किए गए विशेष डाकटिकट ३०५ पैसे पर
क्रेमलिन टावर के साथ साथ लालकिले का चित्र दिया गया (दाएँ।
झाँसी
का किला महारानी लक्ष्मीबाई के कारण विश्वभर में विख्यात हुआ है।
सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय यह ऐतिहासिक किला
वीरांगना लक्ष्मीबाई के आधिपत्य में था। १५ अगस्त १९५७ को प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी के उपलक्ष्य में जब रानी
लक्ष्मीबाई पर १५ नए पैसे वाला एक स्मारक डाक टिकट निकला तब इस
डाकटिकट की पृष्ठभूमि में झांसी के किले का भी कुछ अंश दर्शाया
गया था। इस शहर व किले का निर्माण राजा वीरसिंह देव ने सन १६१३
में करवाया था। २ अप्रैल १९५८ को युद्ध के बाद यह किला
अँग्रेज़ों
के अधिकार में आ गया था।
छत्रपति शिवाजी महाराज १६३० से
१६८० के संबंध में सच ही कहा जाता है कि वह किले (शिवनेरी) में
जन्मे थे, किले (रायगढ़) में बड़े हुए थे और अंत में किले
(रायगढ़) में ही स्वर्गवासी हुए। उनके पास ३०० किले थे, इसलिए
उन्हें दुर्गाधिराज भी कहा जाता है। छत्रपति शिवाजी की ३००वीं
जयंती के उपलक्ष्य में २१ अप्रैल १९८० को ३०
पैसे मूल्य वाला एक स्मारक टिकट निकाला गया था। इस डाक टिकट पर
शिवाजी को सिंहगढ़ के प्रसिद्ध किले की पथरीली सीढ़ियों से उतरते
हुए दिखलाया गया है।
३ अगस्त
१९८४ को भारत के किले
शीर्षक से निकले ४ विशेष डाक टिकटों में १५० पैसे वाला डाक टिकट
सिंहगढ़ को ही समर्पित है। रायगढ़ में ६ जून १७७४ को राजमाता
जीजाबाई के सम्मुख शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ था। सिंहगढ़ किले
का पूर्व नाम कोंढाणा था। शिवाजी के एक वीर सेनापति जिनका
नाम तानाजी मालुसरे था, सन १६७० के युद्ध में इस वीर सेनापति ने
कोढाणा का किला मुगलों से छीन लिया था लेकिन इस युद्ध में वह
स्वयं शहीद हो गया था। शिवाजी ने इस वीर सेनापति की याद में इस
किले का नाम सिंह गढ़ रख दिया था।
इस सेट के ३ अन्य डाक टिकट
ग्वालियर के किले ५० पैसे, वेल्लूर के किले १०० पैसे व जोधपुर के
किले २०० पैसे के निकाले गए। ये किले भारतीय वास्तु सौंदर्य व
शक्ति के बेजोड़ नमूने हैं। ग्वालियर का किला कई मामलों में
दर्शनीय है। यह सतह से लगभग १०० मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है।
इस किले के अंदर मान मंदिर मानसिंह महल १५वीं शताब्दी, गूजरी
महल, मृगनयनी महल १५वीं शताब्दी, तेली का मंदिर ९वीं शताब्दी,
सासबहू के मंदिर ११वीं शताब्दी, सूरजकुंड व अन्य जैन मूर्तियाँ
आकर्षण के प्रमुख केंद्र हैं। कहते हैं कि आठवीं शताब्दी में इस
किले का निर्माण राजा सूरजसेन ने
अपने एक सन्यासी गुरू ग्वालिपा
की स्मृति में करवाया था। वैसे छठी शताब्दी के भी अवशेष यहाँ
मिले हैं। तोमर राजा मानसिंह ने अपनी प्रिय रानी मृगनयनी के लिए
गूजरी महल का निर्माण करवाया था। इस किले को सजाने सँवारने में
राजा मानसिंह तोमर का बड़ा हाथ रहा था।
वेल्लूर का किला मद्रास नगर से
लगभग १२५ किमी दूर स्थित है। यह दक्षिण भारत के सुंदरतम किलों
में से एक है। इसका निर्माण विजय नगर के एक समंत चिन बन्निनायक
ने १६वीं शताब्दी में करवाया था। इसके चारों ओर पानी से भरी
चौड़ी खाई है। यह किला सन १८६० में अँग्रेज़ों के कब्जे में चला
गया था। टीपू सुल्तान के मरने के बाद अँग्रेज़ों ने
टीपू सुल्तान
के वंशजों को इस किले में कैद कर के अमानवीय यातनाएँ दी थीं।
राजस्थानी शौर्य के प्रतीक जोधपुर
किले का निर्माण १४५९ में राव जोधा ने करवाया था। उन्हीं ने
राजधानी जोधपुर को बसाया था। अपना कलात्मकता और शान शौकत के कारण
यह किला नहीं बल्कि पत्थरों में रचा गया काव्य माना जाता है। यह
राजस्थानी वास्तुकला का सुंदर का नमूना है। यह किला राठौर राजाओं
की देन है।
३१
दिसंबर २००२ में गोलकुंडा व चंद्रगिरि किलों पर विशेष डाकटिकट
मूल्य ५०० पैसे प्रत्येक निकले थे। गोलकुंडा दुर्ग का निर्माण
वारंगल के राजा ने १४वीं शताब्दी में कराया था। बाद में यह बहमनी
राजाओं के हाथ में चला गया और मुहम्मदनगर कहलाने लगा। १५१२ ई.
में यह कुतबशाही राजाओं के अधिकार में आया और वर्तमान हैदराबाद
के शिलान्यास के समय तक उनकी राजधानी रहा। फिर १६८७ ई. में इसे
औरंगजेब ने जीत लिया। यह ग्रेनाइट की एक पहाड़ी पर बना है जिसमें
कुल आठ दरवाजे हैं और पत्थर की तीन मील लंबी मजबूत दीवार से घिरा
है। यहाँ के महलों तथा मस्जिदों के खंडहर अपने प्राचीन गौरव
गरिमा की कहानी सुनाते हैं। मूसी नदी दुर्ग के दक्षिण में बहती
है। दुर्ग से लगभग आधा मील उत्तर कुतबशाही राजाओं के ग्रैनाइट
पत्थर के मकबरे
हैं
जो टूटी फूटी अवस्था में अब भी विद्यमान हैं।
आंध्र प्रदेश में तिरुपति के पास
चंद्रगिरि नामक स्थान पर इतिहास प्रसिद्ध चंद्रगिरि दुर्ग स्थित
है। डाकटिकट में इसके भीतर बना राजारानी महल प्रदर्शित किया गया
है। ११वीं शती में श्रीकृष्ण देवराया द्वारा बनवाया गया यह किला
तीन सौ साल तक देवराया राजवंश के अधिकार में रहा। १३६७ में यह
विजयनगर के शासकों को हाथ में चला गया। इस समय चंद्रगिरि राज्य
के चार बड़े नगरों में से एक था। १६४६ में चंद्रगिरि गोलकुंडा के
नियंत्रण में आ गया और मैसूर राज्य का हिस्सा बन गया। आजकल
राजारानी महल के इस तिमंज़िले भवन में भारतीय पुरात्त्वविभाग का
संग्रहालय है।
आगरे का किला मुगलकालीन
भारतीय वास्तुकला के श्रेष्ठ नमूनों में से एक है। इस किले को वास्तुकला के लिए सन
२००४ में आगाखाँ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस अवसर पर
२८ नवंबर २००४ को, १५ रुपये मूल्य के २ अति भव्य संयुक्त
डाकटिकट निकाले
गए थे। ऊपर इनका मिनिएचर शीट दिया गया है। इसके साथ प्रथमदिवस
आवरण भी जारी किया गया था। इन डाकटिकटों पर आगरे के किले की बाहरी वास्तु छटा व
अंदरूनी वास्तुवैभव का दृश्य देखा जा सकता है।
१५ अप्रैल २०१० |