भारतीय
नाटकों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव
-प्रकाश गोविंद
भारत
की स्थापत्य कलाओं अर्थात चित्रकला, नाट्यकला इत्यादि
पर पश्चिम का इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि हम आधुनिकता के
मोह में अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, दर्शन,
ज्ञान-विज्ञान, आयुर्वेद सभी की अवमानना करते हुए,
अंधाधुंध नवीनता को अपनाने में आतुर हो उठे। इसी
आतुरता में पश्चिम की खोखली सभ्यता, वहाँ के
औद्योगीकरण से उत्पन्न प्रदूषणों, अपवित्रता से उत्पन्न शारीरिक रोगों, उन्मुक्त यौन संबंधों
से उद्भूत पारिवारिक विशृंखलताओं को हम देख औऱ समझ
नहीं पाए।
सन
१९३९ से १९४५ तक विश्व युद्ध के कारण जो एक नई
परिस्थिति पैदा हुई, उससे नाट्य साहित्य में
अस्तित्ववाद का जन्म हुआ। युद्ध में करोड़ों
व्यक्तियों की मृत्यु और नरसंहार से पश्चिम का एक बड़ा
प्रबुद्ध वर्ग ईश्वर में अविश्वास व्यक्त करने लगा।
उनका नारा था- "ईश्वर मर
चुका और मानव को स्वतंत्र होने का अभिशाप दे गया।"
ऐसी विचारधारा वाले लोगों ने सामाजिक, नैतिक व
सांस्कृतिक मूल्यों को सर्वथा नकार दिया। उनका उद्घोष
था कि हमारी अवचेतना, हमारा काल्पनिक व स्वप्नलोक इस
दृश्य जगत से कहीं अधिक श्रेष्ठ और यथार्थ है।
सैमुअल वैकेट ने इसी अस्तित्ववाद और अतियथार्थवाद
सिद्धांत का सम्मिश्रण करके अपने नाटकों का निर्माण
किया। अस्तित्ववादी नाटकों में ईश्वर के अस्तित्व और
जीवात्मा के पुनर्जन्म पर अविश्वास करते हुए निराशा,
कुंठा, संत्रास को अभिव्यक्त किया गया।
ऐसे
ही वातावरण में एब्सर्ड नाटक का जन्म हुआ। द्वितीय
महायुद्ध ने यूरोप और अमेरिका में भिन्न-भिन्न प्रकार
का प्रभाव डाला था। फ्रांस में सार्त्र, अलबेयर कामू
तथा सैमुएल वैकेट ने युद्ध की विभीषिका का प्रत्यक्ष
अनुभव किया था। ईश्वर, नीति-धर्म, ईसा, बाइबिल, चर्च
में इनकी तनिक भी श्रद्धा न रही। इब्सन और शॉ के
यथार्थवादी युग में मानव अपने परिवार से प्रगाढ़ रीति
से जुड़ा हुआ था, यद्यपि धार्मिक सिद्धांतों, सामाजिक
नियमों, परंपरागत मान्यताओं से अपने को मुक्त रखने के
लिए छटपटा रहा था, पर अपनी झिझक को निकाल नहीं पाता
था। सार्त्र ने इस झिझक को निकाल नहीं पाता था।
सार्त्र ने इस झिझक को निकालकर फेंक देने और मुक्त भाव
से स्वतंत्र होकर व्यक्तिगत जीवन बीताने के सिद्धांत
का एक नया मार्ग खोज निकाला। जिसके अनुसार व्यक्ति की
अस्मिता जीवन के केंद्र में विद्यमान है।
सार्त्र के इन नव सिद्धांतों का प्रभाव यूरोप और
अमेरिका में गहराई से पड़ा। इस प्रकार यथार्थवाद के
उपरांत जो अस्तित्ववाद आया, वह दो रूपों में विभक्त हो
गया। यूरोप ने ब्रेख्त के नाटकों का अनुसरण किया और
फ्रांस व इंग्लैंड इत्यादि ने वैकेट के। भारतीय
नाटककार इन्हीं दोनों विचारधाराओं में उसी तरह झूल रहा
है जिस प्रकार भारतीय राजनीति और समाजवाद, रूसी और
अमेरिकन शासन प्रणाली के मध्य झोंका खाते हुए दिखाई
पड़ रहे हैं। हिंदी के नाटककारों में कुछ ब्रेख्त की
ओर झुके हुए हैं और कुछ वेकेट की तरफ, कुछ दोनों के
मध्य से एक नया रास्ता निकालने की धुन में लगे रहे।
मोहन राकेश, दया प्रकाश सिन्हा की कृतियों में अमेरिकन
धारा का अधिक प्रभाव है तो लक्ष्मीकांत वर्मा,
मुद्राराक्षस, ब्रजमोहन शाह, सुरेंद्र तिवारी,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कमलेश्वर आदि दूसरी धारा से
जुडे हुए हैं। तीसरे वर्ग में डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल,
धर्मवीर भारती, प्रभाकर इत्यादि आते हैं।
इन
तीन धाराओं में एक नियम समान रूप से पाया जाता है, वह
है परंपरागत जीर्ण-शीर्ण मान्यताओं से विद्रोह,
राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, व्यवसायिक,
प्रशासनिक व्यवस्था का घोर विरोध। दूसरी समानता है-
ईश्वर, धर्म, नीति संबंधी प्राचीन सभी कथाओं,
व्यक्तियों, महापुरुषों की खिल्ली उड़ा कर मानव मन को
स्वतंत्र चिंतन के लिए प्रेरित करना, चाहे व्यक्ति को
इसके लिए कितना भी लोकापवाद सहना पड़े, कितनी भी यातना
भोगनी पड़े, उसे सहन करने को सदा तत्पर रहे। तीसरी
समानता है- परिस्थितियों के अनुरूप, परिवर्तित वातावरण
के अनुसार, समाज की विशृंखलताओं के मध्य अटल खड़े रहकर
जीवन को पूर्ण रीति से भोगवाद में लिप्त करना।
परतंत्रता ही बंधन और स्वतंत्रता ही मुक्ति है।
उन्मुक्त भोग, समाज परिवार यहाँ तक कि पत्नी व पुत्र
से भी निर्लिप्त दायित्व विहीन रहकर 'जो क्षण सुख-साधन
में बीते उनको ही सच व सार्थक मान लिया जाए।'
ऑर्थर मिलर ने देश के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में
नैराश्य छाया देखकर नाट्यकारों को दोषी ठहराया था।
उन्होंने 'अमेरिकन सोशल प्ले' के संबंध में टिप्पणी
करते हुए लिखा- 'हमारे देश के महत्वाकांक्षी
नाट्यकारों की कृतियों में मुख्य रूप से निराशा व
हताशा का स्वर प्रमुख है। ओनील के नाट्यकथानक, एंडरसन
व सिडनी सबकी कृतियों में निराशा सर्वोच्च स्थान पर
आसीन है। विरोधाभास यहाँ स्पष्ट हो जाता है जब वह अपने
वैयक्तिक जीवन में नैराश्य के निवारण का प्रयास करना
चाहता है, तब उसकी निजी नैराश्यमयी चेतना उसे पछाड़
देती है। ऐसे नाट्यकारों के विकृत व्यक्तित्व का जो
चित्र सामाजिक धारणा रूपी दीवाल पर खिंच जाता है, जिसे
समाज दूर से ही देख लेता है, उसे मिटाने के लिए
नाट्यकार जब दीवाल पर उछलता है, विकृतियों को मापने
लगता है, उन्हें मिटाने के लिए दीवार उड़ा देना चाहता
है, तब देखता है कि यह उसके सामर्थ्य से बाहर है। ऐसी
निराशा भरी दशा में वह या तो जीवन का अंत कर लेता है,
या जीवित रहते हुए भी मृतवत पड़ा रहता है।' - एसेज ऑफ
आर्थर मिलर
आजादी के पश्चात जिस आदर्श राम राज्य की कल्पना ने
सर्वसाधारण को भी जीवन सुखी बनाने का आश्वासन दिया था,
वही भूखी-प्यासी और विक्षिप्त होकर जब मरने लगी तब
निराशा का वातावरण फैल गया। नाट्यकारों की समझ में
नहीं आ रहा था कि हमारा देश किस प्रकार का सामाजिक रूप
धारण करने जा रहा है। राष्ट्रीय चेतना का ह्रास स्पष्ट
दिखाई देने लगा। जिस तरह मालिक के पीठ पीछे नौकर अपने
मालिक की नकल करता है, उसके हाव-भाव का अनुकरण करता
है, बिल्कुल उसी तर्ज पर अंग्रेजों के जाते ही यहाँ के
एक खास बड़े वर्ग ने पाश्चात्य शैली का अंधानुकरण करना
प्रारंभ कर दिया। यों लगने लगा जैसे गोरे साहब विदा
हुए, अब काले साहब आ गए।
जब
कोई देश अपनी राष्ट्रीय चेतना खोकर अंतर्राष्ट्रीय
ख्याति खरीदना चाहता है तो देश के नेता को लाभ भले ही
हो पर संपूर्ण राष्ट्र को सौदा बहुत महँगा पड़ता है।
गांधी जी ने इस सौदे के हानि-लाभ को अच्छी तरह समझा
था। रूस के टॉलस्टॉय, दास्ताव्स्की ने भी साहित्य में
पूर्व और पश्चिम का सामंजस्य किया है, किंतु उनकी
वैचारिक दृष्टि ऐसी महत्वपूर्ण रही है कि गांधी जैसे
भारतीय को भी उतना ही आकृष्ट किया जितना रूस को। जापान
ने पश्चिम की विचार परंपरा को जापानी संस्कार में ऐसा
ढाल लिया कि वे पूर्णतया जापानी ही हो गए।
हमारे देश में उक्त दोनों पद्धतियाँ तिरस्कृत हुई और
सामंजस्य का सूत्रपात ड्राइंगरूम, डिस्को क्लब, कैबरे
डांस, मैरेज पार्टी, धनी वर्ग के सामाजिक उत्सव को
केंद्र बनाकर किया गया। साहित्य पर इनका प्रभाव पड़ना
स्वाभाविक था। चीन से पराजय के उपरांत साहित्यकारों ने
हिंदी नाटक का लेखा-जोखा तैयार किया और उसे एक ओर लोक
नाटकों की परंपरा से जोड़कर बाजारू (व्यवसायिक) रंगमंच
के निर्माण की तैयारी की, तो दूसरी ओर अनेक प्रलोभनों
में पड़ कर पश्चिम के देशों में अपनी नाट्य कला के
प्रदर्शन का प्रयास किया।
इन
उपरोक्त दोनों तथ्यों का मिश्रित परिणाम आज तक का
नाट्य साहित्य है। पहले प्रकार के प्रयासकर्ता हैं-
जगदीश चंद्र माथुर, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, हबीब
तनवीर, इब्राहीम अलका, धर्मवीर भारती इत्यादि। दूसरी
कोटि में आते हैं- विजय तेंदुलकर, बादल सरकार, उत्पल
दत्त, मोहन राकेश, गिरीश कर्नाड, सत्यदेव दुबे,
ब्रजमोहन शाह, लक्ष्मीकांत वर्मा, मुद्राराक्षस
इत्यादि। आज का युवा नाटककार इन्हीं दोनों पद्धतियों
में किसी न किसी से जुड़ा हुआ है। दोनों ही पद्धतियों
में आज की विषम स्थिति, वैभवशाली और निर्धन के बीच की
गहराती खाई, मानसिक तनाव और पारस्पारिक संघर्ष आदि
विसंगतियाँ दिखाना नाट्यकार को अभीष्ट है। दोनों
शैलियाँ प्रतीकों का सहारा ले रही हैं। इन्हीं के
सहारे मानवीय मूल्यों और रिश्तों के टूटने के कारण,
राजनीतिक भ्रष्टाचार, सामाजिक कुरीतियाँ, धार्मिक
पाखंड, पुरानी पीढ़ी की अहमन्यता, चारित्रिक दुर्बलता,
देह-भोगी मानसिकता को सिद्ध किया जा रहा है। सर्वहारा
वर्ग की शोषण-प्रवृत्ति वर्ग संघर्ष का कारण मानी जा
रही है। सब जगह कुछ न कुछ चौंका देने वाली घटना अथवा
क्रांतिकारी विचार प्रकट करने का प्रयास किया जा रहा
है। पर अधिकांश नाटकों में सामाजिक बोध एवं वैचारिक
चिंतन में कोई नाता नहीं जुड़ पा रहा है। इसीलिए
नाट्यानुभूति न गहराई की ओर उन्मुख हो पा रही है और न
सार्थक जन-मनोरंजन ही हो पा रहा है।
५
अप्रैल २०१० |