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"सब साले काले - पीले हैं!"
श्रुति और इन्द्र की आँखों में सीधा देखते हुए उसने एक जोर का
ठहाका लगाया। सामने से आ रहे एक चीनी और एक काले मित्र के
अभिवादन पर दी गई प्रतिक्रिया थी यह। वे हँसे, एक नासमझ हँसी,
एक खुली, निश्छल हँसी - उसका साथ देने के लिए- बिना यह जाने कि
वह कमेन्ट उन्हीं के लिए है। वह चाह कर भी साथ नहीं दे पाई।
मुस्करा कर रह गई। एक उदास मुस्कराहट, जो जबरन ओठों के कोरों
तक फैलती है और आँखों में कोई अहसास नहीं उपजता। उसकी हँसी भी
तो कैसी थी! अन्दर का सारा खालीपन मूर्त हो उठा था एकबारगी।
मैनहट्टन में सब-वे के उस सूने प्लेटफ़ार्म पर वे खड़े थे जहाँ
से उस दिन कोई ट्रेन नहीं जानी थी। वह यही समझा रहा था उन्हें।
सप्ताहांत में ट्रेनों के रूट बदल जाते हैं और वे दोनों
घूम-फिर कर उसी प्लेटफ़ार्म पर वापस आ गए थे, जहाँ से कुछ ही
मिनट पहले उसने उन्हें वापस भेजा था।
सम्मेलन तो सिर्फ़ तीन दिनों का
था! लौटते वक्त सारा ने हाथ पकड़ कर रोका था - "जा रही है। जरा
मेरी डायरी में अपने कुछ अनुभव लिख जा।"
"अनुभव को पकने और जमने में समय लगता है, दोस्त।"
"अच्छा जा, बाद में बतलाना।" |