इस दशहरे का विचार-
रामायण समस्त मनुष्य जाति को
अनिर्वचनीय सुख और शांति पहुँचाने का साधन है।
--मदनमोहन मालवीय |
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अनुभूति
में-
दशहरे पर संकलित रचनाएँ, नवगीत की पाठशाला से गीत और ग़ज़ल, दोहे व
मुक्त छंद में अन्य रचनाएँ। |
कलम गही नहिं हाथ-
पर्वों का सुहाना मौसम, श्रद्धा और
विश्वास से भरी अर्चनाएँ और शुभकामनाओं के दौर- ऐसे में नया क्या
है जो... आगे पढ़ें |
रसोई
सुझाव-
धनिये और पुदीने की चटनी को पीसने के बाद उसमें दो तीन चम्मच दही
मिला दिया जाए तो वह अधिक स्वादिष्ट बनती है। |
पुनर्पाठ में - १ अक्तूबर २००३ को
पर्व-परिचय के अंतर्गत प्रकाशित दीपिका जोशी का आलेख
कुल्लू का दशहरा। |
क्या
आप जानते हैं?
कि रामायण सिर्फ भारत में
ही नहीं बल्कि थाइलैंड में भी पढ़ी जाती है। थाइलैंड में पढ़ी जाने
वाली रामायण का नाम ‘रामाकिन’ है। |
शुक्रवार चौपाल- ईद के बाद यह पहला शुक्रवार था। बहुत से लोगों
के आने की उम्मीद थी लेकिन लगता है लोग अभी त्योहार के नशे से... आगे
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नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- ४, की सभी रचनाएँ प्रकाशित हो गई हैं और अब
प्रस्तुत है इन पर समीक्षाओं का क्रम। |
हास
परिहास |
1
सप्ताह का
कार्टून
कीर्तीश की कूची से |
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इस सप्ताह
दशहरा विशेषांक में
कथा महोत्सव में पुरस्कृत-
भारत से
मनोज तिवारी की कहानी
जय माता दी
शहर की आबादी
से करीब पचास किलोमीटर दूर सिद्धेश्वरी माता का मंदिर। आस-पास
के गाँवों में इसकी बड़ी आस्था है और वे इसे दुर्गा का ही एक
रूप मानते हैं। लोगों का मानना है कि देवी के दरबार में जो भी
सच्चे मन से मुराद माँगता है देवी उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण
करती हैं। यहाँ पर लोग पहली बार आकर मन्नत माँगते हैं और माता
को याद कराते रहने की गरज से एक धागे में गाँठ लगाकर छोड़ जाते
हैं। जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती तो वे अगली बार आकर उस
गाँठ को खोल देते हैं। नवरात्रि के अवसर पर तो यहाँ
श्रद्धालुओं का अपार जनसमूह इकट्ठा होता ही है लेकिन वर्ष के
बाकी महीनों में भी कुछ न कुछ भीड़ बनी रहती है। मंदिर तक
पहुँचने के लिए लगभग पाँच सौ सीढ़ियाँ हैं जिन पर चल कर मंदिर
तक पहुँचना अपने आप में किसी तप से कम नहीं है।
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सूर्यकांत नागर
की लघुकथा
देवी पूजा
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पर्व परिचय में देव प्रकाश का
आलेख
दुर्गापूजा का सांस्कृतिक विश्लेषण
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लाला जगदलपुरी
के साथ देखें
बस्तर का दशहरा
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समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ |
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पिछले
सप्ताह
डॉ. सरोजिनी
प्रीतम का व्यंग्य
नमकहीन नमकीन
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यश मालवीय का ललित निबंध
गीत की चिड़िया
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रंगमंच में
नारायण भक्त का आलेख
मंच से उजड़ी मन में बसी- नौटंकी
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रचना प्रसंग में
डॉ. जगदीश व्योम से सीखें
हिन्दी में हाइकु कविता
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समकालीन कहानियों के अंतर्गत भारत से
धीरेन्द्र अस्थाना की कहानी
जो मारे जाएँगे
ये
बीसवीं शताब्दी के जाते हुए साल थे- दुर्भाग्य से भरे हुए और
डर में डूबे हुए। कहीं भी, कुछ भी घट सकता था और अचरज या असंभव
के दायरे में नहीं आता था। शब्द अपना अर्थ खो बैठे थे और
घटनाएँ अपनी उत्सुकता। विद्वान लोग हमेशा की तरह अपनी विद्वता
के अभिमान की नींद में थे-किसी तानाशाह की तरह निश्चिंत और इस
विश्वास में गर्क कि जो कुछ घटेगा वह घटने से पूर्व उनकी
अनुमति अनिवार्यत: लेगा ही। यही वजह थी कि निरापद भाव से
करोड़ों की दलाली खा लेने वाले और सीना तानकर राजनीति में चले
आने वाले अपराधियों और कातिलों के उस देश में खबर देने वालों
की जमात कब दो जातियों में बदल गई, इसका ठीक-ठीक पता नहीं चला।
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