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बस्तर का दशहरा
लाला जगदलपुरी
बस्तर अंचल में आयोजित होने वाले पारंपरिक पर्वों में
बस्तर दशहरा सर्वश्रेष्ठ पर्व है। इसका संबंध सीधे
महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा से जुड़ा है। पौराणिक
वर्णन के अनुसार अश्विन शुक्ल दशमी को माँ दुर्गा ने
अत्याचारी महिषासुर को शिरोच्छेदन किया था। इसी कारण
इस तिथि को विजयादशमी उत्सव के रूप में लोक मान्यता
प्राप्त हुई। जाहिर है कि बस्तर अंचल का दशहरा पर्व
रावण वध से संबंध नहीं रखता। बस्तर दशहरा की परंपरा और
इसकी जन स्वीकृति इतनी विस्तृत एवं व्यापक है कि
निरंतर ७५ दिन चलता है। यह अपने प्रारंभिक काल से ही
जगदलपुर नगर में अत्यंत गरिमा एवं सांस्कृतिक वैभव के
साथ मनाया जाता रहा है।
बस्तर के आदिवासियों की अभूतपूर्व भागीदारी का ही
प्रतिफल है कि बस्तर दशहरा की राष्ट्रीय पहचान स्थापित
हुई। आदिवासियों ने इसके प्रारंभिक काल से ही बस्तर के
राजाओं को हर प्रकार से सहयोग प्रदान किया। जिसका यह
परिणाम निकला कि बस्तर दशहरा का विकास एक ऐसी परंपरा
के रूप में हुआ जिसका सिर्फ़ आदिवासी समुदाय ही नहीं
समस्त छत्तीसगढ़वासी गर्व करते हैं। इस पर्व में
अन्नदान पशुदान और श्रमदान की जो परंपरा विकसित हुई
उससे साबित होता है कि हमारे समाज में सामुदायिक भावना
की बुनियाद अत्यंत मज़बूत है। भूतपूर्व बस्तर राज्य
में परगनिया माझी, माँझी मुकद्दम और कोटवार आदि
ग्रामीण दशहरे की व्यवस्था में समय से पहले ही मनोयोग
से ही जुट जाया करते थे। प्रतिवर्ष दशहरा पर्व के लिए
परगनिया माझी अपने अपने परगनों से सामग्री जुटाने का
प्रयत्न करते थे। सामग्री जुटाने का काम दो तीन महीने
पहले से होने लगता था। इसके लिए प्रत्येक तहसील का
तहसीलदार सर्वप्रथम बिसाहा पैसा बाँट देता था, जिससे
गाँव-गाँव से बकरे सुअर भैंसे चावल दाल तेल नमक मिर्च
आदि बड़ी आसानी से जुटा लिए जाते थे। सामग्री के
औपचारिक मूल्य को बिसाहा पैसा कहते थे। एकत्रिक
सामग्री मंगनी चारडरदसराहा बोकड़ा कहलाती थी। सारी
सहयोग सामग्री जगदलपुर स्थित कोठी के कोठिया को सौंप
दी जाती थी। भूतपूर्व बस्तर रियासत में टेंपिल
व्यवस्था के तहत पूर्णतः सार्वजनिक दशहरा मनाया जाता
था। समय बदला परिस्थितियाँ बदलीं, समाज बदला और इसके
साथ ही मनुष्य का जीवन भी बदला। शासन ने जन भावनाओं का
सम्मान करते हुए, इसमें अपनी रचनात्मक भूमिका
निर्धारित की। ऐसी भूमिका कि यह परंपरा लगातार विकसित
होती रहे।
एक
अनुश्रुति के अनुसार बस्तर के चालुक्य नरेश भैराजदेव
के पुत्र पुरुषोत्तम देव ने एक बार श्री जगन्नाथपुरी
तक पदयात्रा कर मंदिर में एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ तथा
स्वर्ण भूषण आदि सामग्री भेंट में अर्पित की थी। इस पर
पुजारी को स्वप्न हुआ था। स्वप्न में श्री जगन्नाथ जी
ने राजा पुरुषोत्तम देव को रथपति घोषित करने हेतु
पुजारी को आदेश दिया था। कहते हैं कि राजा पुरुषोत्तम
देव जब पुरी धाम से बस्तर लौटे तभी से गोंचा और दशहरा
पर्वों में रथ चलाने की प्रथा चल पड़ी। राजा
पुरुषोत्तम देव ने फागुन कृष्ण चार दिन सोमवार संवत
१४६५ को २५ वर्ष की आयु में शासन की बागडोर सँभाली थी।
काछिनगादी
बस्तर दशहरा का प्रथम चरण है। काछनगादी का अर्थ होता
है काछिन देवी को गद्दी देना। काछिनदेवी की गद्दी होती
है काँटों की। काछिन देवी रणदेवी भी कहलाती हैं।
काँटों की गद्दी पर बैठकर काँटों को जीतने का संदेश
देती हैं। काछिन देवी बस्तर के मिरगानो की कुलदेवी
हैं। अश्विन मास की अमावस्या के दिन काछिनगादी का
कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। इस कार्यक्रम के लिए
राजा अथवा राजा का प्रतिनिधि संध्या समय धूमधाम के साथ
जुलूस लेकर जगदलपुर के पथरागुड़ा मार्ग पर स्थिन
काछिनगादी में पहुँच जाता था। आज दंतेश्वरी के पुजारी
द्वारा इस कार्यक्रम की अगुवाई की जाती है। मान्यता के
अनुसार काछिन देवी धन-धान्य की वृद्धि एवं रक्षा करती
हैं। एक परमभक्त सिरहा आवाहन करता है। देवी के आगमन पर
झूलेपर सुलाकर उसे झुलाते हैं। फिर देवी की पूजा
अर्चना की जाती है और उससे दशहरा मनाने की स्वीकृति
प्राप्त की जाती है। काछिन देवी से स्वीकृति सूचक
प्रसाद मिलने के पश्चात बस्तर का पारंपरिक दशहरा
समारोह बड़ी धूमधाम के साथ प्रारंभ हो जाता है।
नवरात्र जोगी बिठाई
आश्विन शुक्ल १ से बस्तर दशहरा अपना नवरात्रि
कार्यक्रम
आरंभ
करता है। इस अवसर पर प्रातः स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर
में सर्वप्रथम कलश स्थापन होता है। इसके अंतर्गत
संकल्प पाठ होता है। चंडी हनुमान बगलामुखी और विष्णु
आदि देवी देवताओं के जप और पाठ नवरात्र भर चलते रहते
हैं। इसी दिन सिरासार प्राचीन टाउन हॉल में जोगी बिठाई
की प्रथा पूरी की जाती है। कहा जाता है कि पहले कभी
दशहरे के अवसर पर एक कोई वनवासी दशहरा निर्विघ्न
संपन्न होने की कामना लेकर अपने ढंग से योग साधना में
बैठ गया था। तभी से बस्तर दशहरा के अंतर्गत जोगी
बिठाने की प्रथा चल पड़ी है। जोगी बिठाने के लिए
सिरासार के मध्य भाग में एक आदमी की समायत के लायक एक
गड्ढा बना है। जिसके अंदर हलबा जाति का एक व्यक्ति
लगातार ९ दिन योगासन में बैठा रहता है। जोगी इस बीच
फलाहार तथा दुग्धाहार में रहता है। जोगी बिठाई के समय
पहले एक बकरा और ७ माँगुर मछली काटने का रिवाज था। अब
बकरा नहीं काटा जाता केवल माँगुर माछ ही काटे जाते
हैं।
रथ
परिक्रमा
जोगी
बिठाई के दूसरे दिन से रथ चलना शुरू हो जाता है।
अश्विन शुक्ल २ से लेकर लगातार अश्विन शुक्ल ७ तक चार
पहिए वाला यह रथ पुष्प सज्जा प्रधान होने के कारण
फूलरथ कहलाता है। इस रथ पर आरुढ होने वाले राजा के सिर
पर फूलों की पगड़ी बँधी होती थी। राजा रथ पर केवल देवी
दंतेश्वरी का केवल छत्र ही आरुढ़ रहता है। साथ में
देवी का पुजारी रहता है। रथ प्रतिदिन शाम एक निश्चित
मार्ग को परिक्रम करता हाँ और राजमहलों के सिंहद्वार
के सामने खड़ा हो जाता है। पहले-पहले १२ पहियों वाला
एक विशाल रथ किसी तरह चलाया जाता था। परंतु चलाने में
असुविधा होने के कारण एक रथ को आठ और चार पहियों वाले
दो रथों में विभाजित कर दिया गया। क्योंकि जन श्रुति
है कि राजा पुरुषोत्तम देव को जगन्नाथ जी ने बारह
पहियों वाले रथ का वरदान दिया था। दशहरे की भीड़ में
गाँव-गाँव से आमंत्रित देवी देवताओं के साज बाज आज भी
देखने को मिल जाते हैं। उनके छत्र डंगइयाँ घंटे बैरक
घंटे शंख तोड़ियाँ आदि सब अपनी अपनी जगह ठीक ठाक हैं,
आज भी लोग श्रद्धा भक्ति से प्रेरित होकर रथों की
रस्सियाँ खींचते हैं। रथ के साथ-साथ नाच गाने भी चलते
रहते हैं। मुंडा लोगों के मुंडा बाजे बज रहे होते हैं।
उनका 'मार'
(लोक-नृत्य) धमाधम चल रहा होता है। नाइक पाइक माझी
कोटवार आदि तो आज भी चल रहे होते हैं, पर पहले सैदार
बैदार पड़ियार और राजभवन के नौकर चाकर भी अपने अपने
राजसी पहनावे में चलते रहते हैं। रथ चालन के समय
व्यवस्था में अनेक लोग साह के साथ हिस्सा लेते हैं।
पहले रथ प्रतिदिन सीरासार चौक से ठीक समय पर चलकर शाम
को एक निश्चित समय पर सिंह द्वार के सामने पहुँच जाता
है। पहले बस्तर दशहरा में इस रथयात्रा के दौरान हल्बा
सैनिकों का वरचस्व रहता था। आज भी उनकी भूमिका उतनी ही
जीवंत एवं महत्त्वपूर्ण है। अश्विन शुक्ल ७ को चार
पहियों वाले रथ की समापन परिक्रमा चलती है। तत्पश्चात
दूसरे दिन दुर्गाष्टमी मनाई जाती है। दुर्गाष्टमी के
अंतर्गत निशाजात्रा का कार्यक्रम होता है। निशाजात्रा
का जलूस नगर के इतवारी बाज़ार से लगे पूजा मंडप तक
पहुँचता है।
जोगी
उठाई मावली पर घाव
मावली पर घाव का अर्थ है देवी की स्थापना। अश्विन
शुक्ल ९ को संध्या समय लगभग ५ बजे जगदलपुर स्थित
सिरासार में बिठाए गए
जोगी
को समारोह पूर्वक उठाया जाता है। फिर जोगी को भेंट
देकर सम्मानित करते हैं। इसी दिन लगभग ९ बजे रात्रि
में मावली पर घाव होता है। इस कार्यक्रम के तहत
दंतेवाड़ा से श्रद्धापूर्वक दंतेश्वरी की डोली में लाई
गई मावली मूर्ति का स्वागत किया जाता है। मावली देवी
को दंतेश्वरी का ही एक रूप मानते हैं। नए कपड़े में
चंदन का लेप देकर एक मूर्ति बनाई जाती है और उस मूर्ति
को पुष्पाच्छादित कर दिया जाता है। यही है मावली माता
की मूर्ति। मावली माता निमंत्रण पाकर दशहरा पर्व में
सम्मिलित होने जगदलपुर पहुँचती हैं। पहले इनकी डोली को
राजा कुँवर राजगुरु और पुजारी कंधे देकर दंतेश्वरी
मंदिर तक पहुँचाते थे। आज भी पुजारी राजगुरु और
राजपरिवार के लोग श्रद्धा सहित डोली को उठा लाते हैं।
विजयादशमी भीतर रैनी
विजयादशमी तथा अश्विन शुक्ल ११ को जगदलपुर में दशहरे
की भीड़ पहले अपनी चरमावस्था को पहुँच जाती थी। पर
भीड़ अब उतनी नहीं होती। विजयादशमी के दिन भीतर रैनी
तथा एकादशी के दिन बाहिर रैनी के कार्यक्रम होते हैं।
दोनों दिन आठ पहियों वाला विशाल रथ चलता है। भीतर रैनी
अर्थात विजयादशमी के दिन यह रथ अपने पूर्ववर्ती रथ की
ही दिशा में अग्रसर होता है। इस रथ पर झूले की
व्यवस्था रहती है। जिस पर पहले रथारुढ़ शासक वीर वेश
में बैठा झूला करता था। विजयदशमी की शाम को जब रथ
वर्तमान नगर पालिका कार्यालय के पास पहुँचता था तब रथ
के समक्ष एक भैंस की बलि दी जाती थी। भैंसा महिषासुर
का प्रतीक बनकर काम आता था। तत्पश्चात जलूस में
उपस्थित राजमान्य नागरिकों को रुमाल और बीड़े देकर
सम्मानित किया जाता था। विजयादशमी के रथ की परिक्रमा
जब पूरी हो चुकती है तब आदिवासी आठ पहियों वाले इस रथ
को प्रथा के अनुसार चुराकर कुमढ़ाकोट ले जाते हैं।
बाहिर रैनी
कुमढ़ाकोट राजमहलों से लगभग दो मील दूर पढ़ता है।
कुमढ़ाकोट में राजा देवी को नया अन्न अर्पित कर प्रसाद
ग्रहण करते थे। बस्तर दशहरे की शाभा यात्रा में कई ऐसे
दृश्य हैं जिनके अपने अलग-अलग आकर्षण हैं और जनसे
पर्याप्त लोकरंजन हो जाता है। राजसी तामझाम के तहत
बस्तर दशहरे के रथ की प्रत्येक शोभायात्रा में पहले
सुसज्जित हाथी घोड़ों की भरमार रहती थी। मावली माता की
वह घोड़ी याद आती है जिसे चाँदी के जेवरों से सजाया
जाता था। उसके पावों में चाँदी के नूपुर बजते रहते थे
और माथे पर चाँदी की झूमर झूलता था। उसकी पीठ के नीचे
तक एक ज़रीदार रंगीन साड़ी झिलमिलाती रहती थी। विगत
दशहरे में एक सुसज्जित घोड़े पर सवार मगारची नगाड़े
बजा बजा कर यह संकेत देता चलता था कि पुजारी समेत देवी
दन्तेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ होने या उतारने में
कितना समय और शेष है। पहले भीतर रैनी और बाहिर रैनी के
कार्यक्रमों में धनु काँडेया लोगों की धूम मची रहती
थी। भतरा जाति के नवयुवक धनुकाँडेया बनते थे। उनकी वह
पुष्प सज्जित धधारी देह सज्जा देखते ही बनती थी। धनु
काँडेया रथ खींचने के लिए आदिवासियों को पकड़ लाने के
बहाने उत्सव की शोभा बढ़ाते थे। वे रह-रह कर आवाज़
करते, इधर उधर भागते फिरते नज़र आते थे। बाहिर रैनी का
झूलेदार रथ कुम्हड़ाकोट से चलकर धाने की ओर से सदर रोड
होते हुए सदर प्राथमिक शाला के निकट के चौराहे से
गुज़रता है। सिंह द्वार तक पहुँचते पहुँचते उसे रात हो
जाती है।
मुरिया दरबार
अश्विन शुक्ल १२ को प्रातः निर्विघ्न दशहरा संपन्न
होने की खुशी में काछिन जात्रा के अंतर्गत काछिन देवी
को काछिनगुड़ी के पासवाले पूजामंडप पर पुनः सम्मानित
किया जाता है। इसी दिन शाम को सीरासार में लगभग ५ बजे
से ग्रामीण तथा शहराती मुखियों की एक मिली जुली आसंभा
लगती थी। जिसमें राजा प्रजा के बीच विचारों का आदान
प्रदान हुआ करता था। विभिन्न समस्याओं के निराकरण हेतु
खुली चर्चा होती थी। इस सभा को मुरिया दरबार कहते थे।
बस्तर दशहरे का यह एक सार्थक कार्यक्रम था। वैसे
आदिवासी दरबार आज भी चल रहा है। इसी के साथ गाँव-गाँव
से आए देवी देवताओं की विदाई हो जाती है।
ओहाड़ी
और अंत में अश्विन शुक्ल
१३ को प्रातः गंगा मुणा स्थित मावली शिविर के निकट बने
पूजा मंडप पर मावली माई के विदा सम्मान में गंगा मुणा
जात्रा संपन्न होती है। इस कार्यक्रम को ओहाड़ी कहते
हैं। पहले बस्तर दशहरा के विभिन्न जात्रा कार्यक्रमों
में सैकड़ों पशुमुंड कटते थे जात्रा का अर्थ होता है
यात्रा अर्थात महायात्रा (बलि)। बस्तर अंचल शाक्तों
(शक्तिपूजकों) का अंचल है। पर आज यह प्रथा बंद-सी हो
गई है।
बस्तर दशहरा बहु आयामी है। धर्म, संस्कृति, कला,
इतिहास और राजनीति से इसका प्रत्यक्ष संबंध तो जुड़ता
ही है साथ-साथ परोक्ष रूप से बस्तर दशहरा समाज की उच्च
एवं परिष्कृत सांस्कृतिक परंपरा का साक्षी भी बनता है।
आज का बस्तर दशहरा पूर्णतः दंतेश्वरी का दशहरा है।
बस्तर दशहरे की यह एक तंत्रीय पर्व प्रणाली आज के
बदलते जीवन मूल्यों में भी दर्शकों को आकर्षित करती चल
रही है। यह इसकी एक बड़ी बात है। कहना न होगा आज का जो
बस्तर दशहरा हम देख रहे हैं। वह हमें अपने गौरवशाली
अतीत से जोड़ता है। एक ऐसा अतीत जो बस्तर के
आदिवासियों की अमूल्य धरोहर है किंतु जिस पर संपूर्ण
भारतवासी गर्व करते हैं। |