वे देवी भक्त हैं। सामान्यत तो
रोज़ ही देवी की पूजा करते हैं, नव रात्र के दिनों में देवी
का विशेष ध्यान रखते हैं। लम्बी पूजा होती है। दुर्गा
सप्तशतीका पाठ होता हे। इसके लिये उन्हें शुद्ध जल, पूजन
सामग्री, घी के दीप, ताजे पुष्प और आरती के लिये कपूर आदि कि
आवश्यकता होती है। पत्नी इन समस्त वस्तुओं को पहले से जुटा,
पूजा की तैयारी कर देती है ताकि पतिदेव स्नान करके आते ही
आसन पर विराजमान हो पूजा प्रारंभ कर सकें। उस दिन आकर बैठे
तो ऊँचे स्वर में बोले,
"फूल कहाँ हैं? और माचिस व अगर बत्ती भी नहीं है। ईश्वर सेवा
में तुम्हारा तनिक ध्यान नही है।"
भूल गई", पत्नी का संक्षिप्त उत्तर था।
"भोजन करना तो कभी नहीं भूलती?" स्वर और तीक्ष्ण हो गया।
सबको खिलाकर अन्त में बचा खुचा खाने वाली पत्नी इस मुद्दे पर
मौन ही रही। उसने सिर्फ इतना कहा, "आज
से बच्चों की परीक्षाएँ शुरू हो गई हें। उन्हें पढाने और
तैयार कर भेजने में ध्यान नहीं रहा।"
"पढाना जरूरी है कि पूजा - पाठ? उनका चेहरा तमतमा आया।
"पढाई भी उतनी ही जरूरी है। पढेंगे नही तो सप्तशती का पाठ
कैसे करेंगे?"
"देखता हूँ, तु्म्हारी जुबान गज भर निकल आई है।" आँखें अंगारे
उगलने लगी थीं।
"इसमें गज-फुट का सवाल नहीं है। खुद फूल तोडकर लाओगे और पूजा
की तैयारी अपने हाथों करोगे तो ज्यादा पुण्य मिलेगा।"
"तुम मुझे पाप-पुण्य
समझाओगी, तुम? कहते हुए पंडित जी ने फूल पात्र उठाकर पत्नी की
ऒर फेंका। पीतल के भारी फूलपात्र को अपनी ओर आता देख पत्नी
फुर्ती से एक ओर हट गई और मुस्काकर बोली,
"मेरी ही बलि चढ़ाकर देवी को प्रसन्न करना चाहते हो?
लेकिन मैं अप्रसन्न हो गई तो क्या होगा कभी सोचा है?
मन शांत रखो, प्रेम से बोलो, अभी फूल लाए देती
हूँ।"
वे पत्नी का मुँह ताकते रह गए-
क्या देवी ही उसकी पत्नी में विराजमान हो उसे सीख दे गयीं?
उनका गुस्सा बह गया, कोई उत्तर न सूझा, चुपचाप कुशासन
पर बैठ पूजा-सामग्री की प्रतीक्षा करने लगे।
२८ सितंबर २००९ |