सूरजमुखी ने देखा कि जब से घर में
दावत हुई थी, उसके पति का चैन हराम हो गया था, नींद की गोली खा लेने के बाद भी वे
करवट पर करवट बदलते रहे, फिर उठकर चहलकदमी करने लगे। उनका मन डोल रहा था, शरीर चल
रहा था। अजीब-सी हरकत हो रही थी। बचा-खुचा सामान भी दावत में हुई गुलछर्रेबाजी की
घोषणा कर रहा था। पति की यह हालत देखकर सूरजमुखी ने उनके मस्तिष्क में बसी सौंधी
गंध को बाहर निकाल देने के लिए अपने प्रवचन आरंभ किए।
सूरजमुखी ने अपना पीला पल्ला
डुलाते हुए पति का कबीर रहीम आदि का दोहा प्रेम जागृत करते हुए, अपना हिंदी ज्ञान
बघारना शुरू किया तथा बोली, ''पकौड़ा-कचौड़ी, परांठा का मोह व्यर्थ है। तली चीज़ की
ओर आँख उठाकर भी मत देखो प्रिय! इंद्रियाँ भटकती हैं। भटके हुए को राह पर लाना बहुत
कठिन है। हे प्रिय आपने तो हमेशा खाने की चीज़ों पर अपना अधिकार समझकर चखने में ही
आधे से अधिक खा लेने का अटल निर्णय कायम रखा। कोई भी वस्तु न छोड़ी। बिना तली
तुम्हें कोई सब्ज़ी न भाई। गोभी के गुच्छे, आलू के कटावदार छल्ले, परांठे, पकौड़ी
की भरमार और हर समय अपच और गैस के शिकार होकर भी, तुमने अपने खाने पर टूट पड़ने की
प्रवृत्ति को न रोका। गुलछर्रे उड़ाते रहे।
मेरे बार-बार समझाने पर भी तुमने
जब खाने-पीने के प्रति ऐसी ही लापरवाही दिखाई जैसी मेरे प्रति दिखाते रहे तो
तुम्हारे अपने शरीर ने ही प्रतिक्रिया शुरू कर दी। वही जब बग़ावत पर उतर आया तो
तुम्हारे सारे मनाही के अस्त्र-शस्त्र धराशायी हो गए। धन्य है तुम्हारे शरीर की यह
प्रतिक्रिया जो हर अवांछित तत्व के प्रति अपना रोष प्रकट करके भिन्न रोगों का रूप
धारण करके, भयभीत करने के, परहेज के नए-से-नए तौर-तरीके
अपनाता है। हर लापरवाही को भीषण और घातक रूप दे-देकर खतरे की ऐसी घंटी बजाता है कि
फिर वह खतरा भी एक दुधारी तलवार का रूप धारण कर लेता है।
अब तुम्हारे इस रक्तचाप की दुधारी
तलवार तुम्हारे सिर पर कच्चे धागे से बँधी हमेशा लटकी रहेगी। अतः अब ज़रा-सी भी
असावधानी कई रंग दिखा सकती है। हे प्रिय खाना-पीना बहुत ही तुच्छ है, वह त्याज्य
है। जो त्याज्य है उसे ग्रहण ही क्यों करो? क्योंकि उसे ग्रहण करते ही तुम्हें
ग्रहण लग जाएगा। जब तक मन में ऐसी भावना घर न कर जाए कि यह अवांछनीय है, त्याज्य
है... तब तक हमारा मोह बना रहता है।
कबीरदास हों, रहीम जी हों, या
अन्य कोई भी महान दोहा, छप्पय, कुंडलियाँ लिखनेवाला, वे सब के सब नदी किनारे बैठे
साधना करते थे। सत्तू का भोजन, अंकुरित दालें और बकरी के दूध पर अपना गुज़ारा करके
देश को एक स्वस्थ साहित्य प्रदान कर गए। स्वस्थ तन में ही तो स्वस्थ विचारों का वास
होता है। सोचो तो आपके मन-मस्तिष्क पर हमेशा हलवाई और होटलों के भोजन हावी रहे। हर
उसांस में परांठे और कचौड़ी समाई हुई, हर बात में चटनी और चाट-पकौड़ी समाहित थी अतः
तुम्हारे भीतर यह सब चुपचाप अपनी चाप छोड़ते गए और तुम्हारे शरीर के चप्पे-चप्पे
में इस चाप के चिह्न यों छूटते गए कि धमनियों का रक्त उन्हीं चिह्नों पर चलने लगा।
ऊँचे विचार और ऊँचे रक्तचाप में मूलतः वैभिन्नय है अतः मन को मार लो, इस मुख को इन
सबसे विमुख कर लो। विमुख होना कठिन है, क्योंकि यह मुख ही मुख्यतया हर रोग का
जन्मदाता है। रोग के जन्म के समय ही प्रसवपीड़ा का-सा ही अनुभव होता है। यह भी शरीर
में पनपता है... और अब तो प्रायः यह जानलेवा रोग का रूप लेने लगा है। अतः इस सारी
पीड़ा की प्रक्रिया से मुक्ति का एक ही साधन है मन को जीत लो। इंद्रियों को वश में
कर लो। मैं मैं न रहे, जो भी खाने को मन करे उसे ही त्यागो। मैं तुम्हारे सामने
लच्छेदार परांठे रखूँ, तो तुम सूखी रोटी के लिए माँग करो। सम्मुख दावत देखकर भी
ठंडी उसाँस लेकर दो-तीन गिलास गरम पानी के पी जाओ-- यही सोच लो...
तली कचौड़ी यों कहे तू क्यों खावे
मोहि, इक दिन ऐसा आएगा मैं खाऊँगी तोहि
पराँठा कबहूँ न खाइये भरवाँ हो या अन्य, तली चीज़ को मानिए यह सब है, रोग जन्य
चिकनी चुपड़ी देंखकर, मत टपकावो लार, नमक और घी त्याग दो डॉक्टर कहे पुकार
तुमने आज तक मन की पुकार न सुनी,
डॉक्टर की पुकार तो सुननी ही पड़ी, क्योंकि डॉक्टर की पुकार, उसके रोग का यह विवरण,
यह ताप पित्त का चार्ट, यह खून की जाँच से प्राप्त सारी रिपोर्टें देख-देखकर मेरा
मन भारी हो रहा है। छोटी-सी शीशी में लिया गया वह खून इतनी सारी जाँच का परिणाम दे
देगा। शरीर के साथ अब तक कितने अन्याय हुए सारी रपट दे देगा, ज्ञात न था। इतनी
जल्दी जाँच की रपट, एक-एक हरकत का ब्यौरा कोलोस्ट्राल, हिमोग्लोबिन वगैरा-वगैरा
तेरह-चौदह रिपोर्ट मिल जाना आश्चर्यजनक है जी। जाँच-पड़ताल रिपोर्ट और उसका निदान
किसी और विभाग में इतनी तत्परता से नहीं होते। अगर डॉक्टर ही सबकी वकालत का काम भी
करना शुरू कर दें, तो हर मामले की सुनवायी कितनी जल्दी हो जाए, फैसले कितनी जल्दी
हो जाएँ- अब आपके मामले में सुनवायी हो गई, निष्कर्ष निकाल दिए गए। ब्लडप्रेशर-शुगर
हाई... बाकी कुछ भी नॉर्मल नहीं। वैसे तो यह लक्षण मैंने विवाह से पूर्व आपको देखते
ही भाँप लिए थे किंतु आज मैं प्रमाण के साथ प्रत्यक्ष को सत्यापित भी कर सकती हूँ।
आप न नमक को मुँह लगाओ न नमकीन
मुस्कान को, न अलोनी-सलोनी की ओर ताक-झाँक करो, न ही किसी को मुँह लगाओ। अभी तो मैं
तुम्हें सिर्फ़ नमक से परहेज का प्रवचन दे रही हूँ। आप मन ही मन सोच लो-
फीका-फीका, नीरस-नीरस, नीरस जीवन
जीना होगा
मन मोढ़ लिया मन मार लिया, यह टूटा दिल सीना होगा।
सीने में अपने दर्द छुपाए, खा लो
जो भी सम्मुख आए। आपको याद है कबीर जी ने भी कहा था- फूले-फूले चुन लिए।
हो सकता है उनका अभिप्राय
फूले-फूले से फूले हुए स्थूलकाय लोगों से ही हो- यह भी हो सकता है कि काल महोदय को
भी ब्लडप्रेशर रहता हो, तभी तो कबीर जी ने लिखा...।
चना चबेना काल का- कुछ मुँह में
कुछ गोद...
वह नहीं जानते होंगे कि जिस-जिस
प्राणी को वह लेने आए उसकी आत्मा तक नमक से सनी हैं, क्योंकि नमक ने मसालों में
अपना स्थान सर्वोपरि बनाकर किसी को नमक हराम, किसी को नमक हलाल, किसी के जले पर नमक
छिड़कना, तले पर नमक छिड़कना- घावों पर नमक। नमक ही नमक को सर्वत्र चर्चा के योग्य
बनाकर, सेवन करनेवाले को परहेज करने की ताकीद करता हुआ अनेक रंग-रूप दिखाता है। नमक
से जब समूचे शरीर का रक्त आंदोलित होने लगता है, तो इसके सत्याग्रह या आंदोलन
कैसा... क्यों हुआ यह सब... आज सहसा मन नमक की गहराइयों को छूकर इसके नमकीन खारेपन
से खारा-सा हो रहा है... प्रण करो कि अब नमक न लोगे।
लगातार प्रवाचन सुनकर सूरजचंद जी
(यानि सूरजमुखी के पति) तैश में आ गए, उन्होंने जैसे उसके समर्थन में हाथ उठाए औऱ
नमक न लेने की प्रतिज्ञा की। वातावरण में पंक्तियाँ गूँज-सी रही थीं। हर नमकीन बात
भी नमकहीन ही हो।
नमकहीन करौ मही- भुज उठाय प्रण
कीन्ह, रे मनवा अब छांड सब, जो भी है नमकीन।
२१ सितंबर २००९ |