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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
मनोज तिवारी की कहानी— 'जय माता दी'


शहर की आबादी से करीब पचास किलोमीटर दूर सिद्धेश्वरी माता का मंदिर। आस-पास के गाँवों में इसकी बड़ी आस्था है और वे इसे दुर्गा का ही एक रूप मानते हैं। लोगों का मानना है कि देवी के दरबार में जो भी सच्चे मन से मुराद माँगता है देवी उसकी मनोकामना अवश्य पूर्ण करती हैं। यहाँ पर लोग पहली बार आकर मन्नत माँगते हैं और माता को याद कराते रहने की गरज से एक धागे में गाँठ लगाकर छोड़ जाते हैं। जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती तो वे अगली बार आकर उस गाँठ को खोल देते हैं। नवरात्रि के अवसर पर तो यहाँ श्रद्धालुओं का अपार जनसमूह इकट्ठा होता ही है लेकिन वर्ष के बाकी महीनों में भी कुछ न कुछ भीड़ बनी रहती है।

पहाड़ी के ऊपर बना यह मंदिर प्रचलित मान्यता के अनुसार करीब चार सौ वर्ष पुराना है। मंदिर तक पहुँचने के लिए लगभग पाँच सौ सीढ़ियाँ हैं जिन पर चल कर मंदिर तक पहुँचना अपने आप में किसी तप से कम नहीं है। बुजुर्ग और लाचार रुक-रुक कर यह दूरी पूरी करते हैं तो कुछ जवान हर सीढ़ी पर लेट-लेट कर। समय के साथ रास्ते के दोनों ओर माता के प्रसाद की कई दुकानें बन गई हैं। इनमें से ज़्यादातर कच्ची दुकानें हैं। एक या दो तख्तों को मिला कर सामान के लिए स्थान बना लिया गया है और उनमें पूजन सामग्री एवं माता का प्रसाद बिकता है।

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