भूमिका
ये बीसवीं
शताब्दी के जाते हुए साल थे- दुर्भाग्य से भरे हुए और डर में
डूबे हुए। कहीं भी, कुछ भी घट सकता था और अचरज या असंभव के
दायरे में नहीं आता था। शब्द अपना अर्थ खो बैठे थे और घटनाएँ
अपनी उत्सुकता। विद्वान लोग हमेशा की तरह अपनी विद्वता के
अभिमान की नींद में थे-किसी तानाशाह की तरह निश्चिंत और इस
विश्वास में गर्क कि जो कुछ घटेगा वह घटने से पूर्व उनकी
अनुमति अनविशर्यत: लेगा ही। यही वजह थी कि निरापद भाव से
करोड़ों की दलाली खा लेने वाले और सीना तानकर राजनीति में चले
आने वाले अपराधियों और कातिलों के उस देश में खबर देने वालों
की जमात कब दो जातियों में बदल गई, इसका ठीक-ठीक पता नहीं चला।
इस सच्चाई का मारक एहसास तब हुआ जब ख़बरनवीसों का एक वर्ग
सवर्ण कहलाया और दूसरा पिछड़ा हुआ।
इस कथा का
सरोकार इसी वर्ग से है, इस निवेदन के साथ कि बीसवीं शताब्दी के
अंतिम वर्षों में घटी इस दुर्घटना को सिर्फ़ कहानी माना जाए।
इस कहानी के सभी पात्र-स्थितियाँ-स्थान काल्पनिक हैं। किसी को
किसी में किसी का अक्स नज़र आए तो वह शुद्ध संयोग होगा और लेखक
का इस संयोग से कोई लेना-देना नहीं होगा।
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