गीतिकाव्य की ही स्मृति है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के
अनुसार, ''नौटंकी का वर्तमान रूप चाहे जितना आधुनिक
हो, उसकी जड़ें बड़ी गहरी हैं। रामबाबू सक्सेना ने
अपने ''तारीख-ए-अदब-ए-उर्दू'' में लिखा है कि ''नौटंकी
लोकगीतों और उर्दू कविता के मिश्रण से पनपी है।''
कालिका प्रसाद दीक्षित कुसुमाकर का कहना है कि नौटंकी
का जन्म संभवतः ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में हुआ था।
१३वीं शताब्दी में अमीर खुसरो के प्रयत्न से नौटंकी को
आगे बढ़ने का मौका मिला। खुसरो अपनी रचनाओं में जिस
भाषा का प्रयोग करते थे, वैसी ही भाषा और उन्हीं के
छंदों से मिलते-जुलते छंदों का प्रयोग नौटंकी में
बढ़ने लगा।
संगीत प्रधान लोकनाट्य नौटंकी सदियों तक उत्तर भारत
में प्रचलित स्वांग और भगत का मिश्रित रूप है।
''स्वांग और भगत'' में इस प्रकार घुलमिल गई है कि इसे
दोनों से अलग नहीं किया जा सकता।
संगीत प्रधान इस लोक नाट्य के नौटंकी नाम के पीछे एक
लोक प्रेमकथा प्रचलित है। कहते हैं, पंजाब में नौ़टंकी
नाम की एक शहज़ादी था। स्यालकोट के राजा राजो सिंह के
छोटे बेटे फूल सिंह ने शिकार खेलकर लौटने पर भाभी से
पीने के लिए पानी माँगा। भाभी ने पानी के बदले व्यंग्य
किया- जाओ, मुलतान की राजकुमारी नौटंकी से शादी कर लो।
फूलसिंह मुलतान पहुँच गया और शाही मालिन के द्वारा
नौटंकी के पास एक हार भेज दिया। नौटंकी के पूछने पर
मालिन ने कह दिया- मेरे भाँजे की वधू ने यह हार बनाया
है। नौटंकी ने जब उसे भाँजे की वधू को भेज देने के लिए
कहा, तो फूल सिंह स्त्री-वेश में नौटंकी के सोने के
कमरे में पहुँच गया। रात में साथ सोने के क्रम में यह
भेद खुल गया और अंततः दोनों की शादी हो गई। राजकुमारी
नौटंकी की गाथा पर पं. मुरलीधर ने एक स्वांग की रचना
की, जो १९०१ ई. में प्रकाशित हुई।
नौटंकी की जन्मस्थली उत्तर प्रदेश है। हाथरस और कानपुर
इसके प्रधान केंद्र है। हाथरस और कानपुर की नौटंकियों
के प्रदर्शन से प्रेरित होकर राजस्थान, मध्य प्रदेश,
मेरठ और बिहार में भी इसका प्रसार हुआ। मेरठ, लखनऊ,
मथुरा में भी अलग-अलग शैली की नौटंकी कंपनियों की
स्थापना हुई। बिहार के ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों
में भी दशहरा-दिवाली जैसे पर्वों पर कहीं कानपुर, कहीं
हाथरस की नौटंकियों को आमंत्रित किया जाता था। कुछ ही
दिन पहले तक मोकामा-बरौनी-बेगूसराय क्षेत्र में
छोटी-छोटी नौटंकी मंडलियों द्वारा रेशमा- चूड़ामल
नौटंकी का प्रदर्शन किया जाता था। बिहार में गया, आरा,
सासाराम, छपरा, डुमराव, बक्सर आदि जगहों में नौटंकी
प्रेमियों की संख्या सर्वाधिक है।
स्वांग
विधा के जनक
पं.
नत्थाराम शर्मा गौड़- स्वांग विधा के जनक नत्थराम
शर्मा गौड़ का जन्म १४ जनवरी १८७४ ई. को हाथरस जंक्शन
के निकट दरियापुर गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ
था। १८८८ ईं में मिडिल की परीक्षा पास करने के बाद वे
दरियापुर से हाथरस आए। यहाँ उस्ताद इंदरमल के शागिर्द
चिरंजीलाल के संपर्क में आने पर उनकी प्रतिभा चमकने
लगी। उन्होंने देशभक्ति, चरित्रबल., वीररस, ईश्वरभक्ति
आदि विभिन्न विषयों को लेकर अनेक कवित्वपूर्ण स्वांगों
की रचना की, जिनमें अमर सिंह राठौर, भक्त मोरध्वज,
हरिश्चंद्र, भक्त पूरनमल, दुर्गावती, आल्हा का ब्याह,
नल चरित्र, रानी पद्मावती आदि प्रमुख हैं। इन स्वांगों
की लोकप्रियता से प्रभावित और प्रेरित होकर अनेक लोगों
ने हिंदी सीखी। इनकी रचनाओं से राष्ट्रीय एकता और
सांप्रदायिक सद्भाव को बल मिला। ये स्वांग आम लोगों की
बोलचाल की भाषा में हैं। अतः हिंदी के प्रचार-प्रसार
और विकास में इनके योगदान को अस्वीकार नहीं किया जा
सकता।
नत्थाराम जी को स्वांग के मंचन, निर्देशन, संयोजन में
भी कुशलता हासिल थी। लावनी, बहरे-तबील, छंद, चौबोला,
दुबोला, रेहता, कव्वाली आदि नौटंकी के प्रचलित छंदों
को अपनी बुलंद आवाज़ में जब गाते थे, तो सुनने वाले
मंत्रमुग्ध रह जाते थे।
पंडित जी के अखाड़े के उस्ताद इंदरमल जी थे। इस अखाड़े
में हरमुख राय, नारायण दास, प्रसादी लाल, शायदी,
हीरालाल आदि प्रसिद्ध कलाकार थे। पंडित नत्थाराम के
अलावा गुरु चिरंजीलाल, चिरजीलाल के गुरु इंदरमन,
वासुदेव जी बासम, जिन्होंने १८३० ई. में हाथरसी स्वांग
की शुरुआत की और कानपुर शैली की नौटंकी के संस्थापक
श्रीकृष्ण पहलवान, त्रिमोहनलाल आदि थे।
आरंभ
में नौटंकी में महिलाएँ भाग नहीं लेती थीं। पुरुष ही
स्त्री-वेश धारण कर अभिनय किया करते थे। १९३० में
प्रथम महिला कलाकार गुलाब बाई ने नौटंकी में प्रवेश
किया। त्रिमोहन सिंह लाल एंड कंपनी में करीब बीस
वर्षों तक काम करने के बाद उन्होंने गुलाब थिएट्रिकल
कंपनी के नाम से अपनी अलग कंपनी बनाई। सन १९३० ई. में
ही कृष्णाबाई भी त्रिमोहन लाल की कंपनी में भर्ती
हुईं। इनमें गुलाब बाई ने अखिल भारतीय ही नहीं,
विदेशों में भी अपने प्रभावशाली प्रदर्शन के कारण
ख्याति अर्जित की। उनमें कुछ अद्भुत गुण थे। बोल की
अदाकारी के लिए वे काफी सराही जाती थीं। भारत सरकार
द्वारा उन्हें 'पद्मश्री' से सम्मानित भी किया जा चुका
है।
हाथरसी
और कानपुर शैली
नौटंकी की कानपुर-शैली के जन्म के पीछे एक दिलचस्प
घटना है। एक बार नत्थाराम जी ने अपनी पूरी मंडली के
साथ कानपुर में प्रदर्शन किया। प्रदर्शन के अंत में
उन्होंने चुनौती दी- ऐसा स्वांग कोई और नहीं कर सकता।
उनकी चुनौती को बद्री खलीफ़ा ने स्वीकार करते हुए
घोषणा की एक महीने के अंदर इसी जगह ऐसा स्वांग
प्रस्तुत किया जाएगा, जिसमें १२ नगाड़े एक साथ बजेंगे।
पूर्व निश्चित दिन स्वांग का प्रदर्शन किया गया, जिसे
देखने के लिए जन-समुदाय उमड़ पड़ा। मंच के एक बीच एक
विशाल नगाड़ा रखा गया और उसके चारों ओर १२ नगड़िया
(छोटे नगाड़े) रखी गईं। नगड़ची मैकू उस्ताद ने नगाड़े
पर चोट की, जिसकी आवाज़ से पूरा वायुमंडल गूँज उठा और
नौटंकी शुरू हो गई। बाद में श्री कृष्ण पहलवान ने अपनी
नौटंकी कंपनी की स्थापना की जो कानपुर शैली की सबसे
बड़ी नौटंकी के रूप में विख्यात एवं लोकप्रिय हुई।
नौटंकी की तुलना पश्चिमी देशों में प्रचलित ऑपेरा से
की जा सकती है। नौटंकी में संगीत और गायन की प्रधानता
होती है। हाथरसी शैली के जन्मदाता नत्थाराम शर्मा गौड़
और कानपुरी शैली के श्रीकृष्ण पहलवान हैं। दोनों
शैलियों में कुछ ख़ास भिन्नताएँ हैं। हाथरसी शैली में
गायन और स्वांगीय अभिनय की प्रधानता है। कानपुरी शैली
में संवाद भी पद्य में ही होते हैं। इसमें नृत्य की भी
प्रधानता होती है। हाथरस की नौटंकी को स्वांग एवं भगत
भी कहा जाता है, जबकि कानपुरी शैली की नौटंकी को
सिर्फ़ नौटंकी या तमाशा कहा जाता है।
हाथरस की नौटंकी की भाषा में ब्रज, उर्दू और खड़ी बोली
का मिला-जुला रूप होता है। कानपुर शैली की नौटंकी की
भाषा में कन्नौजी, उर्दू और खड़ी बोली के शब्द होते
हैं। हाथरस और कानपुर की नौटंकी में चौबोला, लावणी,
दोहा, सोरठा, दौड़ आदि छंदों का प्रयोग होता है।
प्रस्तुति
नौटंकी की प्रस्तुति के लिए किसी खुली जगह में खुला
मंच होता है। दो-चार चौकियाँ या पटरे बिछाए जाते हैं।
पीछे एक पर्दा मात्र होता है। ख़ास-ख़ास नाटकों में
कुछ पर्दों का भी प्रयोग किया जाता है। नाटक के आरंभ
में कुछ देर नगाड़े बजते हैं। इसके बाद पात्र मंच पर
आते हैं। नौटंकी ही एक मात्र ऐसी विधा है, जिसमें गायन
पहले होता है और संगीत बाद में। पात्र जब अपनी बात
कहता है, उसके बाद दो-तीन मिनट नगाड़ा तथा अन्य वाद्य
बजते हैं। यह सिलसिला आदि से अंत तक चलता रहता है।
भाषा-खंड
नौटंकी की भाषा में हिंदी, उर्दू तथा लोकभाषा एवं
क्षेत्रीय बोलियों के शब्दों का प्रयोग अधिक होता है।
नौटंकी संवाद गद्य और पद्य दोनों में होते हैं।
पात्रों तथा घटनाओं के अनुसार भाषा के रूप में कोई
भिन्नता नहीं होती। भाषा लाक्षणिक नहीं, सरल और सुबोध
होती है। नौटंकी में बहरेतबील, चौबोला, दोहा, लावणी,
सोरठा, दौड़ आदि छंदों का विशेष रूप से प्रयोग होता
है। नौटंकी में नगाड़े का प्रमुख स्थान है। इसके अलावा
ढोलक, डफ और हारमोनियम का भी प्रयोग होता है।
लखनऊ
में नौटंकी कला-केंद्र की स्थापना की गई है। इस केंद्र
की ओर से नौटंकी-प्रशिक्षण स्कूल का संचालन किया जा
रहा है और 'नौटंकी कला' नाम से एक पत्रिका भी प्रकाशित
की जा रही है। नौटंकी कला के प्रशिक्षण के लिए
कार्यशाला भी आयोजित की जाती है।
नौटंकी एक जीवंत, लोकप्रिय और प्रभावशाली लोककला है।
यह कला जन-मानस से जुड़ी है। अतः सामाजिक संस्थाओं के
अलावा सरकार की ओर से भी इसे संरक्षण और प्रोत्साहन
मिलना चाहिए। वैसे इस कला के प्रेमी आज भी बीते दिनों
की याद करते हैं, जब नौटंकी प्रदर्शन जगह-जगह होते थे।
वे यह मानते हैं- बाहर से उजड़ी है, दिल में बसी है-
नौटंकी।
२१
सितंबर २००९ |