अनुभूति
में-
रमेश पंत, अनिरुद्ध सिन्हा, सुरेश ऋतुपर्ण, डॉ. जितेन्द्र वशिष्ठ, और
अशोक अंजुम की नई रचनाएँ। |
कलम गही नहिं हाथ-
दादा विंसी को तो आप जानते ही
होंगे, अरे वही अपने विंसी दा.... जिन्हें इतालवी भाषा में दा
विंसी कहते हैं। ....
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रसोई
सुझाव-
अगर आलू को छीलकर काटें और पानी में एक चम्मच सिरका डालकर उबालें
तो आलू अपेक्षाकृत जल्दी उबलेंगे और टूटेंगे नहीं। |
पुनर्पाठ में - १६ दिसंबर
२००१ को
समकालीन कहानियों के अंतर्गत प्रकाशित मालती जोशी की कहानी
स्नेहबंध। |
क्या
आप जानते हैं?
कि भारत में ५०० से अधिक वन्य प्राणी अभयारण्य हैं, जिसमें से
२८ बाघ संरक्षण के लिए आरक्षित हैं। |
शुक्रवार चौपाल- इस सप्ताह
प्रकाश का फोन आया है कि वे भारत वापस लौट आए हैं। शुक्रवार को जब वे
घर आए तो उनके हाथों में मोतीचूर... आगे
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नवगीत की पाठशाला में- इस माह नवगीत से संबंधित लेखों का
प्रकाशन जारी है और कार्यशाला-४ के विषय की घोषणा कर दी गयी है। |
हास
परिहास |
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सप्ताह का
कार्टून
कीर्तीश की कूची से |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों के अंतर्गत यू. एस. ए से सुषम
बेदी की
कहानी
तीसरी दुनिया का मसीहा
ब्रूनो ने
बात कहते-कहते स्टीयरिंग से हाथ उठा लिए और सही लफ़्ज़ों की
तलाश की जद्दोजहद में हाथों की संप्रेषण शक्ति की पूरा
इस्तेमाल करते हुए पूरे जोशोख़रोश के साथ अपनी बात खोलने लगा-
''-- इस देश में आदमी का जिस्म भी एक इंडस्ट्री है... सारे
डॉक्टर उसी की कमाई खाते हैं... कोई न कोई बीमारी उगाकर पैसा
बनाने की फ़िराक़ में रहते हैं। इन डॉक्टरों में
कोई इंसानी हमदर्दी थोड़े न है... जितनी बड़ी आपकी बीमारी हो उतनी ही खुशी से वे
फूलते-फैलते हैं। आप तो दर्द से कराह रहे होते हैं और वह आपकी नब्ज़ पर हाथ रखे कोई
बेहतर नई गाड़ी या बड़े से बड़ा घर ख़रीदने की सोच रहा होता है...''
पहले सहायक भाषा के रूप में उसका एक हाथ ही उठता रहा था... पर
अब बार-बार दोनों हाथ स्टीयरिंग से उठ जाते। यों गाड़ी की
रफ़्तार बहुत धीमी थी फिर भी मैं ब्रूनो के कभी हवा में झूलते
और कभी कार की छत या स्टीयरिंग से टकराते हाथों पर नज़र
ऊपर-नीचे, दायें-बायें करती बहुत नर्वस हो रही थी।
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अनूप शुक्ला
का व्यंग्य
रामू ज़रा चाय पिलाओ
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शैलेन्द्र-जयंती के अवसर पर
डॉ. इंद्रजीत सिंह की कलम से
गीतकार शैलेन्द्र
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रंगमंच में
मिथिलेश श्रीवास्तव का आलेख
यह समाज यह संस्कृतिः
आज का नाटक
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फुलवारी के अंतर्गत गैंडे के विषय में
जानकारी,
शिशु गीत और
शिल्प |
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पिछले
सप्ताह
अविनाश
वाचस्पति
का व्यंग्य
दाल गल रही है
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घर परिवार में अर्बुदा ओहरी के सुझाव
पर्यटन
और स्वास्थ्य
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कजरी तीज के अवसर पर भवानी प्रसाद द्विवेदी का
निबंध- झूला लागल कदंब की डारी
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रसोईघर में बरसात की विशेष मिठाई
अनरसे
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कथा महोत्सव में पुरस्कृत-
भारत से
ईश्वरसिंह चौहान की कहानी
रति का भूत
अमावस की
काली रात ने गाँव को धर दबोचा था। चौधरियों के मोहल्ले में से
बल्बों की रोशनी दूर से गाँव का आभास करवाती थी। आठ बजते-बजते
तो सर्दी की रात जैसे मधरात की तरह गहरा जाती है। कहीं कोई
कुत्ता भौंकता तो कभी कोई गाय रंभाती पर आदमी तो जैसे सिमट कर
अपनी गुदड़ी का राजा हो गया हो। कभी-कभी बूढ़े जनों की खराशकी
आवाज़ आती थी। जसोदा ने ढीबरी जला दी। लखिया अभी तक घर नहीं
आया था। वैसे भी उसको कहाँ पड़ी थी जसोदा की... जब देखो तब
चौधरी हरी राम की बैठक में जमा रहता था। कई दिनों से अफीम भी
लेने लगा है। लखिया की ये बात जसोदा को पसंद नहीं। इसी बात पर
दोनों के बीच तू-तू मैं-मैं होती रहती हैं। दूर खेतों से सियार
की डरावनी आवाज़ सुनाई देने लगी तभी मोर चीखे जसोदा का कलेजा
दहल गया।
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