लेकिन यह बदलाव बहुत
तेज़ी से हुआ है। आज़ादी के पचास बरस के भीतर ही आदर्श
और ईमानदारी सरीखे शब्दों को खोखला बना दिया। आज़ाद
भारत की इन नकारात्मक उपलब्धियों का यह देश क्या करे।
आज़ादी की लड़ाई के दौरान आदर्श, ईमानदारी और त्याग
समाज की बुनियाद थे। हालाँकि यह भी सच है कि बुराइयों की जीत
अस्थायी रही है औह बुरे लोगों का पतन देर-सवेर हुआ ही
है। आज़ादी के बाद बुरे लोग राकेट की तरह ऊपर चढ़े
लेकिन गिरे भी। उनका गिरना किसी ने देखा नहीं और
प्रशासकीय स्तर पर उन्हें गिरते हुए दिखाया भी नहीं।
फ़िल्मों और टीवी सीरियलों में उनके गिरने को इतनी
ग्लैमराज़ कर दिया गया कि उसे विशेषता मान लिया गया।
राजनीति, भारतीय प्रशासन और सरकार द्वारा संचालित,
नियंत्रित और पोषित संस्थाओं ने भी बुरे लोगों के झंडे
ऊँचे फहराए, लेकिन कला, संस्कृति और साहित्य इस
दुष्चक्र के पीछे के एजेंडे को समझा गया। हिंदी साहित्य
बुरे लोगों की तथाकथित विजय के महिमामंडन के पाखंड को
दिखाता रहा है।
नाटककारों,
रंगनिर्देशकों और रंगकर्मियों में आदर्श और ईमानदारी
आज भी लोकप्रिय विषय है और इन विषयों पर लिखे गए
उपन्यासों पर आधारित नाटक खेलने में उन्हें कोई एतराज़
नहीं है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तृतीय वर्ष के
छात्रों ने बंग्ला के उपन्यासकार विभूति नारायण
बंधोपाध्याय के उपन्यास 'आदर्श हिंदू होटल' का रंजीत
कपूर के निर्देशन में मंचन किया।
रानावि नाट्य कला में
तीन वर्षीय विस्तृत प्रशिक्षण प्रदान करता है।
पाठ्यक्रम को पूरा करने पर विद्यालय सफल छात्रों को
नाट्यकला में डिप्लोमा प्रदान करता है। लगभग बीस
छात्र-छात्राएँ देश भर से कठिन प्रवेश परीक्षा के
द्वारा चुने जाते हैं। अंतिम वर्ष के अंत में इन्हें
एक नाटक करना पड़ता है जो लगभग विद्यालय छोड़ने के समय
की प्रस्तुति कहा जाता है। १९९५-९८ बैच के
छात्र-छात्राओं का वह अंतिम वर्ष था और उसी उपलक्ष्य
में उन्होंने 'आदर्श हिंदू होटल' का मंचन किया।
उपन्यास के वातावरण
में १९३० के आस-पास का बंगाल है। रानीघाट रेलवे स्टेशन
के बेचू चक्रवर्ती के होटल में हज़ारी ठाकुर नाम का एक
रसोईया है जो खाना बड़ा स्वादिष्ट बनाता है। हज़ारी के
सुस्वाद भोजन और उसकी ईमानदारी और लगन की चर्चा
दूर-दूर तक है लेकिन उसका शोषण उसका मालिक करता है। एक
दिन पद्मी महरी के उकसाने पर उसे होटल की नौकरी से
निकाल देता है। अपना होटल खोलने का सपना वह देखा करता
था लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उसे पूरा करने में
असमर्थ था। लेकिन अड़तालीस वर्ष की उम्र में वह अपना
होटल खोलता है जो चल निकलता है। हज़ारी अपनी आदमियत
नहीं खोता। विनम्र भाव, दूसरों का आदर करना, दूसरों की
मदद करना यह सब जो इंसानी खूबियाँ जो उसमें शुरू से
थीं, धनवान होने पर भी उसमें रहती हैं। जिस होटल मालिक
ने उसे अपमानित करके निकाल दिया था, उसके दिवालिया हो
जाने पर आदर के साथ उसे अपने होटल में लाता है और
मैनेजर बना देता है।
यह समकालीन समाज इन
इंसानी खूबियों को भूलता चला जा रहा है। थोड़ी-सी
समृद्धि के बाद लोगों का सिर फिर जा रहा है। इंसानियत
और सौहार्द्र भुला दिया जा रहा है। इस नाटक की नारियाँ
शरतचंद्र के उपन्यासों की नारियों जैसी सरल, मददगार मन
को स्पर्श करने वाली हैं। धार्मिक अनुष्ठानों से
निकलने वाला आदर्श विभूति बाबू के नाटक में नहीं है।
यह सामाजिक सरोकारों से निकलने वाला आदर्श है। न्याय
के खिलाफ़ संघर्ष से निकलने वाला यह आदर्श है। इसमें
पाखंड नहीं है। इस पाखंड विहीन इंसानी खूबियों की
वायसी का यह समय है। इस अर्थ में विभूति बाबू का यह
उपन्यास प्रासंगिक है। तृतीय वर्ष के छात्रों को समाज
की इस ज़रूरत को ध्यान में रखना चाहिए। इंसानी खूबियों
की इस प्रासंगिकता का संदेश लोगों में जाना चाहिए।
दिलचस्प बात है कि गांधी जी के अफ्रीका से भारत लौटने
और भारतीय संविधान को लागू करने के बीच का समय विभूति
बाबू के सक्रिय लेखकीय जीवन का समय है। रंजीत कपूर खुद
कहते हैं कि इस उपन्यास को उन्होंने दस साल पहले पढ़ा
था जब देश में बोफर्स घोटाले का ज़ोर था। उस दौर में
इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगा था कि ईमानदारी का अपना
महत्व है और उसके बल पर ही आदमी आगे बढ़ सकता है।
रंजीत कपूर मशहूर
रंगकर्मी और रंग निर्देशक है। कई वर्षों बाद उन्होंने
किसी नाटक का दिल्ली में निर्देशन किया है। संगीत और
नृत्य से भरे इस नाटक का महत्व सामाजिक संदर्भ में तो
है ही, उपन्यास के विस्तार को ध्यान में रखे तो इसका
मंचन चुनौतीपूर्ण था जिसे रंजीत कपूर के निर्देशन में
रानावि के अंतिम वर्ष के छात्रों ने कुशलता से किया।
इसी प्रकार हर वर्ष
कुछ कलाकार जो अंतिम वर्ष के छात्र होते हैं और जो उस
समय रंगकर्म में
प्रशिक्षित हो चुके होते हैं। वे अपने-अपने लिए कैरियर
की तलाश को निकल पड़ते हैं। कुछ लोग चुपके से मुंबई निकल
जाते हैं, कुछ लोग रंगमंच से जुड़े रह जाते है। एकाध ऐसे
भी होते हैं जो प्रयोगधर्मी रंगकर्म से जुड़ते हैं। भारतीय
समाज में (विशेष रूप से हिंदी क्षेत्र में) जहाँ किसी को
अपने लेखक, कवि, रंगकर्मी आदि से बहुत कम मतलब रह गया
है, प्रयोगधर्मी रंगकर्म की बहुत ज़रूरत है ताकि लोगों
के जीवन में कलाओं की वापसी हो सके, हमारे सांस्कृतिक
मूल्यों की वापसी हो सके और खोए हुए सामाजिक आदर्शों
की वापसी हो सके।
२४
अगस्त २००९ |