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संस्मरण 

अतुल अरोरा

अमेरिका के कुछ महानगरों के हाईवे में सबसे बाईं तरफ की लेन एचओवी यानी कि हाई आकूपेन्सी वेहिकल लेन कहलाती है। अगर आप को कुछ दूर तक हाइवे से बाहर नहीं निकलना, तो एचओवी लेन में आप एकसमान तेज़ गति से सफर कर सकते हैं। इसमें निश्चित अंतराल पर प्रवेश व निकास के चिन्ह निर्धारित होते हैं। बस एक बार एचओवी लेन में प्रवेश कीजिए और फर्राटे से बिना लाल बत्ती या लेन बदलने की चिंता किए भागते जाइए। इसी एच ओ वी लेन का हिंदीकरण है 'बड़ी सड़क की तेज़ गली'।

अमेरिका में ज़िंदगी भी बस बड़ी सड़क की तेज़ गली की तरह लगती है। इस तेजरफ़्ता ज़िंदगी जैसी बड़ी सड़क पर हर शख्स अपनी गाड़ी तेज़ गली में पहुँचाने की मगजमारी करता रहता है। जिस गली में कोई रोकटोक न हो, न ही कोई अड़चन या रुकावट हो। एकबारगी इस लेन में घुस जाने के बाद बाकी लेनों की धक्कामार जिंदगी यानी कि स्वदेश में कोई वापस नहीं जाना चाहता। लेकिन तेज़ गली है एकदम बेरंग। कोई लालबत्ती नहीं, हमेशा तेज़ भागते रहने की मज़बूरी और साथ ही न भाग सकने पर बाहर निकलने का खौफ। आदमी घोड़े का चश्मा लगाए, बिना दूसरी लेन में देखे बस भागता चला जाता है खींचते हुए अपनी ज़िंदगी की गाड़ी को। पता नहीं चलता कब मंज़िल आ गई। कुछ इसी प्रकार से अपना जीवन बीता है।

उम्र तमाम होती रही, परिवार में सदस्य जाते आते रहे। दोस्त मिले, छूटे। कानपुर की गलियों में एलएमएल–वेस्पा चलाते-चलाते एक दिन खुद को अटलांटा में तेज़ गली में पाया। अभी तक तेजरफ़्ता रही इस ज़िंदगी में, जो अभी तक गुजरा है, उसमें से जो कुछ खट्टा–मीठा या गुदगुदाता सा है उसमें से कुछ यहाँ बाँट रहा हूँ आपके साथ।

टेलिफोन कॉल जो भूचाल बनकर आई 

अपने कैरियर के तीन साल लखनऊ कानपुर में खर्च करने के बाद एक दिन मुझे भी यह ब्रह्मज्ञान हो गया कि उत्तर प्रदेश में इन्फॉरमेशन टेक्नोलाजी की क्रांति शायद मेरी जवानी में आने से रही और सरकार सूचना क्रांति के नाम पर हर शहर में टेक्नोलाजी पार्क बनाकर ठोंकती रहेगी सरकारी बाबुओं के पीकदान बनने के लिए, अतः भला इसी में है कि हम भी हवा के रुख़ के साथ अमेरिका के लिए बोरिया बिस्तर बाँध लें।

ख़ैर कुछ महीने तक अपनी कर्मकुंडली यानी बायोडेटा को कम से कम एक हज़ार नियोक्ताओं के पास भेजने के बाद यह तक भूल गया कि किस-किस के पास भेजा था। सोचा कि दिल बहलाने को ग़ालिब खयाल अच्छा है... हम तो खाक छानें कानपुर की और हमारी कर्मकुंडली इंटरनेट की बदौलत दुनिया की मुफ़्त सैर कर रही है। खैर, कर्मकुंडली को कुछ लोगों ने पसंद भी किया और कुछ टेलीफोन काल्स भी आईं, ऐसे ही एक दिन फोन रिसीव करने पर उधर से शालीन आवाज़ आई- 
"अतुल, मैं नीरज बोल रहा हूँ। आपका बायोडेटा देखा। उसी सिलसिले में आपके अब तक किए गए काम के बारे में बात करना चाहता हूँ।"
कुल पाँच मिनट की संक्षिप्त बातचीत हुई और जनाब ने यक्ष प्रश्न पूछ डाला,
"हाँ कहने के क्या लोगे?" 
मैं पशोपेश में था कि नीरज साहब रहते किस शहर में हैं, दिल्ली या बम्बई तो फिर उसी हिसाब से मुँह खोलूँ। खैर, कूटनीतिक जवाब दिया "नीरज जी, यह बहुत कुछ मेरे नियुक्ति स्थल पर निर्भर करता है।"
नीरज जी ने निर्विकार भाव से उत्तर दिया "नियुक्ति स्थल से बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ता। हाँ वेस्ट कोस्ट हो तो बात अलग है।"
मेरे मन की एक साथ कई घंटियाँ बज गईं "क्या वेस्ट कोस्ट, यानी कि अमेरिका, यानी कि जवाब डॉलर में देना चाहिए, यानी कि..."। 

ख़ैर नीरज जी ने जो ऑफर दिया वह मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। नीरज ने अगले दिन ईमेल भेजने की बात कही और अगले दिन टेक्निकल इंटरव्यू करने का जिक्र किया, पर अगले दिन मेरे ईमेल इनबाक्स पर ऑफर लेटर विराजमान था, और दो दिन में ही एक कोरियर असली पत्र कुछ हिदायतों के साथ, जिनमें पासपोर्ट के कुछ पन्ने भी माँगे गए थे। इस पाँच मिनट की कॉल ने, कनपुरिया भाषा में बवाल मचा दिया। अब कानपुर की आबोहवा छूटने का समय आ गया था। ज़िंदगी ने १८० डिग्री का मोड़ ले लिया था। एक अनजानी दुनिया में पैर टिकाने की तैयारियाँ करनी थीं।

क्या छोड़ूँ और क्या ले चलूँ

पहले कुछ दिन बड़ी दुविधा में बीते। अगर आप में से कोई पहली बार अमेरिका आ रहा है तो यह प्रसंग आपके काम का हो सकता है। आपको ऐसे–ऐसे विशेषज्ञ मिल जाएँगे कि जिन्होंने खुद तो अपने शहर के बाहर ताउम्र पाँव भी नहीं रखा होगा पर आपको अमेरिका में किस चीज़ की ज़रूरत पड़ती है, क्या मिलता है, क्या भारत से लाना पड़ता है यह सब बताने को तत्पर रहेंगे। यह और बात है कि इन सबकी सलाह परस्पर विरोधी होगी और अंततः आप लालू यादव की भाषा में कन्फ्युजिया जाएँगे। एक ऐसे ही अंकल मुझे एक दिन अलग कमरे में ले जाकर चिंतातुर हो रहे थे कि यार तुम शराब को हाथ भी नहीं लगाते तो अटलांटा जैसी ठंडी जगह में ज़िंदा कैसे रहोगे। अब अटलांटा तो खास ठंडा नहीं था पर मैं तो उन्हें बताना चाहता हूँ कि चार साल से फिलाडेल्फिया जैसी जगह जहाँ बर्फ़ भी पड़ती है वहाँ मेरे जैसे कई भलेमानुष बिना सुरासेवन के ज़िंदा हैं। कोई वहाँ कढ़ाई ले जाने पर ज़ोर दे रहा था तो कोई रजाई। भला हो अमेरिका में पहले से रह रहे मित्रों का जिन्होंने वक्त पर सही मार्गदर्शन कर दिया। यहाँ सब कुछ मिलता है। घर को गरम रखने का इंतज़ाम होता हैं अतः रजाई कोई नहीं ओढ़ता। मेरे एक मित्र को ऐसे ही विशेषज्ञों ने रजाई, कढ़ाई और न जाने क्या माल असबाब लाद कर ले जाने पर मज़बूर कर दिया था। बेचारा एअरपोर्ट पर फौजी स्टाईल के बिस्तरबंद के साथ कार्टून नज़र आ रहा था।

मेरे जीजा भी कैलीफोर्निया में रहते हैं

अमेरिका जाने पहले सभी नाते रिश्तेदारों से एक बार मिलने के सिलसिले में बड़ा मज़ेदार अनुभव हुआ। ज्यादातर दूर के रिश्तेदारों के न जाने कहाँ से अमेरिका में संबंधी उग आए। अपने निकट का तो ख़ैर कोई भी भारत से तो क्या उत्तर प्रदेश से भी बाहर मुश्किल से ही गया होगा। अब इन दूर के रिश्तेदारों और जानपहचान वालों ने अपने अमेरिकी रिश्तदारों के नंबर भी देने शुरू कर दिए। इसके लिए मुझे साथ में हमेशा एक डायरी रखनी पड़ती थी। सोचता था कि कभी तथाकथित अमरीकी रिश्तेदारों को देखा तो है नहीं इन लोगों के यहाँ, जो रिश्तेदार अमेरिका में रह कर इन पास के रिश्तेदारों को नहीं पूछते वे भला मुझ दूर के रिश्तेदारों को क्यों लिफ्ट देंगे। फिर भी औपचारिकता निर्वाह हेतु नंबर सबके नोट कर लिए। 

एक दिन तो हद हो गई। किसी ने सलाह दी कि, कस्टम के नियमानुसार सारे लगेज बैग में चाहे छोटे ही सही ताले लगे होने ज़रूरी हैं। अतः एक परचून वाले की दुकान जाकर सबसे सस्ते ताले माँगे। परचून वाले ने ताले देते हुए पूछ लिया कि "साहब थोड़े मज़बूत वाले ले लो, यह तो कोई भी तोड़ देगा।" मैंने जब हल्के ताले पर ही जोर दिया तो उसने अगला सवाल उछाला, "क्या प्लेन से कहीं जा रहे हैं? मेरे हाँ के जवाब में अगला सवाल हाज़िर था कि कहाँ? मेरे अमेरिका कहते ही वह परचूनिया बोला, "अरे भाई मेरे जीजा भी कैलीफोर्निया में रहते हैं। आप उनका नंबर ज़रूर ले जाओ। शायद काम आ जाएँ," और वह जनाब बाकी ग्राहकों को टापता छोड़ डायरी लेने चल दिए। मैं सोच रहा था कि मेरा खानदान अब तक अमेरिकियों से अछूता कैसे रह गया। यहाँ तो परचूनिए तक के संबंधी अमेरिका में बैठे हैं। चाहे वह इन हिंदुस्तानियों को पूछें न पूछें, यह लोग हरेक को उनका नंबर दरियादिली से बाँटते रहते हैं।

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