पहली हवाई यात्रा
फन्ने
खाँ मत बनो
शुभचिंतकों की राय थी कि अमेरिका जाने से पहले कार
चलाना सीख लेना फ़ायदे में रहेगा। हालाँकि वहाँ कार
चलाने का ढंग बिल्कुल अलग है पर कम से कम स्टीयरिंग
पकड़ने का शऊर तो होना ही चाहिए। अपने परिवार में किसी
ने पिछली सात पुश्तों में भी कार नहीं खरीदी है, अतः
एक कारड्राइविंग स्कूल में जाकर ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग
सेंटर के अनुभव से कह सकता हूँ कि ज़्यादातर रईस अपने
किसी रिश्तेदार या ड्राइवर से कार चलाना सीखते हैं,
इसका मज़ेदार नतीजा बाद में मैंने अमेरिका में देखा। इस
ट्रेनिंग स्कूल में आने वाले ज़्यादातर लड़के ड्राइवर की
नौकरी करने के लिए सीखने आते हैं। ट्रेनर कोई खान साहब
थे। बेचारे लड़के खान साहब से इतनी चपत खाते थे कि
पूछिए मत। खान साहब हर ग़लती पर उनके सर के पीछे ज़ोरदार
चपत रसीद करते थे इस जुमले के साथ "ससरऊ, कायदे से
सीखो वर्ना मालिक दो दिन में निकाल बाहर करेगा।" पर
खान साहब ने मुझे कानपुर में ही एक्ज़िट रैंप, हाइवे
मर्जिंग वगैरह के बारे में बता दिया था। यह बात दीगर
है कि उन्होंने खुद कभी हिंदुस्तान से बाहर कदम नहीं
रखा। एक दिन मज़ेदार वाक्या हुआ। मेरी ट्रेनिंग का
आख़िरी दिन था। खान साहब ने मुझसे खाली सड़क पर कार तेज
स्पीड में चलवा कर देखी और तारीफ़ की कि तेज़ स्पीड में
भी कार लहराई नहीं। लौटते समय एक लड़का चला रहा था।
बेचारे ने खाली सड़क देख कर जोश में कार कुछ तेज़ भगा दी
और तभी उसके सर के पीछे ज़ोर की टीप पड़ी। खान साहब
गुर्रा रहे थे, "ज़्यादा फन्ने खाँ बनने की कोशिश न
करो, तुम भी क्या इनके साथ अमेरिका जा रहे हो जो हवा
में कार उड़ा रहे हो?"
तुम्हारा एअरकंडीशनर उखड़वा दूँ
क्या?
विदेश जाने से पहले इन्कमटैक्स क्लीयरेंस लेना था।
मेरी पहली कंपनी इन्कमटैक्स के क़ाबिल नहीं थी पर
एअरपोर्ट पर इमीग्रेशन काउंटर के यमदूतों को इन सबसे
कोई सरोकार नहीं होता। इन्कमटैक्स ऑफ़िस से कोई काग़ज़
निकलवाना हो तो कोई न कोई जुगाड़ ज़रूर होना चाहिए। मैं
एक इन्कमटैक्स कमिश्नर का सिफ़ारिशी पत्र लेकर पहुँच
गया। कानपुर की भाषा में इसे जैक लगाना (जैक, जो पंचर
कार को ज़मीन से ऊपर उठाने के काम आता है) कहते हैं।
कमिश्नर साहब की चिठ्ठी लेकर मैं उस अधिकारी (शायद
संपत्ति अधिकारी) के पास पहुँचा जिसके पास पूरी इमारत
की देखभाल का जिम्मा था। उन जनाब ने कमिश्नर साहब की
चिठ्ठी एक चपरासी को सुपुर्द की और मुझे उसके साथ भेज
दिया हर संबद्ध अधिकारी् लिपिक से साईन करवाने। एक
क्लीयरेंस के लिए इतने सारे अधिकारियों की चिड़िया
फार्म पर बैठाने की लालफीताशाही। हर अधिकारी की डेस्क
से मेरा निरंकुश फार्म निकल गया पर आख़िर में एक धुरंधर
लिपिक टकरा ही गया। चपरासी को दरकिनार कर उसने मुझसे
कोई ऐसा फार्म माँग लिया जो मेरे पास नहीं था। घूस
खाने के लिए ही इस तरह की ग़ैरज़रूरी शासकीय बाध्यताएँ
खड़ी की जाती हैं हमारे समाजवादी दुर्गों में। चपरासी
ने उस लिपिक को इशारा किया कि फार्म के साथ कमिश्नर
साहब का सिफ़ारिशी जैक लगा है पर वह लिपिक फच्चर लगाने
पर तुला रहा। मजबूर होकर चपरासी ने उस लिपिक से कहा,
"साहब आप बड़े साहब (संपत्ति अधिकारी) मिल कर उन्हीं को
समझाओ।" लिपिक तैश में आगे–आगे और हम दोनों पीछे से
संपत्ति अधिकारी के कमरे में दाखिल हुए। संपत्ति
अधिकारी ने प्रश्नवाचक नज़रों से लिपिक की ओर देखा। आगे
के संवाद इस प्रसंग का मनोरंजक पटाक्षेप हैं।
संपत्ति अधिकारी : "क्या हुआ?"
लिपिक : "साहब इनके (मेरी तरफ़ इशारा करके) फॉर्म में
फलाना दस्तावेज़ नहीं लगा है।"
संपत्ति अधिकारी : "तो?"
लिपिक : "साहब वह दस्तावेज़ ज़रूरी है।"
संपत्ति अधिकारी : "कमिश्नर साहब की सिफ़ारिशी चिठ्ठी
की भी कुछ इज़्ज़त है कि नहीं?"
लिपिक : "साहब, उनकी चिठ्ठी सिर–माथे पर बरसात में खड़े
होकर भी कोई बिना भीगे कैसे जा सकता है?"
(इन्कमटैक्स ऑफिस से कोई बिना सुविधाशुल्क दिए कैसे जा
सकता है?)
संपत्ति अधिकारी : "तुम्हारे कमरे से एअरकंडीशनर उखड़वा
दूँ क्या?"
लिपिक ने इस ब्रह्मास्त्र के चलने पर बिना एक शब्द
बोले हस्ताक्षर कर दिए। ठंडी हवा का सुख खोने का डर
लालफीताशाही अकड़ पर भारी पड़ा।
कनपुरिया चला एनआरआई बनने
लुफ्थांसा की फ्लाइट से अटलांटा जाना था। दिल्ली तक
परिवार छोड़ने आया था। पहली बार विदेश जाने का अनुभव भी
आम की तरह खट्टा मीठा होता है। परिवार से विछोह सालता
है। नए देश के अनजाने बिंब मन में घुमड़ते हैं कि जो
कुछ अब तक सिर्फ़ तस्वीरों में देखा है वह साकार होने
जा रहा है। एक अजीब सी अनिश्चितता परेशान करती है कि
पहले खुद को बाद में परिवार को एकदम अनजानी धरती पर
स्थापित करना है। यह सब रोमांचक भी है और कठिन भी। वह
सब याद करने पर एक फ़िल्म का डायलॉग याद आता है, 'अ लीग
ऑफ देअर ओन' में महिला बेसबालकोच बने टाम हैक्स अपनी
मुश्किलों पर आँसू बहाती एक लड़की पर चिल्लाते हैं कि
"अगर यह खेल मुश्किल न होता तो हर कोई इसका खिलाड़ी
होता। फिर मुश्किलों पर आँसू क्यों बहाना?" सच भी है
जब दूसरे छोर पर सुनहरे भविष्य की किरणें दिखती हैं तो
न जाने कहाँ से हर मुश्किल हल करने की जीवटता आ जाती
है। खालिस कनपुरिया को अच्छा खासा एनआरआई बनते देर
नहीं लगती।
प्लेन को क्या बाराबंकी की बस
समझ रखा है?
दिल्ली के इंदिरा गाँधी एअरपोर्ट पर औपचारिकताएँ
निपटाते हुए एक मज़ेदार वाक्या याद आ गया। लखनऊ में साथ
में एक अनिल भाई साथ में काम करते थे। अनिल को हमारे
सब साथी प्यार से गंजा कहते थे क्योंकि वह बहुत छोटे
बाल रखता था। ख़ैर हमारा प्यारा गंजा विश्व बैंक के
गोमती प्रोजेक्ट पर हमारी कंपनी की तरफ़ से कुछ काम में
लगा था। प्रोजेक्ट मैनेजर को दिल्ली में प्रोजेक्ट
रिपोर्ट दिखानी थी। प्रोजेक्ट रिपोर्ट तो गंजू भाई ने
बड़ी धाँसू बना दी। पर प्रोजेक्ट मैनेजर में प्रोजेक्ट
कमेटी के सवालों की बौछार और कंप्यूटर पर प्रोजेक्ट
रिपोर्ट को एक साथ चलाने का माद्दा नहीं था, चुनांचे
उसने गंजे को दिल्ली साथ चलने का हुक्म तामील कर दिया।
गंजा बाराबंकी का रहने वाला था और मेरी तरह उसने भी
एरोप्लेन को या तो तस्वीरों में देखा था या टीवी पर।
ख़ैर जनाब अपने प्रोजेक्ट मैनेजर के साथ दिल्ली की
फ्लाइट पर सवार हो गए। गंजू भाई बाकी यूपीवालों की तरह
पानमसाले के शौकिन थें और हवाई यात्रा में भी मसाला
मुँह में दबाए हुए थे। उन्होंने सोचा कि मौका पाकर
हवाई जहाज के शौचालय में पीक थूक देंगे। पर कुछ देर
में नींद लग गई।
आधे घंटे बाद नींद खुली तो आदतन पीक नीचे थूकने के लिए
खिड़की खोलने की नाकामयाब कोशिश की। खिड़की नहीं खुली तो
ताव में पीक पिच्च से पाँव के नीचे ही थूक दी। दरअसल
गहरी नींद से जागने के बाद गंजू भाई भूल गए थे कि वह
दिल्ली तशरीफ़ ले जाए जा रहे हैं। उनको गफ़लत थी कि वह
बाराबंकी जाने की बस पर सवार है। बगल वाले यात्रियों
के चिल्लपों मचाने पर गंजू भाई उनसे बाराबंकी वाले
अंदाज़ में भिड़ गए। इस धमाल के बीच परिचारिका
(एअरहोस्टेस) आ गई और पीक देख कर गंजू भाई की ओर उसने
भृकुटी तानकर पूछा कि यह क्या है? गंजू भाई अभी भी
किंकर्तव्यविमूढ़ थे कि यह बस में लेडी कंडक्टर कहाँ से
आ गई? उन्होंने बड़े भोलेपन से पूछा क्या बाराबंकी आ
गया? एअरहोस्टेस ने कर्कश स्वर में जवाबी सवाल किया,
"प्लेन को क्या बाराबंकी की बस समझ रखा है?" अब मामला
गंजू भाई की समझ में आ गया था, आगे क्या हुआ यह बताना
गंजू भाई की तौहीन होगी।
यह लेमन वाटर क्या होता है?
मैंने लुफ्थांसा की फ्लाइट में दो नादानियाँ की थीं।
पहले तो जब एअरहोस्टेस ने मुस्कुराते हुए इअरफ़ोन दिया
तो मैंने भी मुस्कुराते हुए यह सोचकर वापस कर दिया कि
भला विदेशी संगीत सुनकर क्या करूँगा। यह देर से पता
चला कि प्लेन पर फ़िल्में देखने का भी इंतज़ाम होता है।
फिल्म पंद्रह मिनट की निकल गई तब जाकर पता चला कि
एअरहोस्टेस को बुलाने के लिए अपने हाथ के पास लगा बटन
दबाना पर्याप्त है। दूसरी नादानी खाने के बाद काफी
लेकर की। अपने उत्तर भारत में काफी दूध वगैरे डालकर
मीठी पीते हैं। अंगे्रजों की काफी एकदम काली और ज़हर के
मानिंद कड़वी लगी। कुछ–कुछ ऐसी ही काफी दक्षिण भारत में
भी प्रचलित है। ख़ैर एअरहोस्टेस से लेमन वाटर माँगा।
एअरहोस्टेस ने हैरत जताई कि उसने कभी लेमन वाटर के
बारे में नहीं सुना। बाद में वह सादे पानी में कटा
नीबू डालकर ले आई।
अब इस तरह का लेमन वाटर तो अपने यहाँ होटल में खाने के
बाद चिकने हाथ साफ़ करने में उपयोग होता है जिसे
कभी–कभी कोई देहाती नादानी में पी भी जाता है, यहाँ
मैं देहाती बन गया था। पता ही नहीं था कि विदेशों में
लेमन वाटर लेमोनेड के नाम से जाना जाता है। हो सकता है
कि एअरहोस्टेस को नहीं पता होगा अतः सदाशयता में वह
सादे पानी में कटा नींबू डालकर ले आई। पर शायद एअरलाइन
के कर्मचारियों को यह ट्रेनिंग तो दी जाती है कि
दुनिया के अलग–अलग हिस्सों में कुछ खाद्य पदार्थ अलग
नाम से भी प्रचलित है। ऐसे मामलों में यह गोरे लोग
विशुद्ध घोंघाबसंत बनकर क्या रेशियल प्रोफाइलिंग नहीं
करते? सोचिए अगर एअरइंडिया की एअरहोस्टेस किसी अमेरिकी
के एगप्लांट माँगने पर अंडों पर मूली के पत्ते सजाकर
पेश कर दें तो क्या होगा?
९ फ़रवरी
२००५ |