गड्डी जांदी है छलाँगा मारती
(चौथा भाग)
दो हफ़्ते बाद मेरे
अभिन्न मित्र नीरज गर्ग एवं सोलंकी जी भारत से मेरी ही
कंपनी में आ गए। नवीन भाई ने सप्ताहांत पर ड्राइविंग
पर हाथ साफ़ करने के लिए रेंटल कार ले ली। हाँलाँकि
नवीन भाई को ड्राइविंग लाइसेंस हममें से सबसे पहले मिला
पर धीरे से लगने वाले ज़ोर के एक झटके के बाद। हम सब
ड्राइविंग टेस्ट देने टेस्ट सेंटर गए। यहाँ आपके साथ
एक पुलिस अफ़सर कार में बैठ कर कुछ मानकों के आधार पर
ड्राइविंग टेस्ट लेता है। इसमें दो करतब ख़ासतौर से
उल्लेखनीय हैं। रोमांचक पैरेलेल पार्किंग और वीविंग
यानी कि आठ दस प्लास्टिक के खंभों के बीच से शाहरुख़
ख़ान की तरह कार निकालना।
नवीन भाई को अगले हफ्ते प्रोजेक्ट पर न्यू जर्सी जाना
था। अतः उनके ख़यालों में न्यू जर्सी छाया हुआ था। नवीन
भैया ने देसी बुद्धि दौड़ाई और बाकी लोगों को एक कोने
में खड़े होकर, टेस्ट देते देखकर टेस्ट के सारे हिस्से
कंठस्थ कर डाले। उनकी बारी आने पर पुलिस अफ़सर कार में
नवीन भाई के साथ बैठा और उनका टेस्ट लेने लगा। सबकुछ
ठीक चल रहा था। नवीन भाई के हिसाब से अगला स्टेप तेज़
चला कर ब्रेक लगाने का प्रदर्शन था, पर पुलिस अफ़सर ने
खालिस अमेरिकी आवाज़ में कार को पहले वीविंग कराने के
लिए कह दिया। नवीन भाई अपनी धुन में सीधे जाने लगे तो
पुलिस अफ़सर ने टोक कर पूछा- "सर
वेहर आर यू गोइंग?" नवीन भाई इस अप्रत्याशित प्रश्न से
मानो चिरनिद्रा से जागे पर वे अभी पूर्ण सुप्तावस्था
से अर्धचेतना में ही आ पाए थे। उन्हें यह कौतूहल था कि
इस पुलिस अफ़सर को मेरे अगले हफ्ते प्रोजेक्ट पर जाने
के बारे में कैसे पता चल गया। कहीं यह प्रिमस
सॉफ्टवेअर वालों को तो नहीं जानता, जहाँ वह काम करते
हैं। एक बारग़ी उन्हें लगा कि प्रिमस सॉफ्टवेअर वालों
ने इस पुलिस वाले को सेट तो नहीं कर रखा, हाँलाँकि ऐसा
होता तो नहीं अमरीका में। वह बोल पड़े, "आइ एम गोइंग टु
न्यू जर्सी।" पुलिस अफ़सर जो उन्हें चेताने की कोशिश कर
रहा था उसे ऐसे बेहूदा जवाब की उम्मीद नहीं थी। उसने
उन्हें टेस्ट स्थल से बाहर जाने का आदेश थमा दिया और
नवीन भाई मानो आसमान से गिरे।
बाहर निकलते ही पहले तो आधे घंटे तक रेंटल कार पर
मुक्के ठोकते रहे फिर बोले, "गुरु, क्या ये लोग सौ
पचास की पत्ती मेज के नीचे से लेकर लाइसेंस नहीं दे
सकते?" हालाँकि एक ही सप्ताह में वे दुबारा ड्राइविंग
टेस्ट देकर लाइसेंस झटक लाए। उस सप्ताहांत पर वे हम
सबको एक रेंटलकार से सैर पर भी ले गए। सैर के दौरान एक
सीधी–सादी दिखती सड़क ने नवीन भाई को धोखे से फ्री वे
में पहुँचा दिया। अगर सोलंकी जी न सँभालते तो नौसिखिया
नवीन भाई फ्री वे देख कर इतना आतंकित हो गए थे कि कार
में हम सबको छोड़ कर पैदल भागने वाले थे। फ्री वे वह
बला है जिससे हर नया ड्राइवर घबराता है। दो से छे लेन
का हाइवे जिसमें हर कोई साठ से अस्सी मील प्रतिघंटा की
स्पीड से कार भगाता है। फ्री वे के उस्ताद को प्रवेश,
हाईस्पीड मर्ज, लेन चेंज करना, एग्ज़िट लेना आदि सभी
कलाओं में पारंगत होना आवश्यक है। एक भी कला में कम
निपुणता आपकी कार की बलि ले सकती है। अब इन कलाओं में
निपुणता के लिए हर नया अर्जुन, एक अदद द्रोणाचार्य की
तलाश करता है। मैं अर्जुन भी बना और समय के साथ
द्रोणाचार्य भी।
आओ बताऊँ तुम्हें मैं अंडे का
फंडा
अगर हमने महेश भाई को झेला तो मेरे मित्र (नवीन, नीरज
जी व सोलंकी) सुरेश भाई से त्रस्त रहे। सप्ताहांत पर
नवीन भाई मुझे गेस्ट हाउस बुला लाए। भोजन के दौरान
सोलंकी जी ने 'अथ श्री सुरेशानंद व्यथा कथा' छेड़ दी।
पता नहीं क्यों कंपनी वालों ने मेरे मित्र के साथ एक
मियाँ बीवी को भी गेस्ट हाउस में टिका दिया था। वैसे
सुरेश की बीबी मेरे मित्रों का भी भोजन सस्नेह बना
देती थी। वह जितनी भली स्त्री थी सुरेश भइया उतने ही
अझेल प्राणी थे। पहले तीन दिन तक तो सारे मित्र उनके
श्रीमुख से सिंगापुर एअरपोर्ट के मुकाबले अटलांटा
एअरपोर्ट के घटिया होने का प्रलाप सुन–सुन कर त्रस्त
हुए। वजह सिर्फ़ एक थी कि माननीय सुरेश जी को अटलांटा
एअरपोर्ट में सामान रखने की ट्राली का एक डालर किराया
देना खल रहा था जो सिंगापुर एअरपोर्ट में नहीं देना
पड़ता था। उसके बाद सुरेश भाई का सिंगापुर स्तुतिगान,
जहाँ से सुरेश भाई अवतरित हुए थे और अमेरिका का नित्य
निंदापुराण मेरे तीनों मित्रों की नियति बन गया। सुरेश
भाई द्वारा कंपनी आफ़िस में इकलौते इंटरनेट टर्मिनल पर
सारे दिन का कब्ज़ा जमाए रखना एवं गेस्ट हाउस में नाहक
धौंसबाजी मेरे मित्रों के सब्र के पैमाने से परे जा
चुकी थी।
तीनों मित्र गेस्ट हाउस
में ऑमलेट नहीं खा सकते थे क्यों कि सुरेश भाई को अंडे
की बदबू पसंद नहीं थी। रात में आठ के बाद टीवी चलाने
से सुरेश भाई की नींद में खलल पड़ता था। बेचारे मित्र
प्रतिदिन डिब्बाबंद खाने की जगह मिलने वाले ताजे खाने
की वजह से सुरेश भाई को "पैकेज डील" की तरह बर्दाश्त
कर रहे थे। बातचीत में पता चला कि वस्तुतः यह सुरेश,
महेश के सगे भाई भी थे, जिन्हें मैंने झेला था। जब
मैंने उनको बर्तन रखने की अलमारी का किस्सा सुनाया तब
सबको दोनों भाइयों के व्यवहारिक धरातल का सहज अनुमान
हो गया उस समय दोनों भाई कहीं गए हुए थे। महेश सवेरे
नीरज जी को जाने क्या अनुचित बोल गया कि अगर सुरेश की
बीवी का लिहाज न होता तो नीरज जी व सोलंकी महेश भाई की
धुलाई कर डालते।
मुझे शाम को आमलेट बनाने की सूझी। सोलंकी जी ने टोका
भी कि सुरेश सपरिवार आ रहा होगा। मैंने कहा-
"ठीक, मैं भी महात्मा के दर्शन कर लूँगा। पर आमलेट
ज़रूर बनाऊँगा।"
मित्रगण मेरे स्वभाव से कालेज के ज़माने से परिचित थे
अतः थोड़ी देर में होने वाले प्रहसन के इंतज़ार में टीवी
लगाकर बैठ गए। आमलेट बनने के धुएँ के बीच सुरेश जी
अवतरित हुए व सीधे सपत्नीक कमरे में चले गए। कुछ ही
देर में बाहर आकर कुकुरनासिका का प्रदर्शन करते हुए
जिज्ञासा प्रकट की कि किसी ने आमलेट बनाया था क्या।
मैं बोला-
"हाँ मैं बना रहा हूँ।"
सुरेश जी कुछ भृकुटी तान कर बोले पर इस बर्तन में तो
शाकाहारी खाना बनता है। मैंने पूरी कानपुरिया दबंगता
से जवाब दिया-
"अरे आपको महेश ने नहीं बताया कि चीनी डांग तो इसी
बर्तन में बीफ (गाय का माँस) बनाता था, जिसे महेश बाद
में धोकर टमाटर चावल की लुगदी पकाने के लिए प्रयोग
करता था... सुरेश जी इससे पहले कुछ और सोचें मैं चालू
रहा, "और अभी आप सब रेस्टोरेन्ट में खाकर आ रहे हैं
वहाँ कौन सा शाकाहारी भोजन बनाने से पहले बर्तनों का
धार्मिक शुद्धिकरण होता है।" सुरेश जी अवाक रह गए।
महेश उन्हें और ज़लील होने से बचाने के लिए कमरे में
खींच कर ले गया। मित्र मंडली की हँसी बमुश्किल ही रुक
पाई। दोनों भाइयों में शायद पहले डांग को लेकर जमकर
नोक झोंक हुई कि न जाने फिर क्या सूझी कि दोनो भाई
सुरेश की पत्नी को उसके सामान सहित कहीं छोड़ने चले गए।
नवीन भाई इस प्रकरण में सुरेश की पत्नी के जाने से कुछ
दुखी थे। उनको फिर से डिब्बा बंद खाने पर जीना अप्रिय
लग रहा था। पर बाकी सब इसलिए प्रसन्न थे कि अब सुरेश
तो निहत्था गेस्ट हाउस लौटने वाला था। अब तो हमाम में
सभी नंगे हैं जो जिस पर जैसे चाहे रौब जमाए।
हुआ भी वही। एक सप्ताह में सुरेश भाई मेरे मित्रों के
बदले हुए वाचाल वानरी रूप के आगे नतमस्तक हो गए।
उन्हें अहसास हो गया कि गेस्ट हाउस में जब तक उनकी
पत्नी थी वहाँ शराफ़त थी। उसकी बीवी के लिहाज से सब
उन्हें चाहे अनचाहे सम्मान देने को और उनके नाज़ सहने
को विवश थे, पर बेचारा अपनी पत्नी को गेस्टहाउस से
भेजकर वानर सेना के हत्थे चढ़ गया और वह भी बिना ढाल
के। सबने उसे बेतरह परेशान किया। रात–रात भर टीवी चला
कर, जम कर निरामिष भोजन बना कर। यहाँ तक कि जब सबका एक
साथ प्रोजेक्ट लगा तो सबने सुरेश को एक हफ्ते पुराने
हिसाब के १५ डॉलर जानबूझ कर एक एक सेंट के सिक्कों की
शक्ल में थमा दिए। लेकिन कृपणचंद तीन किलो भारी चिल्लर
का थैला लादे लादे एअरपोर्ट चला गया।
मेरी पहली टोयटा करोला
प्रोजेक्ट मिलने के बाद ड्राइविंग लाइसेंस झटकना एक
सूत्रीय कार्यक्रम बन गया था। पहले लिखित परीक्षा देकर
लर्नर परमिट मिला कुछ ड्राइविंग लायसेंस भी लिए।
सत्यनारायण जी के दर्दनाक अनुभवों से विश्वास हो चुका
था कि ड्राइविंग लाइसेंस पाना टेढ़ी खीर है। बेचारे चार
बार बैरंग वापस लौट चुके थे। हर बार कुछ न कुछ ग़लती कर
बैठते थे। मेरा और उनका ड्राइविंग गुरुएक ही गोरा था।
पाँचवीं बार हद हो गई सत्यनारायण जी ड्राइविंग टेस्ट
के सारे स्टेप ठीक कर चुके थे। पैरेलल पार्क करते हुए
ब्रेक की जगह हड़बड़ी में एक्सेलेटर दबा दिया और सेंटर
में लगा एक खंभा ही ज़मींदोज़ कर डाला। मुझे अगले दिन
मेरी ड्राइविंग प्रैक्टिस के दौरान उस गोरे ने बताया
कि सत्यनारायण जी हताशा में अपना माथा ठोक रहे थे।
उन्हें फेल करने वाला महाखड़ूस ड्राइविंग परीक्षक भी
उनपर तरस खाकर दिलासा दे रहा था। फिर भी जब सत्य
नारायण जी का मस्तक ठोकना बंद नहीं हुआ तो उस गोरे ने
झल्लाकर अपनी कार के ट्रंक के टूलबॉक्स से एक हथौड़ा
निकालकर थमा दिया सर को ठोकने को।
सत्यनारायण जी भारत वापस जाने को आमादा हो गए। रात भर
उनका प्रलाप चलता रहा कि वहाँ कभी लाइसेंस नहीं मिलने
वाला। हिंदुस्तान होता तो अबतक ट्रैफ़िक एग्ज़ामिनर की
हज़ार पाँच सौ से हथेली गरम कर के मिल गया होता। अब कब
तक पैदल चलूँ? कहीं किसी दिन किसी कार या ट्रक के नीचे
आ जाऊँगा। उन्होंने हिंदुस्तान पलायन की ठान ली थी।
मैंने अगले दिन अपने कंपनी डायरेक्टरों को उनके घायल
जज़्बातों के बारे में बताया। वे बिचारे दोनों अपने
सारे काम छोड़कर भागे। सत्यनारायण जी की दोनो ने
करीब–करीब सायकोलाजिकल काउंसलिंग कर डाली।
अगले दिन मेरा ड्राइविंग टेस्ट था। टेस्ट एक गोरी
एग्ज़ामिनर ले रही थी जब उसने मुझसे वीविंग करने के लिए
बोला तो मैंने उससे पूछा, "विच स्टाइल, लेफ्ट बिफोर,
सेंटर लेफ्ट, सेंटर राइट और राइट आफ्टर?" वीविंग के
इतने सारे प्रकार सुनकर एग्ज़ामिनर समझ गई कि पाला गोरे
ट्रेनर के चालू शागिर्द से पड़ा है। मैं ड्राइविंग
लाइसेंस पाने में कामयाब हो गया। इतना सुखद अहसास कि
मानो लंका जीत ली। एक महीने बाद ऑफ़िस में एक सहकर्मी
से एक अदद पुरानी टोयोटा करोला आननफ़ानन में खरीद डाली।
मैं शाम को सोच रहा था अगर यह कार कानपुर में खरीदी
होती तो पहले जानकारी के लिए न जाने किस–किस की चिरौरी
की जाती। कार सपरिवार मंदिर को जाती। मिष्ठान्न वितरण
होता। यहाँ तो बस पैसे दिए और कार दरवाजे पर। कोई बधाई
देने वाला नहीं।
९
अप्रैल
२००५ |