समकालीन कहानियों में संयुक्त अरब
इमारात से
स्वाती भालोटिया की कहानी-
क्या लौटेगा वसंत
नदी
किनारे, घास पर पग सहलाता, बौद्ध मंदिर को स्वयं में समाए
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर डोलता-सा रायन, अपने स्वच्छंद चेहरे पर
धूप का ताप लिए, मेरी ओर ही चला आ रहा था। अपने गेरुए चोंगे में,
सर मुँडाए, रायन मुझे सदा से किसी ऐतिहासिक बौद्ध भिक्षु की भाँति
ही लगता है जो किसी ईश्वरीय माया से, धुंध उड़ाती दार्जिलिंग की
पर्वत-शृंखलाओं के बीच, अनायास ही प्रकट हो गया हो। जब भी मैं
ग्रीष्मावकाश में अपने वार्षिक भ्रमण के लिए दार्जिलिंग आती, रायन
मुझसे यों ही रोज़ मिलने आता, पास बैठा-बैठा बातें करता, निहारता
और लजायी-सी हताशा फैला जाता। इस बार भी पिता द्वारा सहेजकर बनवाई
गई, बरसों पुरानी ईटों से बने श्वेत घर का पल्लवित आकर्षण कलकत्ता
शहर के कोलाहल से दूर मुझे इस हरित भूमि में खींच ही लाया। प्रवेश
द्वार पर पत्थर की सीढ़ियों के किनारे, गेरू पुते गमलों पर खिले,
केसरी फूल, जीवन के किसी भी पड़ाव पर, मन को सुवासित करने में आज
भी चूके नहीं हैं।
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पूर्णिमा वर्मन का आलेख
मनबहलाव वसंत के
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रंधावा के साथ
ऋतुओं की झाँकी (वसंत)
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