उतरते अक्टूबर की गुलाबी
शामें। मुम्बई
का मौसम सहता-सहता सा खुशगवार। दरवाजा खुला था। जूते बाहर ही
उतारने पड़े। वे सोफे पर बैठी थीं और दरवाजे के पास ही बने ऊँचे
से मन्दिर में दीया जल रहा था। अगरबत्ती के धुएँ की सुगन्ध
चारों ओर फैली थी।
’’आओ बेटी....हमने पहचाना नहीं,‘‘ उन्होंने बूढ़ी आँखो पर
चश्मा फिट किया।
’’मैं उमा की सहेली हूँ। स्कूल से कॉलेज तक हम दोनो साथ-साथ
पढ़े हैं। मैं तो आपको देखते ही पहचान गई। उमा के रिसेप्शन पर
मिली थी न आपसे।‘‘
’’अब उतना कहाँ याद रहता है। हो भी तो गए पाँच साल।‘‘
तब तक उमा के ससुर बाहर निकल आए। मुझे देख इशारा किया बैठने
का। मेरे बैठते ही सामने के सोफे पर से गद्दियों के पीले सफेद
रंग से मेल खाती दो बिल्लियाँ कूदीं। मैं चौंक पड़ी, वे मुस्करा
दीं-’’बड़ी शैतान हैं दोनों।‘‘
फिर दोनों को गोद में बैठाकर प्यार करने लगीं। कमरे में काँच
के पार्टीशन के पार दूब का लचीला लॉन था छोटा-सा और एक
हरसिंगार का छतनार पेड़ कोने में। दूब पर हरसिंगार के फूल
बिखरे थे। उन्होंने काँच का दरवाजा जरा-सा खोला और बिल्लियों
को बाहर निकाल दिया। बिल्लियाँ दूब पर मटरगश्ती करने लगीं। उमा
आ गई थी।
"घर ढूँढ़ने में परेशानी तो नहीं हुई ?‘‘ कहते हुए उसने मुझे
गले से लगा लिया।
"माँ जी से परिचय हुआ ? माँ जी, बाबूजी ये मेरी बचपन की
सहेली है शेफाली....अब ये भी मुम्बई आ गई है। इसके पति कॉलेज
में हिंदी के प्रोफेसर हैं। वहीं ये भी पढ़ाती है।....कहाँ घर
लिया है शेफाली ?‘‘ उमा एक साँस में कहती चली गई।
उसकी वाचालता से मैं दंग थी लेकिन अच्छा भी लग रहा था। दिल में
संशय का जो पहाड़ था कि कैसे उमा से सामना करूँगी जबकि उसके पति
रजनीकान्त को कारगिल युद्ध में शहीद हुए अभी कुछ ही साल गुजरे
हैं....कैसे झेल रही होगी वह मात्र आठ महीने के वैवाहिक जीवन
के बाद का वैधव्य....वह पहाड़ बर्फीला साबित हो अब पिघल रहा
था। उमा खुश दिख रही थी। शायद उसने वक्त से समझौता कर लिया हो।
"मैं अभी फ्रेश होकर आती हूँ पाँच मिनट में।‘‘ उमा के जाते ही
बाबूजी भी अन्दर चले चले गए। लौटे तो उनके हाथ में ट्रे
थी।....चाय, बिस्किट, नमकीन से भरी। मैंने उठकर ट्रे थाम
ली-’’अरे बाबूजी आपने क्यों तकलीफ की ?‘‘
’’तकलीफ कैसी ? उमा थकी आई है....तुम भी कालीना से आई हो यहाँ
मीरा रोड तक। लम्बा, थकान भरा रास्ता। उमा भी तो बान्द्रा
अपडाउन करती है....उधर कम्प्यूटर इंस्टीट्यूट में नौकरी के
लिये
जाती है न,‘‘ कहते हुए ट्रे में से एक प्याला उन्हें पकड़ा
दिया। वे प्याला दोनों हाथों से पकड़ने लगीं।
"माँ जी को कुछ तकलीफ....‘‘
’’अब जिन्दगी ही तकलीफ जैसी बन गई है। बेटे के गम ने इनकी
हाथ-पाँवों की शक्ति निचोड़ ली है। चल नहीं पाती ज्यादा। मैं
सुबह जबरदस्ती इन्हें भक्ति वेदान्त तक ले जाता हूँ। उतने में
ही लस्त-पस्त हो जाती है।‘‘
वे बीमारी में भी मुस्कुराती लगीं। मुझे उस वक्त मुस्कुराना
उनके दुख का सबसे बड़ा सबूत लगा। दुख उन्हें घुन की तरह भीतर ही
भीतर खा रहा था।
"अरे रुको....बिस्किट, नमकीन मत खाओ। मैं गरमागरम समोसे,
फाफड़े और जलेबियाँ लाई हूँ। शेफाली को बहुत पसंद हैं। याद है
शेफाली, फाफड़े खाने के लिये हम चौक तक स्पेशल जाते थे....क्या
बढ़िया बनाता था वो....वैसे यहाँ नहीं मिलते।‘‘
मैंने गौर किया उमा ने साड़ी बदलकर मैक्सी पहन ली थी। ऐसा लग
रहा था वह इस घर की बहू नहीं बेटी है। समझ नहीं आ रहा था
स्थितियाँ कबूल किसने की हैं ? रजनीकान्त के माँ बाबूजी ने या
उमा ने ?
उमा ने बताया था कि रजनीकान्त उनकी बुढ़ापे की औलाद था। शादी के
कई सालों बाद बहुत मन्नतें, व्रत, उपवास, गंडा-ताबीज,
तीर्थस्थानों की यात्राओं के बाद पैदा हुआ था। माँ का नाम रजनी
और बाबूजी का नाम कान्ताप्रसाद....दोनों के नामों को मिलाकर
खुशी से उफनी पड़ती बुआ ने नाम दिया रजनीकान्त। लेकिन रजनीकान्त
के सिर पर मिलिट्री में जाने की धुन सवार थी। सुनते ही बाबूजी
कुशासन बिछा सामने तांबे की लुटिया में जल भर कर आचमन करने बैठ
गए थे....माँ जी थरथर काँप उठी थीं-’हे प्रभो, बस एक बार कोख
भरी तूने और यह सिरफिरा सिर पर कफन बाँधने चला है।‘
बुआ ने समझाया-’बेकार है भाभी, कुछ भी कहना उससे। वह धुन का
पक्का है। पर तुम क्यों दिल छोटा करती हो। सभी थोड़े ही शहीद हो
जाते हैं।‘
लेकिन कहते-कहते बुआ भी सहम गई थीं, मन काँप उठा था। फिर भी वे
माँ जी के सिर पर हाथ फेरती उन्हें तसल्ली देती रही थीं।
कु...कू घड़ी ने काठ की चिड़िया से निकलकर नौ बार कूका तो मैं
चौंक पड़ी। उमा की निगाह भी घड़ी से होती हुई मेरे चेहरे तक आई।
"देर हो जाएगी न घर पहुँचने तक ? चलो मैं बाइक से स्टेशन छोड़
देती हूँ तुम्हें।‘‘
वह चेंज करने अन्दर चली गई। मैंने उठकर माँ जी के घुटनों पर
हाथ रखा-’’आंटी मैं जल्दी ही आऊँगी दोबारा।‘‘ वे जैसे इन्तजार
में थीं। मेरे हाथों को अपने हाथों में भरकर चूम लिया
उन्होंने-’’सुबह से आ जाना....उमा तो आज आ गई जल्दी, वरना दस
बज जाते हैं इसे भी रात के....इतवार को भी चली जाती है। कहती
है काम बहुत रहता है।‘‘
बाबूजी का चेहरा उदासी की परत तोड़ मुस्कुराने की चेष्टा में
बड़ा अजीब लग रहा था....मानो कहना चाह रहे हों....जिन्दगी यूँ
ही नहीं गुजर गई।‘
मैंने बाहर निकलकर जूते पहनते हुए देखा....गेट के भीतर गुलाब
की क्यारियाँ थीं....झिलमिल अंधेरे में सफेद, गुलाबी फूल हँस
रहे थे। उमा जींस, टी-शर्ट पहने बाइक गेट के बाहर निकाल रही
थी। मेरे जूतों के नीचे कुछ सूखे पत्ते चरमरा गए जिनकी आवाज
बाइक की आवाज में समा गई। बाइक की पिछली सीट पर बैठे हुए मैंने
देखा, बाबूजी गेट तक आए हैं....पीछे-पीछे माँ जी भी उनके कंधे
पर हाथ रखे। उदासी की जो परतें मेरे आने से पिघल गई थीं, वे अब
फिर जम रही होंगी, मैंने सोचा।
"ट्रेन पन्द्रह मिनट बाद है....आओ तब तक कॉफी पीते हैं,‘‘
उमा ने स्टाल से कॉफी के कप लिये....’यूज एण्ड थ्रो‘ वाले, और बेंच
पर बैठकर हम कॉफी सिप करने लगे।
’’इतनी बिजी क्यों रहती हो उमा ? जबकि वे दोनों घर पर अकेले
रहते हैं।‘‘
उमा मानो इस प्रश्न के लिये तैयार थी-’’मिल गया है....कोई मेरा
वक्त बाँटने वाला।‘‘
मैं चौंक पड़ी-’’क्याऽऽ‘‘
’’हाँ शेफाली, हम दोनों एक ही ऑफिस में सर्विस करते हैं। रजनी
की डेथ के बाद उसी ने मुझे सम्हाला। मैं तो महीनों तक बिस्तर
पर थी। डॉक्टर कहते थे कि इस अनहोनी के आघात ने सीधे मेरे दिल
पर असर किया है। साथ ही नर्वस ब्रेक डाउन....डिप्रेशन में चली
गई थी मैं। सभी ने मान लिया था कि मैं अब नहीं बचूँगी, लेकिन
जिन्दगी के प्रति मोह जगाना, होनी की सच्चाई को स्वीकार करना
उसी ने सिखाया....उसी की तीमारदारी से मैं फिर से जीने लायक
बनी।‘‘
ट्रेन आ रही थी। ट्रेन की हेडलाइट से पटरियाँ चमक उठी थीं। वह
मुझसे इतनी जोर से चिपटी कि मैं लड़खड़ा गई। ट्रेन प्लेटफॉर्म पर
आ चुकी थी। उसने मुझे ढकेलकर चढ़ाया....मैंने देखा उसकी आँखों
में आँसू छलक आए थे। हम एक-दूसरे का हाथ पकड़े थे-’’तुम्हारे
मुम्बई में आ जाने से मानों मुझे एक घर मिल गया। मेरा अकेलापन
खत्म हो गया,‘‘ वह भरे गले से बोली।
’’तुम अकेली हो कहाँ....वह जो साथ है....वह तुम्हारा।‘‘
’’कौन मयंक ?‘‘
और ट्रेन चल दी। और यह सब कुछ मैंने तीस सैकिण्डों के दौरान
सुना....वे तीस सैकिण्ड जो लोकल ट्रेनों के लिये हर स्टेशन पर
रुकने के लिये निर्धारित किए गए हैं। मुझे पहली बार महसूस हुआ
कि तीस सैकिण्ड भी बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं उस घटना को जानने
के लिये जो हम जानना चाहते हैं।
उमा ने हफ्ते भर बाद फोन किया-’’आ रही हो ?‘‘
’’क्यों? कुछ खास।‘‘
’’हाँ, मयंक से मिलवाऊँगी। फिर वह बैंगलोर चला जाएगा न दीपावली
की छट्टियों में। कल शनिवार है। सुबह से आ जाओ,‘‘ उसकी आवाज
में खुशी थी। वह भीतरी खुशी थी, मैं महसूस कर सकती हूँ। ऐसी
खुशी अक्सर परिन्दों की उड़ान में होती है या फिर ऊँचाई से
गिरते पहाड़ी झरनों में। आकाश से धरती का यह क्रम सदियों पुराना
है।
जब मैं वहाँ पहुँची, उमा नहीं थी। माँ जी उसी सोफे पर, उसी तरह
बिल्लियों को गोद में लिये बैठी थीं, बाबूजी अन्दर कुछ कर रहे
थे, खटर-पटर की आवाजें आ रही थीं। हफ्ते भर में कहीं कुछ भी तो
नहीं बदला था। काल जैसे ठिठक गया हो इस घर के लिये। जैसे
जिन्दगी आगे ही न बढ़ रही हो। मैं पास पहुँची तो वे खिल
पड़ीं-’’आओ बेटी, उमा ने बताया था आ रही हो।‘‘
’’कहाँ है वह?‘‘
’’ऊपर....अपने कमरे में,‘‘ उन्होंने हाल से ऊपर जाती सीढ़ियों
की ओर इशारा किया। मैंने देखा ऐसा करते उनकी आँखों में गहरी
पीड़ा झलक आयी थी। मैंने उनका हाथ पकड़ लिया जो काँप रहा था।
’’थोड़ी देर आपके पास बैठूँगी। दिन भर हूँ ना यहाँ।‘‘ वे तसल्ली
से भर उठीं। मन भीग गया उनका। कोशिश कर बोलीं-’’थे कभी हम भी
महफिल में बैठने लायक।‘‘ रजनी ने विराम लगा दिया सब पर, ’’बस
साँस पर ही नहीं लगा अभी तक।‘‘
मैंने उनकी आँखों में झाँका-’’ऐसा क्यों कहती हैं आप। हम सब
हैं न आपके।‘‘
’’हाँ....सो तो है। रजनी भी यही कहता था। कहता था....माई
डार्लिंग मॉम....तुम एक शेर बेटे की माँ हो, तुम्हें कभी हार
नहीं मानना है। लेकिन हम हार गए बेटा....हम हार गए,‘‘ वे
सुबकने लगीं। अन्दर से जाने कब बाबूजी बाहर निकल आए।
’’यह क्या? अपनी आँखें रो-रो कर फोड़ने से क्या रजनी वापस आ
जाएगा? समझाओ इन्हें शेफाली। लो....दूध बना लाया हूँ, पियो
गरम-गरम। फिर रात भर तड़पती हो हड्डियों के दर्द से।‘‘
मैंने उनके हाथ से मग ले लिया। सौंठ और गुड़ की खुशबू मेरे
नथुनों में समा गई।
’’लीजिए....मेरे हाथ से पी लीजिए। कितनी अच्छी खुशबू है।‘‘
‘‘तुम पियो न एक मग और बना लाएँगे ये। बहुत अच्छा बनाते हैं।
रजनी के जन्म के समय हरीरा यही बनाकर पिलाते थे मुझे,‘‘ और वे
हँसीं, बाबूजी भी हँसे। स्थिर झील में जैसे किसी ने कंकर
उछालकर लहरियाँ जगाई हों। कमरे की मनहूसियत थोड़ी देर को दुबक
गई जैसे। उन्होंने घूट भरा।
’’कितने बच्चे हैं तुम्हारे ?‘‘
मैं एकाएक हुए इस प्रश्न से चौंकी-’’एक भी नहीं।‘‘
’’क्यों ये बुरी बात है। आजकल पैदा करते ही नहीं मॉडर्न
मियाँ-बीबी....और करते भी हैं तो एक। अब अगर उसे कुछ हो जाए
तो....‘‘
कहते-कहते वे रुक गईं और बड़ी करुणा से बाबूजी की ओर देखने
लगीं। वहाँ भी सूनापन था, उन आँखों में भी। बुढ़ापे की सीढ़ियाँ
चढ़ता अंधेरे से भरा सूनापन। जब यह पता हो कि न कोई नामलेवा बचा
है, न मरने के बाद कर्मकाण्ड निपटाने वाला। फिर भी साँसो के
चुकता होने तक जीना ही है। मुझे तो लगा रजनीकान्त तो देश की
सीमा पर शहीद हो गया लेकिन ये दोनों जिन्दगी की साँस पर कैसे
कतरा-कतरा शहीद हो रहे हैं। शहीद के माता-पिता होने का आंतक
भरा गौरव झेलते।
उमा ने सीढ़ियों से झाँका-’’अरे....आओ न ऊपर।‘‘
मैंने माँ जी का दूध का खाली मग हाथ में ले उठना चाहा तो वे
मेरी बाँह पर अपनी उंगलियों को स्पर्श देती बोलीं-’’खाना साथ
में खाना। इन्होंने वेजिटेबिल बिरयानी बनाई है जो रजनी को बहुत
पसन्द थी।‘‘
मैंने हाँ में सिर हिलाया और मग चौके में ले जाकर रख दिया।
चौके की जालीदार खिड़की पर एक बिल्ली बैठी अपना पंजा चाट रही
थी। जाली में से खिले हरसिंगार बड़े मोहक लग रहे थे। मैं
सीढ़ियाँ चढ़ ऊपर पहुँची तो उमा मुझसे लिपट गई-’’आवाज सुन ली थी
मैंने। पर फिर सोचा कि तुम माँ जी के पास भी थोड़ा बैठ लो। आओ
मिलाती हूँ।‘‘
और बाँह पकड़कर कमरे में ले आयी तो देखा पलंग पर तकिए से टिका
कोई बैठा है।
’’मयंक....ये है मेरी इकलौती दोस्त शेफाली।‘‘
मैं चौंक पड़ी। नीचे माँ जी, बाबूजी और ऊपर ये दोनों....ये सब
क्यों ? कैसे ? उमा के चेहरे पर अतीत की परछाई तक
नहीं....दोनों पूरे अधिकार से रजनीकान्त और उमा के इस कमरे में
? और वे दोनों नीचे सब कुछ झेलते....!!!
रोशनदान से तेज हवा का झोंका आया और टेबल पर रखा अखबार खुलकर
नीचे गिर पड़ा। मैं सहमते हुए कुर्सी पर बैठ गई।
’’मयंक पन्द्रह दिन के लिये बैंगलोर जा रहा है। कहता है मैं भी
साथ चलूँ। पर मैं कैसे जा सकती हूँ शेफाली। यहाँ ये दोनों
अकेले रह जाएँगे।‘‘
वह मयंक से चिपककर बैठ गई और उसका हाथ अपनी गोद में लेकर सहलाने
लगी। मैंने आँख फेर लीं।
’’तुम्हारी दोस्त मौनव्रतधारी हैं ?‘‘ मयंक बेबाकी से मानो
मेरा चेहरा टटोल रहा था।
’’उमा तुम दोनों के बीच में एकदम अजनबी-सी हो गई हूँ। पहली
मुलाकात है न! मैं नीचे ही जाकर बैठती हूँ।‘‘ मैंने उठना चाहा।
’’बैठो ना! ये अभी चला जाएगा। थोड़ी देर इसके पास बैठते हैं फिर
नीचे चलते हैं। पता है शेफाली, आज बाबूजी ने खुद अपने हाथों से
तुम्हारे लिये लंच तैयार किया है। सुबह से जोश में हैं। रजनी जब
छुट्टियों में आते थे तब भी वे ही कुछ ना कुछ बनाते थे। एकदम
स्पेशल।‘‘
’’ओह माई गॉड....अंकल कुक हैं क्या ?‘‘
मयंक का लहजा मुझे पसन्द नहीं आया....छिछोरापन-सा लगा और जिस
ढंग से वह उनकी आँखों के सामने उनकी बहू के साथ इस कमरे में
बैठा है, वह भी छिछोरापन ही है। कैसे सह लेते हैं वे दोनों यह
सब ? किस मजबूरी में ?
उमा मयंक को छोड़ने गेट तक गई। जब वह हॉल से गुजर रहा था तब
बाबूजी वहाँ नहीं थे और माँ जी फूलों की माला कृष्ण जी को
पहना रही थीं। कृष्ण की बड़ी-सी मूर्ति हाथ में मुरली लिये थी।
मयंक ने उन्हें डिस्टर्ब नहीं करना चाहा या नजरें बचाकर बिना
अभिवादन किए ही चला गया, मैं समझ नहीं पाई।
बाबूजी ने मेरी थाली खुद परोसी, ’’ककड़ी का रायता है। चखकर
देखो। इसमें राई और हरी मिर्च पीसकर डाली है। राई की खुशबू से
स्वाद बढ़ जाता है।‘‘
रजनी तो कटोरी तक चट कर जाता था ऐसे रायते की,‘‘ माँ जी हँसते
हुए बोलीं, फिर देर तक हँसती रहीं।
’’तुम थोड़ी ही खाओ....दही है न....नहीं तो फिर हड्डियों का
दर्द परेशान करेगा।‘‘
मानो पूरा कमरा मुखर हो उठा था। उमा ने तो टोक तक दिया-’’आज आप
दोनों ऐसे खुश दिख रहे हैं....आई मीन अरसे बाद....‘‘
उमा की टोक दोनों को खामोश करती उसके पहले ही मैं बोल
पड़ी-’’बहू और बेटी में यही तो फर्क है....मैं इनकी बेटी जो
हूँ। और बाबूजी एक वादा करना होगा आपको....मुझको अपने मायके से
वंचित मत कर देना। रोज आप फोन करेंगे....मुझे। और हर वीक एण्ड
पर ऐसा ही लजीज खाना बनाएँगे अपनी बेटी के लिये। इस बार मैं
प्रोफेसर को भी लाऊँगी।‘‘
’’लो तुम कहती थी बेटी चाहिए....मिल गई न।‘‘
बाबूजी ने मेरी ओर देखकर कहा-’’पता है शेफाली जब रजनी होने
वाला था, तब ये कहती थीं बेटी ही होगी। लेकिन मैंने शर्त बदी
थी बेटा ही होगा। और ये हार गई थीं। पर आज तुमने इन्हें जिता
दिया।‘‘
’’तुम भी न....‘‘माँ जी ने पानी का घूँट भर वाक्य अकेला ही छोड़
दिया।
दोपहर के चार बज रहे थे। धूप का कहीं नामोनिशान न था। आसमान पर
जैसे धुनी हुई रुई के बादल तैर रहे थे। उमा ने बढ़िया कॉफी
बनाकर पिलाई, फिर बोली-’’चलो भक्ति वेदान्त तक टहलकर आते
हैं।‘‘
हम आहिस्ता-आहिस्ता हॉल से बाहर हो गए। माँ जी सोफे पर ही सो
रही थीं और बाबूजी सामने कमरे में। बाहर निकलकर मैं देख रही थी
बगीचे की कलात्मकता। गुलाब के पौधे, जूही, मोगरा, लिली....उमा
ने बताया था कि रजनीकान्त को फूलों का बहुत शौक था। यह बगीचा
उसी ने बड़े शौक से लगाया था....बगीचे और बँगले की दीवार पर
नृत्य करते जोड़े....क्यारियों के बीच सफेद छोटे-छोटे पत्थरों
की सजावट....कोने में बेंक का लैम्पनुमा खिलौना....नन्हा-सा
फव्वारा....लेकिन इस बार उमा ने रजनीकान्त का ज्रिक तक नहीं
किया। ठीक भी है जो गुजर गया उसे गुजरा ही समझ लेना चाहिए।
जिन्दगी पीछे मुड़कर देखे भी क्यों ?
सड़क के दोनों ओर अमलतास के पेड़ कतार से लगे थे। नन्हें-नन्हें
फूलों ने शाखों से झरकर फुटपाथ पर गलीचा-सा बिछा दिया था। सड़क
को दो भागों में बाँटते डिवाइडर पर भी कनेर के पेड़ थे जिनमें
पीले फूल खिले थे। प्रीत का पीला रंग। साँझ फूली-सी लग रही थी।
’’कैसा लगा मयंक तुम्हें ?‘‘
’’तुम शादी क्यों नहीं कर लेती ?‘‘ मेरा प्रश्न सपाट था।
लेकिन उसके चेहरे पर कोई भाव न थे। बस थी तो हर पल को जी लेने
की चाह।
’’यह मुमकिन नहीं....‘‘
’’मगर क्यों....जबकि तुम दोनों एक दूसरे को चाहते हो और किसी
का कोई विरोध भी नहीं है।‘‘
पल भर रुकी वह.... चप्पल के नीचे आए कंकर को उसने अगला कदम
उठाकर दूर उछाल दिया।
’’जानती हो जब रजनीकान्त का शव लाया गया था तिरंगे में तब
सैकड़ों की भीड़ उमड़ आयी थी....’कैप्टन शहीद हो गए‘ बस यही गूँज
थी चारों ओर....मीडिया, प्रिंट मीडिया से घिर चुकी थी मैं।
सैकड़ों सवाल लेकिन बेचारगी किसी के स्वर में नहीं। एक शहीदाना
गर्व....मैं शहीद की विधवा। शायद बहुत कुछ करके भी उतना
मान-सम्मान नहीं पाती मैं, जितना तब पाया।
मेरी मदद के
लिये
कितनी समाजसेवी संस्थाओं हाथ बढ़े। आज मैं जिस नौकरी पर हूँ वह
भी उन्हीं संस्थाओं के बदौलत। तुम अन्दाजा नहीं लगा सकतीं जब
मैंने दिल्ली जाकर परमवीर चक्र राष्ट्रपति के हाथों लिया था।
स्टेज पर थरथराते मेरे कदम और शहीद की विधवा होने का
गर्व....खो दूँ क्या मैं शादी करके यह शान ? आज जहाँ भी जाती
हूँ, मान-सम्मान मेरे साथ होता है। क्या मिलेगा शादी
करके....शारीरिक सुख। वो तो आज भी मिल रहा है मयंक से मुझे।‘‘
मैं अवाक्.... लड़खड़ा गए कदमों को सम्हाला मैंने। उमा की ऐसी
शख्सियत का अन्दाजा नहीं था मुझे। भक्ति वेदान्त अस्पताल से ही
लौट चलें हम दोनों। साँझ घिर आयी थी। पेड़ों की शाखों पर
चिड़ियों का शोर बढ़ता जा रहा था। सड़क पर घुमक्कड़ों की भीड़ बढ़
रही थी।
’’मेरे मन को कोई नहीं समझ पाता शेफाली। मेरे गउ जैसे
सीधे-सादे सास-ससुर जिन्होंने मुझे रजनीकान्त जैसा पति दिया,
उन्हें छोड़ पाना मेरे बस की बात नहीं। आज उन्हीं की बदौलत मैं
इतना कुछ पा सकी हूँ। और फिर मैं जैसी हूँ, उन्होंने भी मुझे
उसी रूप में स्वीकार कर लिया है....मुझे भी, मयंक को भी।‘‘
’’और समाज ? क्या मयंक का घर आना जाना समाज ने भी स्वीकार कर
लिया है ?‘‘
‘‘नहीं....वह नहीं आता घर। वो तो तुमसे मिलाना था इसलिये ले आई
उसे। अक्सर वीक एण्ड में हम लोनावला, खण्डाला या महाबलेश्वर
चले जाते हैं। महाबलेश्वर में कोठी है उसकी। माँ जी, बाबूजी भी
रह आए हैं वहाँ....तुम्हें भी ले चलूँगी।‘‘
अंधेरा धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा था। वे गेट पर ही मिल गए, माँ जी
साथ में थीं।
’’तुम रुको में बाइक लेकर आती हूँ।‘‘ उमा के अन्दर जाते ही वे
दोनों पास सिमट आए। माँ जी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मुझे लगा, अब
कहेंगी...आती रहना...
’’देखो, तुम मयंक की चर्चा नहीं करोगी,‘‘ बाबूजी ने उन्हें
प्यार से देखा।
’’हाँ...नहीं करूँगी। पर यह दोस्त है उसकी, समझा सकती है
उसे।‘‘
’’नहीं जिन्दगी अब इसी तरह गुजारनी है यह तय है छाती पर रखा यह
बोझ सहना ही होगा....हम कुछ नहीं कर पाएँगे। न तुम...न मैं।
शहीद बेटे के माँ-बाप से भी बढ़कर होती है शहीद की विधवा...दो
निवाले को भी तरस जाएँगे हम...‘‘
मेरे अन्दर छन्न से कुछ टूट गया। टूटकर किर्च-किर्च बिखर गया।
महसूस हुआ जैसे वे सारी की सारी किर्चें उनके तलवों में धँस गई
हैं और उनमें वैसा ही लहू रिस रहा है जैसा कारगिल युद्ध में
रजनीकान्त के गोली लगे शरीर से रिसा होगा। |