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लेखकों से
 १५. ९. २०१६

इस पखवारे-

अनुभूति-में-
भवेशचंद जायसवाल, ठाकुरदास सिद्ध, रंजना गुप्ता, इंद्रकुमार दीक्षित और अमिताभ त्रिपाठी अमित  की रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई संपादक शुचि लाई हैं व्रत उपवास में खूब पसंद की जाने वाली एक चिर परिचित मिठाई- मखाने की खीर

फेंगशुई में- २४ नियम जो घर में सुख समृद्धि लाकर जीवन को सुखमय बना सकते हैं- १८- मंगलमय रसोईघर

बागबानी- के अंतर्गत लटकने वाली फूल-टोकरियों के विषय में कुछ उपयोगी सुझाव- १८- एसपेरेगस फर्न स्प्रेंगेरिस की हरीतिमा

सुंदर घर- शयनकक्ष को सजाने के कुछ उपयोगी सुझाव जो इसके रूप रंग को आकर्षक बनाने में काम आएँगे- १८- सावन की हरियाली धुन

- रचना व मनोरंजन में

क्या आप जानते हैं- आज के दिन (१५ सितंबर को) शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, डॉ. रामकुमार वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, शांति सुमन... विस्तार से

नवगीत संग्रह- में प्रस्तुत है- आचार्य संजीव सलिल की कलम से आकुल के नवगीत संग्रह- जब से मन की नाव चली का परिचय।

वर्ग पहेली- २७६
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल और
रश्मि-आशीष के सहयोग से


हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले

साहित्य एवं संस्कृति में- 

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है भारत से
दीप्ति मित्तल की कहानी एक थी बिन्नो

एक थी बिन्नो, उसके बचपने में देखा था उसे...साँवले दुबले तन पर मैले-कुचैले चिथड़े, तेल चिपुड़े बालों की कस कर गुंथी चोटी और उसमें लगे लाल रिबन, आँखों में लिपा ढेर सारा काजल, माथे के बीचों-बीच बडा सा काला टीका, तुनक भरी चाल, खीजती आँखेँ, झल्लाये बोल... लगा ही नहीं था कि जीवन के संघर्षों में जूझती-पिसती स्त्री की सी भावभंगिमा लिये यह लड़की महज आठ-नौ साल की है।
एक दिन घर के बाहर बैठी थी
"बिन्नो जरा साबुन तो पकड़ा दे",
नल पर कपड़े धो रही माँ ने पुकारा, मगर खेलने में मस्त बिन्नो कहाँ सुनने वाली थी। माँ का दिमाग गरमाया तो पास पड़ा एक कंकर उठा कर उसकी पीठ पर दे मारा..
“क्या है जब देखो तंग करती रहती है, दो घड़ी सुकून से खेल भी नहीं सकते इस घर में",
कह कर बिन्नो धाँय-धाँय कर रोने लगी।
आगे-
*

डॉ. सरस्वती माथुर की
लघुकथा- राजदार
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डॉ॰प्रसन्न कुमार बराल द्वारा
कवि सीताकान्त महापात्र से साक्षात्कार
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डॉ विद्युल्लता का ललित निबंध
लालचंपा का पेड़

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पुनर्पाठ में अतुल अरोरा के संस्मरण
''बड़ी सड़क की तेज गली में'' का पहला भाग

पिछले पखवारे-

डॉ. नरेन्द्र शुक्ल का व्यंग्य
हिंदी दिवस के मायने
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सामयिकी में डॉ शुभ्रता से जानें - हिंदीतर राज्यों में व्यावहारिक हिंदी की दशा, दिशा और संभावनाएँ
*

ज्योतिर्मयी पंत से पर्व परिचय
कुमाऊँनी पर्व सातूँ-आठूँ
*

हिंदी दिवस के अवसर पर-
संकलित सामग्री हिंदी दिवस समग्र मे

*

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है भारत से
अमित मिश्र की कहानी बिना टिकट

- भईया ज़रा जल्दी करो।
- हाँ दीदी, जल्दी ही चल रहे हैं। अब गरमी भी तो आप देख ही रही हैं।
-हाँ भाई, देख रही हूँ। कहने को अभी सुबह के ९ ही बजे हैं, मगर अभी से धूप ऐसी। लेकिन ट्रेन जो निकल जाएगी, उसी की चिंता है।
-आप जो ट्रेन बता रही हैं, वो तो शायद नहिंए मिलेगी। अपनी गाड़ी से भी जाएँ तो भी नहीं पहुँच पाएँगी। हमें तो सवारी से मतलब है, सो चले चलेंगे। लेकिन बाद में मत कहिएगा।
-बात सही कह रहे हो भईया, लेकिन कोशिश करने में क्या जाता है? फिर ट्रेन लेट भी तो होती ही है।
- सो तो है। आगे प्रभु की इच्छा। ऑटो काहे नाहीं कर लीं?
- कोई था नहीं उधर। फिर सोचा कि जितना समय ढूँढने में लगाऊँगी, उतने में तो वैसे ही पहुँच जाऊँगी।
- सो तो है। सुबह के वक्त यही समस्या रहती है। फिर जो पैसा को लेकर किचिर-पिचिर।
- अब आप बात छोड़िए और जल्दी कीजिए। आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी
 

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