डॉ. प्रसन्न कुमार बराल द्वारा संपादित ओड़िया पत्रिका “गोधूलि
लग्न” में उनके द्वारा भारतीय ज्ञानपीठ व पद्मविभूषण से
सम्मानित कवि सीताकान्त महापात्र से लिये गए साक्षात्कार का
हिन्दी रूपान्तरण
- दिनेश कुमार माली
डॉ. प्रसन्न कुमार
बराल- अपने भीतर काव्य-सत्ता की उपस्थिति को आपने
किस उम्र में अनुभव किया, उस बिरले अनुभव को अगर शब्दों
में ढाला जाए तो आप उस पर क्या कहना चाहेंगे?
कवि सीताकान्त महापात्र – जी, वास्तव में यह एक विरला
अनुभव है। जो कुछ इस विषय पर मैं कहना चाहता हूँ, उस अनुभव
को उन शब्दों का सटीक विवरण दे पाऊँगा या नहीं, मेरे
कृतित्व के परे है। फिर भी यह कहना चाहूँगा कि यह अनुभव
मुझे अपने स्कूल जीवन से प्राप्त हुआ था। उस समय मैं स्कूल
में पढ़ा करता था। उस समय एक अध्यापक थे, उनका नाम था गोपाल
मिश्र। उनके प्रयास से स्कूल में प्रकाशित होने वाली एक
हस्तलिखित पत्रिका को देखकर मैं साहित्य की ओर आकृष्ट हुआ।
उस समय मैं पिताजी की रामायण, महाभारत, भागवत तथा गंगाधर
की कविताओं के प्रति बहुत ज्यादा आकर्षित हुआ, उस समय के
अनुभव को भुलाया नहीं जा सकता। घर, परिवार और गाँव में जिस
बोलचाल की भाषा का व्यवहार किया जाता था, उसे मैंने एक
अनन्य ढंग से अनुभव करते हुए प्रयोग में लाना शुरू किया।
आज भी मुझे अच्छी तरह याद है, मेरी माता की प्रतिदिन कही
जाने वाली अनेक नीतिज्ञान की बातें। कभी-कभी जब मैं उदास
होता था, वह कहती थी
“अरे जाल में फँसी हुई चिड़िया की तरह क्यों बैठे हो!”।
ऐसे सारे अनुभव जितने मैं आपको बताता हूँ, फिर भी मुझे ऐसा
लगता है, बहुत कुछ अनकहा छूटा रह जाता है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आपने अपनी कविताओं में गाँव, नदी, प्रकृति, विशेषकर
चित्रोत्पला पर चित्रांकन किया है, इन सभी चीजों के अलावा
परिवार, परिवेश और अन्य संबंधियों ने आपको किस तरह
प्रभावित किया है?
कवि सीताकान्त महापात्र- गाँव, परिवेश, प्रकृति और चित्रोत्पला नदी के प्रति मैं
अपने मोह को भाषा में अच्छी तरह व्यक्त नहीं कर सकता। मैं
जीवन भर प्रकृति प्रेमी रहा हूँ। पेड़-पौधे, जंगल, नदी,
पहाड़, पर्वत जिस तरह मुझे आकर्षित कर पागल कर देते हैं,
उन्हें शब्दों में व्यक्त करने का सामर्थ्य मुझमें नहीं
है। इस प्रकृति के भीतर नीरस जीवन जीने वाले आदिवासी शायद
इसलिये मेरे लिये इतने प्रिय हैं। बाकी रह गई बात निर्दिष्ट
नदी चित्रोत्पला की। जिस दिन से मैं समझने लगा हूँ,
चित्रोत्पला मेरे जीवन में इस तरह अंतरंग हो गई मानो मेरे
भीतर लहूर बनकर बह रही हो और मेरे मन मस्तिष्क की समस्त
स्नायु ग्रंथियों पर अपनी उपस्थिति का गहरा प्रभाव छोड़ते
हुए जा रही हो। मैंने सारी दुनिया का भ्रमण किया है।
देश-विदेश के नदी, समुद्र, जल-प्रपात सभी को जब-जब मैं
देखता हूँ तब-तब चित्रोत्पला को मैं अपने हृदय में पाता
हूँ। मुझे याद नहीं पड़ता कि बिना मैं अपने गाँव और
चित्रोत्पला को लिये कभी कहीं समय बिताया हो। परिवेश और
आस-पास के मनुष्यों के प्रभाव से क्या कभी मुक्त होना संभव
है?
(सीताकान्त महापात्र का चित्रोत्पला
नदी के प्रति विशेष प्रेम दर्शाने के लिये डॉ. प्रसन्न
कुमार बराल द्वारा गोधूलि लग्न में दो ओड़िया कविताओं
“पुनर्जन्म” तथा “चित्रोत्पला : प्रेम की एक चिट्ठी” का
समावेश किया गया है, जिनका मेरे द्वारा किया गया अनुवाद
हिन्दी पाठकों के लिये प्रस्तुत है- )
पुनर्जन्म
चित्रोत्पला के किनारे
कदंब-पेड़ की छाँव में
बैठे-बैठे, कभी-कभी
जाने-अनजाने, अपने-आप
नींद आ जाती।
और
नींद में नौका विहार करते
चित्रोत्पला के गीत सुनते-सुनते
समुद्र की सैर करने लगता।
समुद्र को प्रणिपात कर
फिर से चित्रोत्पला के उल्टे स्रोत को
लौट आता उस नाव में बैठ
अपने परिचित तट पर
अपने गाँव के कदंब पेड़ की छाँव में।
नींद टूट जाती कबूतर की गुटर-गूँ से
उस आवाज में बचपन के दिन
यौवन, वार्धक्य, दिन-रात, सुबह-शाम
सब एक साथ तरोताजा हो जाते
जैसे नारियल से खेलते
तालाब में तैरते,
ऑफिस में किसी को आवाज देते
माता-पिता के खोने का भीषण क्रंदन
जैसे चित्रोत्पला से शिकायत करते हुए
क्यों मुझे लौटा लाई समुद्र के वक्ष-स्थल से
फिर मेरे गाँव और कदंब-पेड़ को
अगर मैं न होता तो
क्या यह सारी होनी-अनहोनी मुझे मिलती
मेरे दुर्बल सीने में खंजर घोंपने जैसे?
नदी उसके कान में चुपचाप कहती
“ये देखो! यह तो अनंत है
अरे पगले! हमेशा से तू इतना ही खोज रहा है
पाने को अनंत-क्षण को
क्षण के असीम अनंत को”
इतना कहते हुए खो जाता वह स्वर
उदास शाम की नदी की तरंगों,
कोमल घास के मैदानों में चरती गायों
और मायावी मल्हार पवन में।
उसके बाद और कैसी पृथ्वी
और कैसे गृह, तारे निहारिका?
कैसी भाषा, कैसे शब्द
कैसी कविता और कैसा जन्मांतर?
चित्रोत्पला : प्रेम की एक चिट्ठी
जानती हो तुम्हें अपने जेब में रखकर
सारी दुनिया का भ्रमण करता हूँ मैं।
देखा है मैंने तुम्हें बहते हुए ईउफ़्रेटिस में
गंगा, डैन्यूब, सिन नदी में।
उन्हें छूते ही
तुम मिल जाती हो।
मैंने सपना देखा है
नौका से पार होते हुए
चप्पू चलाते
मगर किनारा दूर-दूर होता जाता
और रह जाती नाव मझधार में।
समय की धारा ने मुझे
बच्चे से बूढ़ा बना दिया
तुम्हें पता नहीं
अभी भी मेरे पॉकेट में
तुम प्रेम-चिट्ठी की तरह हो।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
जो कोई इंसान साहित्य के प्रति आकृष्ट होता है उसी क्षण
सबसे पहले वह कविता की ओर अभिरुचि लेने लगता है। अनेक
प्रतिष्ठित कहानीकारों और उपन्यासकारों ने अपने शुरूआती
समय में कविता के माध्यम से इस सारस्वत जगत में अपनी पहचान
बनाई है। क्या इसका अर्थ यह मान लिया जाए कि साहित्य
सर्जन-कर्म कविता के अति नजदीक है?
कवि सीताकान्त महापात्र-
नहीं, साहित्य सर्जन का कार्य कविता के नजदीक है, यह मैं
नहीं कहूँगा। फिर भी गद्य-रचना से पद्यों की उम्र अधिक
होने के कारण मन होने पर बाद में कविताओं के रास्ते आगे
निकला जा सकता है। यह बात सही है कि अनेक कथा-शिल्पी और
औपन्यासिक अपने लेखन जीवन के शुरूआत में कविताएँ लिखते थे।
मगर पहले गद्य रचना लिखकर बाद में कवि होने वाले शिल्पियों
की संख्या बहुत कम है। कौन जानता है, बहुत खोज करने के बाद
हो सकता है, कुछ लोग मिल भी जाएँ। मगर मेरे विचार से
प्रत्येक कवि को गद्य लिखना बहुत जरूरी है। गद्य साहित्य
की सरल बोधगम्यता पाठकों को साहित्य के प्रति आकर्षित करती
है। कविता की अनेक बातों को स्पष्ट रूप से समझाने के लिये
गद्य की आवश्यकता पड़ती है। कविता लिखने के दौरान मेरी अनेक
गद्य रचनाएँ भी लिखी गई हैं। गद्य रचनाएँ लिखने के दौरान
मेरा अधिक से अधिक यह प्रयास रहता है कि दोनों गद्य और
पद्य की बीच की दूरी की रक्षा कर सकूँ। मगर कुछ आलोचक मेरी
गद्य रचना-शैली में काव्य-धारा के संधान की बात करते हैं,
जिसे वे काव्यमय गद्य के रूप में चिन्हित करते हैं। इसके
अतिरिक्त, मेरे कविता संकलनों में जो भूमिका मैंने
गद्य-शैली में लिखी है उनके भीतर मेरे अनुभव, अनुभूति और
साहित्य संक्रांतिय धारणा कविता की तरह प्रतिपादित होती
हुई नजर आती है। इस संक्रांति की मैंने अपनी अँग्रेजी
पुस्तक ‘बेयरफुट इंटू रियलिटी’ में पूरी तरह से व्याख्या
की है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
मैंने कहीं पढ़ा है कि आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में
स्नातकोत्तर की शिक्षा ग्रहण करते समय तत्कालीन
यूनिवर्सिटी जर्नल सम्पादन का दायित्व सँभाला था। उस समय
आप किस तरह की कविताएँ लिखते थे? तत्कालीन पत्र-पत्रिकाएँ
कौन-कौन सी थीं?
कवि सीताकान्त महापात्र-
१९५७ से १९५९- इन दो सालों में एम.ए. पढ़ने के लिये इलाहाबाद
विश्वविद्यालय गया था। जहाँ मुझे यूनिवर्सिटी जर्नल का
सम्पादन करने का दायित्व मिला था। उससे पहले मुझे रेवेन्सा
कॉलेज में सम्पादन के क्षेत्र की जानकारी थी। ईस्ट हॉस्टल
की पत्रिका ‘जागरण’ का मैंने सम्पादन किया था और उस
पत्रिका में मेरी पहली कविता छपी थी। इसके अलावा, मुझे याद
है उस समय रेवेन्सा की पत्रिका में मेरी एक मात्र अंग्रेजी
कविता को बिधुभूषण दास ने प्रकाशित किया था। उस समय लिखने
का कार्य चल रहा था, मगर मेरी ज्यादा कविताएँ प्रकाशित
नहीं हुई थीं। उस समय वहाँ रहते समय सुमित्रा नन्दन पंत और
फिराक गोरखपुरी जैसे प्रसिद्ध कवियों के साथ मेरा परिचय
हुआ था। एक बार फिराक गोरखपुरी ने मुझे अपनी कविताओं के
ऊपर कई सवाल पूछे थे जैसे क्या लिख रहे हो, किस विषय पर और
कैसे लिख रहे हो इत्यादि-इत्यादि।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
ओडिशा के प्राचीन साहित्य से लेकर मध्य युगीन कविताओं में
छंदबद्ध और लयबद्ध कविताएँ देखने को मिलती हैं। उसके
परवर्ती समय में गिने-चुने कवियों को छोड़कर अभी की रचनाएँ
उन चीजों से दूर होती चली गई। इसके परिणाम स्वरूप ओड़िया
कविताओं में पठनीयता घटती चली गई। क्या इस बात से आप सहमत
हैं?
कवि सीताकान्त महापात्र -
संगीत और छंदबद्धता कविता के एक-एक पहलू मात्र हैं। इतना
होने के बावजूद भी कविताओं को उस समय बहुत लोग पढ़ते थे,
कहा नहीं जा सकता है। सभी युग में और सभी समय कविता की
पाठक गोष्ठी सीमित रही है। इसका एक मुख्य कारण है कविता
में प्रयुक्त होने वाली भाषा। कवि अपने वर्णन में इस तरह
की भाषा का प्रयोग करता है जो साधारण मनुष्य की प्रतिदिन
की भाषा से अलग होती है। खासकर कवि अपनी बात रखने के लिये
अनेक प्रतीकों अथवा बिंबों का अपनी कविताओं में प्रयोग
करता है। मगर मेरा यह व्यक्तिगत अनुभव है कि उन चीजों की
जरूरत नहीं होती है, उनका प्रयोग केवल बाह्य-आडंबर में मदद
करता है। जिसे मैं अनावश्यक और अयुक्तिकर मानता हूँ।
आधुनिक काल में कविता के प्रस्तुतीकरण के लिये पौराणिक
घटनावलियों का प्रयोग अवश्य ही प्रासंगिक और तर्क-संगत है।
इसी वजह से मैंने मेरी कविताओं में उनके पौराणिक चरित्रों
को लिया है जैसे कि यशोदा। कृष्ण, यशोदा के प्रसंग को
मैंने किसी कहानी की तरह न लेकर एक अति शक्तिशाली प्रतीक
के रूप में प्रयोग किया है। मिट्टी खाने के बाद बाल-कृष्ण
के मुँह के अंदर सारे ब्रह्मांड का दर्शन करने का भाग्य
यशोदा को छोड़कर किसी और को प्राप्त नहीं हुआ। इसका मतलब यह
तो नहीं कि हम यशोदा को पागल कहें? जिसके बाल गोपाल के
मुँह के भीतर गृह, नक्षत्र, सूर्य, चन्द्र की उपस्थिति
देखी गई थी। इस प्रश्न का उत्तर किसी के पास नहीं है। खुद
यशोदा इस प्रश्न पर निरुत्तर है। मेरी कविताओं में इसी
अलौकिकता का वर्णन हुआ है।
हाँ, कविता की छंदबद्धता से दूर होने की बात पर मैं यह
कहना चाहता हूँ कि जब सच्ची राउतराय ने मुक्तछंद कविता
लिखना शुरू किया था और उस समय बहुत सारे कवि प्रभावित होकर
परवर्ती काल में उसी तरह की कविताओं की रचना करने की ओर
अग्रसर हुए।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
ओडिया कविताओं को राष्ट्रीय और अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर ले
जाने वाली पृष्ठभूमि के आप एक मुख्य स्तंभ है। आप और आपके
समसामयिक या परवर्ती काल के कवियों ने जो कुछ किया क्या आप
उससे संतुष्ट है?
कवि सीताकान्त महापात्र -
शुरू से ही आधुनिक ओडिया कविता एक समृद्ध और सशक्त परंपरा
रही है। इसलिये आप जिसे आप राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर
पर ले जाने वाली पृष्ठभूमि की बात कर रहे हैं, मेरे विचार
में ऐसा कुछ भी नहीं है। मेरे समसामयिक और मेरे परवर्ती
समय के बहुत सारे प्रतिभाशाली कवियों ने अपनी
काव्य-कृतियों के माध्यम से ओडिया कविताओं को मान-सम्मान व
प्रतिष्ठा दिलवाकर नई ऊँचाई तक पहुँचाया है। भारत की बहुत
सारी प्रादेशिक भाषाओं में लिखी गई कविताओं को पीछे छोडकर
हमारे ओड़िया काव्यकारों ने एक सम्मान जनक मुकाम प्राप्त
किया है। विभिन्न भारतीय भाषाओं के प्रमुख कवियों की
तालिका में ओड़िया कवियों की मौजूदगी सचमुच में उत्साह जनक
है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आपकी काव्य प्रतिभा की एक महत्वपूर्ण दिशा है ट्राइबल
स्टडीज़ अर्थात आदिवासियों की जीवन-शैली, सांस्कृतिक
परंपराओं और लोकगीतों का गहन अध्ययन। इस तरह की कष्टसाध्य
कार्य करने की प्रेरणा आपको कहाँ से मिली?
कवि सीताकान्त महापात्र -
आई.ए.एस. की नौकरी में मुझे ओडिशा के दो जिलों का कलेक्टर
और जिला मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य करने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ। जिसमें एक जिला था सुंदरगढ और दूसरा मयूरभंज।
दोनों जिला आदिवासी बहुल जिले हैं। भिन्न-भिन्न संप्रदाय
के आदिवासियों लोगों के साथ प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करने
का अवसर मुझे इन दोनों जिले में प्राप्त हुआ।
सुंदरगढ़ में मेरा रहने का समय था १९६७ -६८। राउलकेला में
इस्पात कारख़ाना लगने के बाद यद्यपि शहर काफी बढ़ गया था।
आदिवासी लोगों के हजारों की तादाद में काम-धंधों की तलाश
में राऊरकेला आने और उसके आस-पास के इलाकों में शाम के समय
गीत गाते-गाते लौट जाने का दृश्य देखकर मैं अभिभूत हो जाता
हूँ। मौखिक भाषा में गाए जाने वाले उन गीतों में था मेरे
लिये एक अद्भुत मर्मस्पर्शी आकर्षण।
मयूरभंज जिला में कलेक्टर की नियुक्ति के समय में मैंने
संथाली भाषा सीखी। भाषा सीखने की इस प्रक्रिया में संथाली
से अलग ‘हो’,‘खड़िया’ और ‘मुंडारी’ भाषा मुझे समझ में आने
लगी। एक बार भाषा सीख जाने के बाद उनके द्वारा गाए जाने
वाले गीत मुझे और अधिक मीठे लगने लगे। उन सभी गीतों के
अंतर्गत उनके जीवन के सभी अध्यायों और घटनाओं का वर्णन
समाया हुआ था। जन्म-मृत्यु, कर्मचक्र, उत्सव, त्योहारों
आदि प्रत्येक घटना के उपलक्ष में सभी गीतों का मुक्त-कंठ
से वे लोग गान करते थे। उन सभी का मैंने जी भर कर उपयोग
किया। फिर इन सभी गीतों को एकत्रित कर “दे सिंग लाइफ”
शीर्षक से ९ संकलन मैंने प्रकाशित करवाए। इन संग्रहों का
अनुवाद तथा संकलन करने में मुझे २० साल से ज्यादा का समय
लगा। ये सारे संकलन यूनेस्को रिप्रेजेंटेटिव वर्क सीरीज
द्वारा प्रकाशित हुए।
इस कार्य की प्रेरणा मुझे अपने भीतर और मेरे चारों तरफ
फैले हुए परिवेश से मिली। आदिवासी लोगों की मुक्त
जीवन-धारा और जीवन के प्रति उनके अकृत्रिम ममत्वबोध ने
मुझे गंभीर तरीके से प्रभावित किया। इस वजह से मैं इस
कार्य को अपने हाथ में लेकर अपने आपको सौभाग्यकारी समझता
हूँ।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आदिवासी भाषा, संस्कृति, त्यौहार तथा उनकी जीवनधारा के
अध्ययन कार्य में आपका अनुभव कैसा रहा? वास्तव में यह
कार्य कितना कष्टकारी रहा?
कवि सीताकान्त महापात्र –
निस्संदेह यह अनुभव मेरे लिये उत्साहजनक था। यह काम मुझे
अच्छा लग रहा था तभी तो इस कार्य को अपने अध्ययन का आधार
बनाकर शोध करने का मैंने निश्चय किया था। आदिवासी लोगों
द्वारा प्रयोग में ली जाने वाली अनेक भाषाएँ जब मुझे समझ
में आने लगीं तो मैंने सबसे पहले उनकी कई कविताओं और गीतों
का संग्रह किया, उसके बाद धीरे-धीरे आदिवासी लोगों के
सामाजिक जीवन में हो रहे परिवर्तनों का गहन अध्ययन करने के
लिये पूर्वी भारत के पश्चिम बंगाल के बोलपुर तथा ओडिशा की
मयूरभंज आदि जिलों में मैंने बहुत काम किया। यहाँ तक कि इस
विषय पर मैंने मेरी पी.एचडी. की थीसिस लिख डाली जो
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से दो भागों में ग्रंथाकार रूप में
प्रकाशित हुई। पहले भाग का नाम था ‘मार्डनाइजेशन एंड
रिचुयल’ और दूसरे भाग का नाम था “द टेल्स ऑफ द सेक्रड”।
गीतों और कविताओं को छोडकर आदिवासियों की “वर्ल्ड्
पेंटिंग” पर भी मैंने विस्तारपूर्वक अध्ययन किया। इस
अध्ययन पर आधारित मेरी पुस्तक को ललित कला अकादमी ने
प्रकाशित किया। सालों-साल एक ही इलाके में आंतरिकता से
कार्य करते समय उनके कष्टों का या कष्टों की प्रासंगिकता
मेरे हिसाब से कोई मायने नहीं रखती है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –
किसी भी कवि के आपातत द्वैत सत्ता के ऊपर अक्सर सवाल उठते
हैं, एक उसकी अपनी व्यक्तिगत-सत्ता तो दूसरी उसकी
काव्य-सत्ता। सांसारिक जीवन जीते हुए एक मनुष्य के लिये दो
अलग-अलग भूमिकाओं में अवतीर्ण होते समय आपसी समझौते की
जरूरत पड़ती है, अन्यथा अंतरात्मा में संघर्ष जन्म लेने
लगता है। वास्तव में ऐसा होता है?
कवि सीताकान्त महापात्र -
इस दृष्टिकोण से मैं आपको सौभाग्यशाली मानता हूँ। इस तरह
के समझौते अथवा संघर्ष के बारे में मुझे कोई भी जानकारी
नहीं है। सांसारिक जीवन के भीतर एक व्यक्ति के रूप में
मेरी जो भूमिका है, उसके समानान्तर कवि कर्म करते समय मैं
अपनी भूमिका अदा करता हूँ। हाँ, यह बात अवश्य है, मेरे
अध्ययन और लिखा-पढ़ी में तल्लीन होने के दौरान मैं अपने
परिवार, परिजन और भाई, बंधुओं को पर्याप्त समय नहीं दे
पाता था, किन्तु यह कभी भी मेरे सामने अवरोध बनकर खड़ा नहीं
हुआ।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
ई-मेल, इन्टरनेट, सैटलाइट, टेलीविज़न की तरह कम्यूनिकेशन
इंजीनियरिंग में भी विगत कई दशकों के भीतर उनके अभूतपूर्व
परिवर्तन घटित हुए हैं, जिसकी वजह से आम लोगों का जीवन
बहुत प्रभावित हुआ है। उसके साथ उभरकर हमारे समक्ष आया
कंज्यूमेरिज़्म एंड ग्लोबलाइज़ेशन का एक दौर। जिनके साथ
कदम-ताल मिलाकर चलने के कारण मनुष्य के चरित्र में
परिवर्तन होने लगा और वह बहुत ही ज्यादा जटिल, स्वार्थी,
अन्वेषी तथा आत्मकेंद्रित होने लगा है। मनुष्य के भीतर हो
रहे इस मानसिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में कविता
(साहित्य) को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
कवि सीताकान्त महापात्र -
भौतिकवाद की दृष्टि से जो प्रगति हो रही है तथा जिस तरह से
समाज उससे प्रभावित हो रहा है, उसे रोका नहीं जा सकता। उसे
रोकने की आवश्यकता भी नहीं है। क्योंकि यह विश्वव्यापी
प्रक्रिया सारे संसार को संकुचित करने में अपना योगदान दे
रही है। सामग्रिक भाव से इससे विश्व-साहित्य लाभान्वित हो
रहा है। इस परिवर्तन का प्रभाव पड़ने के बावजूद भी कविताओं
की भूमिका पहले की तरह अपरिवर्तित रहेगी। कविताएँ हमेशा से
मानवतावाद का जय गान करती आ रही हैं। वास्तविक जीवन को
पहचानने तथा मानवता के प्रति श्रद्धाभाव रखने की मनुष्य को
शिक्षा देती हैं। कविता के इस प्रयास को अगर मनुष्य ग्रहण
कर लेता है तब भले ही वह मनुष्य से देवता न हो पाए, मगर वह
एक इस प्रकार शक्ति का अधिकारी बन जाता है, जिसके द्वारा
जीवन को यथार्थ ढंग से जीने का रास्ता खोज सकता है। कविता
के इस लक्ष्य की उपलब्धि कोई मामूली नहीं है। प्रत्येक
क्षण नए तरीके से जीवन जीने तथा प्रकृति के सारे
परिवर्तनों तथा नित्य-नैमिकता के अंदर नयेपन की खोज करने
का अभिनव-कौशल कविता ही मनुष्य को सिखाती है। कविता
(साहित्य) के माध्यम से मनुष्य जीने की अपनी शैली का
आविष्कार करता है। सूर्योदय, सूर्यास्त की तरह प्रतिदिन घट
रहे इस दृश्य के भीतर हर रोज वह नूतन-आशा और संभावना के
प्राचुर्य को देख पाता है। वास्तव में, मैं यह कहना चाहता
हूँ कि मनुष्य को किसी परिचित और निर्दिष्ट भौगोलिक सीमा
के भीतर बंद कर देना उचित नहीं है, प्रत्येक इंसान इस
दुनिया का विशेष इंसान है। मनुष्य की यह विश्वाभिमुखी
अंतर्दृष्टि ही उसकी सबसे बड़ी सफलता है। भारतीय होने पर
मुझे गर्व है, मगर मेरा कर्तव्य और मेरी भूमिका सारे संसार
के प्रति मानवतावाद की प्रतिष्ठा और जयगान के लिये उद्दिष्ट
होनी चाहिए।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
कम उम्र और अपेक्षाकृत कम लेखन कार्य करने के बावजूद भी
अँग्रेजी भाषा के भारतीय लेखक जिस प्रतिष्ठा और सम्मान को
प्राप्त करते है, वहाँ अपनी मातृभाषा में लिखने वाले बहुत
सारे वरिष्ठ और सम्माननीय लेखकों को वह सौभाग्य प्राप्त
नहीं हो पाता। इसके लिये क्या भाषा एक परिस्थितिजन्य कारण
है?
कवि सीताकान्त महापात्र -
इस परिस्थिति के लिये भाषा एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकता
है। इस प्रश्न का उत्तर मैंने अपने पूर्व के कई
साक्षात्कारों दिया है। सबसे बड़ी बात है कि हमारे देश के
विशुद्ध साहित्य से संबन्धित पुस्तकों के अध्ययन करने वाले
पाठकों की संख्या बहुत कम है फिर इस संबंध में अंग्रेजी
भाषा की पुस्तक पढ़ने वाले लोगों की संख्या और ज्यादा कम।
भारतीय लेखक जो अँग्रेजी भाषा में लिखते हैं, वे जिस
विषयवस्तु को अपना आधार बनाते हैं अथवा जिन घटनाओं का
वर्णन अपनी पुस्तकों में करते हैं, वे सब पाश्चात्य देशों
के लिये आश्चर्य का केन्द्रबिन्दु बन जाते हैं। भारत के
सामाजिक जीवन, पारिवारिक बंधन और व्यक्ति और सामाजिक की
व्यवस्था की सशक्त अंतरंगता विदेशी राष्ट्रों के लोगों को
अद्भुत लगने लगती है। उन परिस्थितियों का विदेशी लोग कभी
सामना नहीं करते हैं, इसलिये इस तरह की अभिनव और अनुपम
घटनाओं को भारतीय लेखकों की पुस्तकों में देखकर वे अभिभूत
हो उठते हैं। यही वजह है विक्रम सेठ की ‘ए सूटेबल बाय’ की
कहानी पाश्चात्य राष्ट्रों में इतनी लोकप्रिय साबित हुई।
इसके साथ-साथ मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि
भारतीय लेखकों की अंग्रेजी भाषा की पुस्तकों की गुणवत्ता
अत्यंत ही उच्चकोटि की है। भारत के वरिष्ठ और बहुचर्चित
लेखकों की पुस्तकों का अनुवाद न होने के कारण वे विदेशी
पाठकों तक नहीं पहुँच पाए। फकीर मोहन, गोपीनाथ और कान्हू
चरण की कितनी पुस्तकों का अनुवाद हुआ है। भारत के बाहर
रहने वाले एक विपुल पाठक गोष्ठी तक पहुँचाने का एक मात्र
रास्ता अनुवाद और व्यापक प्रसारण है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आप केंब्रिज और हावार्ड विश्वविद्यालय के साथ–साथ विश्व के
बहुत प्रसिद्ध शिक्षा, सांस्कृतिक,संस्थाओं तथा
विश्वविद्यालय के विभिन्न कार्यक्रमों से जुड़े हुए हैं। उन
सभी संस्थाओं में भारतीय साहित्य को किस दृष्टि से देखा
जाता है? वहाँ पर इस संदर्भ में कुछ कार्यक्रमों का आयोजन
होता है?
कवि सीताकान्त महापात्र-
मैंने थोड़ी देर पहले आपको पाश्चात्य राष्ट्रों, भारतीय
साहित्य और उनके लेखकों की स्थिति के बारे में प्रकाश
डाला। फिर भी भारतीय भाषा और साहित्य को लेकर वहाँ पर
नजरों में आने वाला कार्यक्रम नहीं होता है। हाँ, यह बात
अवश्य है कि कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में इंडियन
स्टडीज के विभाग हैं। मैं खुद कई विशेष कार्यों के लिये उन
विभागों से जुड़ा हुआ हूँ। इसके अतिरिक्त, ओरिएंटल लैंगवेज
सीरीज की उन सारी संस्थाओं में विपुल मात्रा में संस्कृत
भाषा के दुर्लभ ग्रंथ और पुस्तकों के संग्रह पड़े हुए हैं।
पहले ही मैंने कहा कि केवल अनुवाद के अभाव के कारण भारतीय
लेखकों को पाश्चात्य राष्ट्रों के पाठक और साहित्य जगत से
वंचित रहना पड़ा है। गोपीनाथ मोहंती की ‘परजा’,
‘दाना-पानी’, ‘लय-विलय’ और ‘दादी बूढ़ा’ को छोडकर अन्य किसी
भी पुस्तक का अँग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है। इसी तरह
कान्हू चरण की ‘झंझा’ एक मात्र अनूदित पुस्तक है। फकीर
मोहन के “छ माण आठ गूँठ’-एक मात्र उपन्यास का अमेरिका के
अन्यतम प्रसिद्ध कोमेल यूनिवर्सिटी के अँग्रेजी प्रोफेसर
सत्यप्रकाश मोहंती के साथ-साथ यतीन नायक, रविशंकर मिश्रा
ने अनुवाद किया है। बहुत सारे अज्ञात कारणों के कारण “अंधा
दिगंत” जैसी पुस्तक का अँग्रेजी में अनुवाद अभी तक नहीं हो
पाया। दुनिया की सारी प्रसिद्ध संस्थाओं और
विश्वविद्यालयों में भारतीय भले ही उच्च पदवी पर कार्य कर
रहे हों, मगर भारतीय भाषा और साहित्य पर कभी चर्चा नहीं
करते।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
“शब्द और समय” जैसे दो शब्दों के साथ आपकी अत्यंत ही
अंतरंगता है, इन दोनों शब्दों के प्रति आपकी ज्यादा ही कुछ
ममता और श्रद्धा है। इसलिये आपके द्वारा लिखी गई किताबों के
शीर्षकों में यह शब्द बारबार देखे जाते हैं,जैसे कि “समय र
शेष नाम”,“फेरि आसिबार बेल”,(समय),“समयर
आरपारि”,“संस्कृति’,‘आम समय”,‘शब्दर आकाश’,‘शब्द’,‘स्वप्न
और निर्भीकता’ इत्यादि। इस विषय पर कुछ प्रकाश डालें।
कवि सीताकान्त महापात्र-
इस प्रसंग को हिन्दी की विशिष्ट साहित्यकार डॉ. नामवर सिंह
ने उठाया था। मेरे एक कविता-संग्रह की भूमिका में “शब्द और
समय के कवि सीताकान्त” नाम से उन्होंने एक आलेख लिखा था।
मनुष्य जीवन के प्रत्येक स्तर को समय किस तरह स्पर्श कर
प्रभावित करता है, इस विषय का उसमें उल्लेख किया था। मेरी
धारणा यह थी कि कभी भी समय से मनुष्य मुक्ति नहीं पा सकता।
चाहे किसी की इच्छा हो या न हो, उसे समय का सामना करना ही
पड़ता है। जीवन के समूचे परिवर्तन में समय एक अवश्यंभावी
उपादान है। समय मनुष्य जीवन का एक विशेष अविच्छेद्य अंग
है। समय को ढकना या समय को भूलने का सामर्थ्य मनुष्य में
नहीं है। सच में, समय के सामने मनुष्य की अवस्था असहाय है।
यह बात सही है कि समय स्थिर नहीं है। वह एक चिरंतन
प्रवाहमान धारा है। समय की गति के साथ के साथ मनुष्य को
कदम-ताल मिलाते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। एक कवि के तौर पर
मेरे लिये यह बिलकुल असंभव है कि समय के बहते हुए स्रोत के
पास मैं स्थिर खड़ा हो जाऊँ। समय अदृश्य है, मगर इसकी शक्ति
असीम है। मनुष्य जीवन के सभी परिवर्तनों के पीछे समय की
अनिवार्य उपस्थिति रहती है। यही वजह है मैं कविता लिखते
समय अत्यंत ही सचेतन होकर समय को महत्त्वपूर्ण आधार मानता
हूँ। इसी तरह शब्द को भी। शब्दों का सामर्थ्य कल्पना से
परे है। यह होता है संयोग का सेतु की तरह। एक जीवन काल में
शब्दों की खोज समाप्त नहीं होती है, जन्म-जन्मों तक उसका
इंतजार करना पड़ता है। कभी-कभी मिल जाता है तो कभी नहीं
मिलता है। यह अन्वेषण की कथा कहते समय मेरे मन में कविता
की कुछ पंक्तियाँ याद हो उठती है, जैसे-
एक शब्द को गढ़ने में
जिस तरह आकाश हजारों रंग बदलता है
हवा कितने तरीकों से गीत गाती है
समुद्र रोता है, हँसता है, गूँगी बालू पर टकराता है
सर्वांसह वसुंधरा चातक की तरह ताकती है
कि कब एक शब्द का निर्माण होगा
इसलिये सौ जन्म, सौ मृत्यु की आवश्यकता होती है?
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
मैंने आपका पहले एक मंतव्य पढ़ा था जिसमें आपने समय के
प्रसंग में कहने के लिये निर्जनता की बात उठाई थी। निर्जनता
मनुष्य जीवन के सारे स्तरों को किस तरह समेटे बैठी है, इस
बात की समालोचना हुई थी। इस विषय पर थोड़ा-सा विस्तार से
प्रकाश डालें।
कवि सीताकान्त महापात्र-
हाँ, मैंने इसके ऊपर मेरे विचार रखे थे, अपना वक्तव्य दिया
था। समय के प्रसंग पर कहने के लिये मैंने कहा था कि समय के
अनेकानेक नाम हैं, निर्जनता उसका अंतिम परिचय होती है। सभी
मनुष्यों को निर्जनता खा जाती है। पारिवारिक जीवन और
सांसारिक कोलाहल के भीतर रहते समय मनुष्य उस निर्जनता के
द्वीप का निर्वासित जीवन जीता है। संसार, जीवन, लोभ, मोह,
माया जैसे अनेकानेक अनुभवों से दूर, छोटे बच्चे के रूप में
शुरू कर स्वयं भगवान के जीवन में निर्जनता का प्रभाव देखने
को मिलता है।
याद करो, उस अनन्य क्षण को, जब घनघोर जंगल में भगवान श्री
कृष्ण सोते हुए नीरवता में जारा शबर के उस तीर का इंतजार
कर रहे थे। श्री कृष्ण के जीवन का यह निर्जनता का निष्ठुर
अनुभव था। निर्जनता भिन्न-भिन्न रूप बदल कर आती है, चली
जाती है। घर में रह रहे एकाकी बुजुर्ग लोग, मध्यम-वर्गीय
परिवार में बच्चों की स्कूल और पति के बाहर जाने पर घर की
अकेली महिला एक विचित्र शून्यता के भीतर कुछ समय के लिये
जिस असहायता का अनुभव करती है, उसी का नाम है निर्जनता।
प्रेमी जोड़ों के मिलने के पथ पर जिन किन्हीं बाधाओं को
लेकर निर्जनता के शीतल द्वीप को ले जाती है, निर्जनता के
वे क्षण उन्हें इस तरह लगते हैं जैसे उनके चारों तरफ
दुनिया उजड़ी हुई नजर आती है। जीर्ण-शीर्ण हो जाती है। जिस
तरह एक छोटे बच्चे के खिलौने टूटने का दुख उसे निर्जनता के
भीतर खींच ले जाता है, वास्तव में “यह है या यह नहीं है”
की बीच की स्थिति मनुष्य के लिये उसकी निर्जनता होती है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
साहित्य रचना के क्षेत्र में परम्पराओं की भूमिका कितनी
महत्त्वपूर्ण है?
कवि सीताकान्त महापात्र –
परंपरा और आधुनिकता पर मैं पहले ही बहुत बता चुका हूँ।
परंपरा की सशक्त जड़ों पर ही आधुनिकता टिकी है। परंपरा हर
समय हमेशा पुरानी और आधुनिकता नई, इस बात पर मेरा कोई
विश्वास नहीं है। आज हम जिसे परंपरा कहते हैं, कभी वह
लोगों के लिये आधुनिकता हुआ करती थी। इसलिये मेरी दृष्टि में
अनेक पुराने काव्य, कविताओं में आज भी आधुनिकता की वह सतेज
खुशबू मिलती है। अभी भी ऐसा लगता है मानो यह हमारे समय की
रचना हो। इसी तरह दूसरी तरफ अभी भी अनेक रचनाओं में बहुत
प्रयास करने के बाद भी आधुनिकता का पता नहीं चलता। फिर भी
साहित्यकारों के लिये, खासकर कवियों के लिये, परम्पराओं के
साथ जुड़ा होना बहुत आवश्यक है। प्राचीन और मध्य युगीन
साहित्य का अध्ययन किए बिना आधुनिक काल की कविता कैसे लिखी
जा सकती है, मुझे समझ में नहीं आता। हम केवल ओडिया साहित्य
की बात नहीं कर रहे हैं। बंगाल के सुनील गांगुली जैसे
कवियों ने भी कभी भी अपनी परम्पराओं को नहीं छोड़ा है।
पारंपरिक परम्पराओं की समालोचना के परिसर में रवीद्र नाथ
के अनेक दोष त्रुटियाँ दर्शाई गई हैं। इसलिये मैं हमेशा
आधुनिकता को परंपरा का नवीन संस्करण मानता हूँ, इसलिये मैं
उसे इसका नवकलेवर कहता हूँ।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –
आदिवासियों की मौखिक कविताओं के संग्रह, संरक्षण और अनुवाद
के लिये आप अपने नौकरी के जीवन में इतना समय किस तरह दे
पाए, जबकि आईएएस की नौकरी में तो पदभार वास्तव में ज्यादा
महत्त्वपूर्ण होता है।
कवि सीताकान्त महापात्र –
यह बात बिलकुल सही है कि आई.ए.एस. की नौकरी में पद ज्यादा
महत्त्वपूर्ण होता है और इसका दायित्व भी ज्यादा होता है।
मेरे सारस्वत जीवन के संदर्भ में इस नौकरी को लेकर पहले भी
अनेक बार सवाल पूछे गए हैं। सही अर्थों में, मैंने यह
प्रशासनिक सेवा की नौकरी एक सुयोग के रूप में ग्रहण की थी।
आई.ए.एस. होने के कारण समाज में जितने प्रकार के लोगों से
मिलने का मौका मिलता है, जितनी अलग-अलग समस्याओं का सामना
करना पड़ता है और फिर जितनी समस्याओं का मैंने समाधान किया
है, इतना किसी दूसरी नौकरी में संभव नहीं है। राजनैतिक
व्यक्तियों से लेकर वरिष्ठ अधिकारियों और समाज के सभी स्तर
के लोगों के सुख- दुख को नजदीकी से देखने का अवसर इसी
नौकरी से मिला। अनेक घटनाओं में मेरे ऊपर दबाव भी आया। मगर
मैं उन किसी बाहरी दबाव के वश में नहीं हुआ। मेरे टेबल पर
आई फाइलों को मैं यत्नपूर्वक पढ़कर अपने विवेकानुसार निर्णय
लेता था। इस नौकरी के माध्यम से दूसरों के दुख और अभाव-बोध
को समझने का सौभाग्य मिला। आदिवासी लोगों का जीवन के प्रति
जिस तरह अखंड दृष्टिकोण मिलता है, वैसा और कहीं देखने को
नहीं मिलता। उनके अनुसार मनुष्य, समाज, प्रकृति, ईश्वर सभी
इस जीवन के अंश विशेष हैं। जीवन का ऐसा सामग्रिक बोध और
देखने को नहीं मिलता। उस समय उनके मौखिक गीतों पर कार्य
करने के लिये मुझे दो बार होमी जहाँगीर भाभा फेलोशिप
प्राप्त हुई थी। पहली बार इस फेलोशिप को प्राप्त करते समय
मेरे साथ थे– गिरीश कर्नाड, जे.पी.दास और फिल्म निर्माता
श्याम बेनेगल। दूसरी बार सीनियर फेलोशिप प्राप्त करते समय
मेरे साथ थी रोमिला थापर। फेलोशिप मिलने के बाद पूरे दो
साल छुट्टी लेकर मैंने यह कार्य किया था।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आप कविता कैसे लिखते हैं? कितना समय लगता है? एक बार लिखने
के बाद आप क्या दुबारा संशोधन करते हैं?
कवि सीताकान्त महापात्र -
कविता आवेग से पैदा होती है। यह आत्मा का अपना एक दस्तावेज़
होता है, इसलिये कविता किस तरह लिखी जाए, इसका कोई सीधा
उत्तर नहीं होता। कभी-कभी मन में आई हुई पहली पंक्ति को
मैं लिख देता हूँ, मगर आगे की और पंक्तियाँ नहीं लिख पाता।
उस पहली पंक्ति के लिये कभी-कभी उचित योग्यतम दूसरी पंक्ति
पाने के लिये दीर्घकाल तक प्रतीक्षा तक करनी पड़ती है। मैं
कभी-कभी एक ही बार में सारी कविता लिख देता हूँ। मगर जब
मुझे लगता है, जो मुझे कविता में कहना था, नहीं कह पाया तो
मैं उसे वहीं छोड़ देता हूँ। लगभग चार-पाँच महीने के बाद
फिर से मैं उस कविता की ओर लौट आता हूँ। दूसरी तरफ जब मुझे
लगता है कि जब मैंने अपनी कविता में ठीक-ठीक लिख दिया है
तो और मैं उसके साथ छेड़खानी नहीं करता। लंबी कविता के लिये
कई शृंखलाओं का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिये उनकी रचना में
मुझे अधिक समय लगता है। लेखन के बाद उसमें कुछ संशोधन करने
पड़ते हैं। कभी-कभी बिना किसी संशोधन के कविता चल जाती है।
इसलिये इस प्रश्न का संक्षिप्त उत्तर मैं कह सकता हूँ
“मैं प्रतिक्षण कविता लिखता हूँ”
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –
आपके साथ इतने लंबे समय से चल रही वार्तालाप के दौरान
मैंने पाया कि आप पढ़ने के ऊपर विशेष ज़ोर देते हैं कि लेखन
कार्य में व्यय हो रहे समय की तुलना में पाँच गुना ज्यादा
पढ़ना चाहिए। इस तरह समय का भाग-बँटवारा किया जा सकता है?
कवि सीताकान्त महापात्र –
मेरी लाइब्रेरी तो आपने देखी है। लगभग १५ हजार के आसपास
किताबों का संग्रह है। विगत कुछ सालों से मैं अलग-अलग
संस्थाओं को किताबें दान दे देता हूँ। बहुत पहले से ही मैं
पढ़ने पर विशेष ज़ोर देता हूँ। छात्र जीवन से ही रेवेन्सा
कॉलेज की ईस्ट हॉस्टल में रहते समय, जब ग्यारह बजे लाइट
बंद करने का नियम था, इस दौरान मैंने अनेक पुस्तकें पढ़ीं।
जैसेकि काम्यू का उपन्यास ‘द प्लेग’ मैंने उस समय पढ़ लिया
था।
केवल साहित्य ही नहीं इतिहास, दर्शन, संस्कृति, नृत्य तथा
अनेक अन्य विषयों पर आधारित पुस्तकें मुझे अत्यंत ही प्रिय
लगती थीं। आपको यह जानकार खुशी होगी कि टाइम्स लिटरेरी
सप्लीमेंट ने इस शताब्दी की सबसे अधिक प्रभावशाली पुस्तकों
की सूची प्रकाशित थी। २०१० मसीहा की प्रकाशित इस सूची में
से ८५ किताबें मेरी पढ़ी हुई थीं। किताबें पढ़ना मेरा सबसे
बड़ा शौक है। किताबें मेरी सर्वश्रेष्ठ संपत्ति हैं।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –
हकीकत में भारतीय साहित्य जैसी कोई चीज है? संविधान की
अष्टम सूची में स्वीकृत २२ भाषाओं के अलावा कुछ अन्य
भाषाओं को जोड़ने का दबाव बन रहा है। प्रत्येक भाषा का अपना
साहित्य संस्कृति आपस में अलग होने के कारण भारत के समूचे
साहित्य की पहचान नहीं बन पाती है, जिस वजह से नोबेल
पुरस्कार भी नहीं मिल पाते हैं। इस विषय पर आप कुछ प्रकाश
डालें।
कवि सीताकान्त महापात्र –
सारे यूरोप में जितनी भाषाएँ हैं, उनसे कई गुना अधिक
भाषाएँ भारत में है। अपने-अपने अंचलों में, भले ही, इन
भाषाओं के साहित्य का प्रचार-प्रसार हो जाता हो, मगर उनका
प्रभाव विश्व साहित्य के दरबार में अनुभव नहीं किया जा
सकता है। हमारे देश में अलग-अलग भाषाओं पर वाद-विवाद पैदा
होने के कारण एक अस्वस्थ वातावरण का निर्माण हुआ है।
प्रादेशिक भाषाओं के बीच आपसी असहिष्णुता पैदा होने की भी
समस्या है।
सारी भारतीय भाषाओं में केवल बंगला और तमिल भाषा में हुए
शोध कार्य संतोष जनक है। अगर उच्चकोटि की साहित्यिक
पुस्तकों पर उत्तम शोधकार्य के साथ उनका अनुवाद नहीं होता
है तो उनका मूल्यांकन कैसे किया जा सकेगा? एशियाई देशों
में भी चीन को दो बार तथा जापान को तीन बार साहित्य के
क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, मगर १९१३ में
रवीद्र नाथ टेगोर की गीतांजली के बाद सौ वर्ष से अधिक समय
बीत जाने के बाद भी किसी भारतीय को नोबेल पुरस्कार मिलने
का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है।
विश्व स्तर पर भारतीय साहित्य की उत्साहजनक स्थिति के लिये
उच्चकोटि का अनुवाद होना ही यथेष्ट नहीं है, वरन उन
पुस्तकों के प्रकाशकों का भी वैसा ही स्तर होना चाहिए,
जिनके पास विश्वव्यापी प्रसारण व विक्रय के नेटवर्क हों।
शायद यही कारण है कि स्पैनिश भाषा के साहित्य को सबसे
ज्यादा नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुए, तथा अंग्रेजी दूसरे
स्थान पर रही।
पाबलों नैरुदा का नाम लगभग दस बार नोबेल तालिका में चयन
होने की सूचना मिलते ही अंतिम पादान में नाम कटने की खबर
मिलती। इस तरह लगातार हर वर्ष चर्चा में रहते-रहते अंत में
विजयी हो गए। नोबेल पुरस्कार के लिये पूर्व नोबेल पुरस्कार
विजेताओं की सिफ़ारिशों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है,
जिसे प्राप्त करना इतना सहज नहीं है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –
ओडिया भाषा की शास्त्रीय मान्यता पर आप अपना विचार रखना
चाहेंगे?
कवि सीताकान्त महापात्र -
ऐसी सरकारी मान्यता से क्या मिलेगा? आप तो सत्यनगर में
घूमते-घूमते मेरे घर पहुँचे हो। किसी घर के दरवाजे पर
ओड़िया भाषा में लिखा हुआ कोई नाम देखा है? इस भाषा को जिन
लोगों की मान्यता की जरूरत है अगर वे लोग अपना मुँह फेर
लेते हैं तो सरकार द्वारा प्रदत्त शास्त्रीय मान्यता के
मुकुट का क्या अर्थ है। ओडिया भाषा को शास्त्रीय मान्यता
क्यों मिली – उसके लिये चल रही प्रतिद्वंद्विता तो अभी तक
रुकी नहीं है। देखा जाएगा आगे क्या होगा, अभी तो केवल
इंतजार किया जा सकता है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –
आपके प्रिय लेखक कौन-कौन है? विदेशी लेखकों में भी?
कवि सीताकान्त महापात्र –
भागवतकार जगन्नाथ दास, महाभारतकार सारला दास को मिलाकर
गोपीनाथ मोहंती मेरे प्रिय साहित्यकार है। विदेशी
साहित्यकारों में काम्यू, सार्त्र की रचनाएँ मुझे अच्छी
लगती है। अल्बर्ट काम्यू द्वारा लिखित लगभग सारी पुस्तकों
का अनुवाद मैंने पढ़ा है, मगर मेरे साहित्यिक जीवन पर किसी
भी विदेशी लेखक का खास प्रभाव नहीं है। विदेशी कवियों में
आक्टो वियो पाएज मेरे पसंदीदा कवि हैं। मैंने उन्हें भी
खूब चाव से पढ़ा है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आपकी विगत पचास सालों से चली आ रही साहित्यिक यात्रा बहुत
लंबी है। अनेक किताबें,अनेक पुरस्कार,गहन अनुभव और प्रगल्भ
ज्ञान इस आधी शताब्दी के भीतर आपके जीवन में प्राप्त हुआ
है। क्या फिर मन में किसी चीज का अवशोष बाकी है कि कुछ रह
गया है ?
कवि सीताकान्त महापात्र –
मेरी यह यात्रा जितनी लंबी है, उतनी ही उपभोग्य भी। इस
जीवन काल के दौरान मैंने काफी अभिज्ञता अर्जित की है।
प्राप्त किया है अनवद्य अनुभव। बहुत सारे लोगों की
श्रद्धा, स्नेह और प्रेम से मैं पूरी तरह सराबोर हुआ। मेरा
किसी प्रकार का अवशोष नहीं है। मेरे सामर्थ्य के अनुरूप
जितना संभव हुआ, मैंने उसे किया।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल -
आपके जीवन में ऐसा कोई दुःखद अनुभव है जिसे आप भूल नहीं पा
रहे हो। अगर कोई आपत्ति न हो तो कृपया बताएँ।
कवि सीताकान्त महापात्र-
मेरे छोटे भाई ताराकान्त की असामयिक मृत्यु मेरे जीवन की
सबसे ज्यादा दुःखद घटना है। वह मुझसे छह साल छोटा था मैंने
उसे अपने हाथों से पढ़ाया, इंसान बनाया। आई.आई.टी. से
इंजीनियरिंग करने के बाद वह अपने काम में व्यस्त था। अचानक
हार्ट अटैक से उसकी मृत्यु हो गई। यह दुख अभी भी मेरे सीने
में ठहरा हुआ है।
डॉ.प्रसन्न कुमार बराल –– ‘श्रद्धा’ (कवि
सीताकान्त के घर का नाम) के भीतर अब समय कैसे कट रहा है?
कवि सीताकान्त महापात्र–
मैं यहाँ अच्छा हूँ। शरीर भी अब स्वस्थ है। लेखन-पठन
नियमित बना रहता है।
१५ सितंबर
२०१६ |