कुमाऊँनी पर्व सातूँ आठूँ
-
ज्योतिर्मयी पंत
सामाजिक प्राणी होने के कारण मनुष्य आदिकाल से ही अपने
सुख दुःख में अपने परिजनों का साथ चाहता है। खुशी बाँट
कर मनाना चाहता है। संभवतः इसी उद्देश्य से विभिन्न
त्योहार और पर्व मनाने की परम्परा चली हो। घर-परिवार,
समाज, धर्म, ऋतुओं और राष्ट्र पर आधारित विविध त्योहार
हम मनाते हैं। देव-भूमि कहे जानेवाले उत्तराखंड में
ऐसा ही एक पर्व है सातों-आठों या सातूँ-आठूँ। भाद्रपद
मास में अमुक्ताभरण सप्तमी को सातूं, और दूर्बाष्टमी
को आठूं मनाया जाता है। भाद्रपद मास में सातूं-आठूं
कृष्ण पक्ष में होगा अथवा शुक्ल पक्ष में, इसका
निर्धारण पंचांग से अगस्त्योदय के अनुसार किया जाता
है। इस प्रकार यदि यह पर्व कृष्ण पक्ष में निर्धारित
हुआ तो कृष्ण जन्माष्टमी के साथ और यदि शुक्ल पक्ष में
हुआ तो नंदाष्टमी के साथ मनाया जाता है।
पिथौरागढ़ में यह पर्व बहुत उल्लास से मनाया जाता है।
ऐसा माना जाता है कि इस दिन माँ पार्वती अपने मायके
आती है और दूसरे दिन शिव भगवान आते हैं। माँ पार्वती
का मायका हिमालय माना जाता है। बेटी के घर आने पर
उल्लास और उत्सव का माहौल होता है। उनका स्वागत, पूजन
होता है और बाद में विदाई समारोह।
परंपरा के अनुसार पंचमी के दिन, जिसे बिरुड़ पंचमी कहा
जाता है। पीतल के बर्तन में पाँच प्रकार के अनाज
भिगोये जाते हैं। इन्हें बिरुड़ कहा जाता है। इन्हें
कपड़े की पोटलियों में बाँध कर भिगोया जाता है।
पोटलियों के ऊपर पाँच, सात या ग्यारह दूब के तिनके
बाँधे जाते हैं। जिन्हें महिलाएँ सप्तमी के दिन पूजा
में प्रयोग करती हैं। खेतों से मौसमी फसल के पौधों से
गौरा की आकृति बनाई जाती है। उन्हें खूब सजाया जाता
है। उन्हें सुन्दर डलिया या टोकरी में घर लाया जाता
है। महिलायें सज धज कर उन्हें सर पर रखकर लाती हैं।
गौरा देवी को घर के पूजा स्थल या मंदिर में स्थापित
किया जाता है। महिलाएँ पूजा के समय ही पहले भिगोये
अनाज की पोटलियों को गीत गाती हुई खोलती हैं और थाली
में रखती हैं। सभी अपनी अपनी थालियों को आँचल से ढक कर
एक दूसरे के हाथों में देती हैं। घर की लड़कियाँ-ननदें
इन को छुपाती हैं बाद में भाभियाँ उन्हें ढूँढ के लाती
हैं। इन अन्न के दानों को हीरे मोती कहा जाता है। बाद
में कुछ अनाज के दाने और मौसमी संतरा, सेव, आँवला,
नाशपाती आदि फलों को एक पिछौड़े या वस्त्र में लेकर
उछाला जाता है। कुँवारी कन्याओं के आँचल में यदि ये
गिरे तो सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है। मान्यता है
कि उनका विवाह शीघ्र हो जाता है। इस अवसर पर महिलाएँ
अपने पारम्परिक परिधान और गहने पहनती हैं। नृत्य और
गायन होता है। इसी दिन स्त्रियाँ धागे में सात गाँठें
बाँध कर बाजू में पहनती हैं। इसे ''डोर'' कहते हैं।
इसे सुख-सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है और पति की
लम्बी आयु की कामना की जाती है। इस दिन आग में पका हुआ
गरम खाना नहीं खाया जाता।
अगले दिन इसी तरह कुछ विशेष पौधों से शिव जी की आकृति
बना कर उन्हें लाया जाता है और देवी के साथ प्रतिष्ठित
किया जाता है। देवी को पुत्री के रूप में मायके में
भरपूर स्नेह दिया जाता है और शिव शंकर का दामाद के रूप
में सम्मान और पूजन किया जाता है। अनाज, धतूरे और
फल-फूलों से उनकी नियम से पूजा की जाती है, और उनसे
संबंधित लोक गीत गाए जाते है। एक गीत में पार्वती पेड़
पौधों से अपने मायके का पता पूछते हुए कहती है- ‘‘बाटा
में की निमुवा डाली म्यर मैत जान्या बाटो कां होलो’’
अर्थात् राह के नींबू के पेड़, मेरे मायके का रास्ता
कौन सा है, इसके उत्तर में नीबू का पेड़ कहता
है-‘‘दैनु बाटा जालो देव केदार, बों बाटा त्यार मैत
जालो’’ अर्थात् दांया रास्ता केदारनाथ की ओर जाता है,
और बांया रास्ता तुम्हारे मायके की ओर जाता है। झोड़ा
चांचरी और खेल के द्वारा भी विशेष गायन होता है। देव
डंगरिये भक्तों को रोली अक्षत लगाकर आशीर्वाद देते है।
चार पाँच दिन के बाद उनकी विधिवत विदाई की जाती है।
उन्हें फिर से टोकरियों में सर पर रखकर किसी पवित्र
जलधार में विसर्जित किया जाता है। विदाई का यह समारोह
इतना भाव पूर्ण होता है कि महिलाओं की आँखों में आँसू
भर आते हैं वे उसी तरह रोने लगती हैं मानों अपनी बेटी
को विदा कर रही हों।
मुक्ताभरण सप्तमी और दूर्वाष्टमी-
भाद्रपद माह की इसी अष्टमी को महिलायें मुक्ताभरण
सप्तमी का व्रत भी करती हैं। संतान प्राप्ति और संतान
की कुशल क्षेम के लिए यह महत्त्व पूर्ण व्रत है। कहा
जाता है कि एक बार श्री कृष्ण ने युद्धिष्ठिर को इस
व्रत की महत्ता बताई थी कि किस तरह प्राचीन समय में
महर्षि लोमश ने मथुरा आकर देवकी और वसुदेव को भी अपनी
संतानों के विछोह के दुख से मुक्त किया था। अयोध्या के
राजा नहुष और उनकी पत्नी की कथा भी सुनाई थी। इस दिन
शिव पार्वती और कृष्ण की पूजा की जाती है। सोने, चाँदी
या रेशम के सूत्र में सात गाँठे लगाकर पहनने का विधान
भी बताया। इस व्रत के दूसरे दिन दूर्वाष्टमी का व्रत
किया जाता है। दूब की तरह वंश के फैलने की कामना से ये
व्रत किया जाता है। दूब पवित्र होती है और सामान्य
अवस्था में पनप जाती है और सर्वत्र फ़ैल जाती है।
उत्तराखंड में महिलायें इस व्रत को बड़ी श्रद्धा से
करती हैं। व्रत में पूजा विधि विधान से करने के साथ
साथ वे एक लोक कथा भी कहती सुनती हैं। जिनमें महिलाओं
के मातृत्व भाव और संतान की रक्षा का भाव परिलक्षित
होता है।
बिणभाट की कथा-
यह
कथा एक महिला सुनाती है और सभी महिलायें प्रत्युत्तर
में हामी भरती जाती हैं। कथा कुछ इस प्रकार है-
प्राचीन समय में बिण भाट नामक राजा था। उसकी सात
रानियाँ थीं। पर निःसंतान होने से वह बहुत दुखी रहता
था। कालांतर में सबसे छोटी रानी गर्भवती हुई। राजा उसी
रानी को विशेष प्रेम करता था। अन्य रानियों को बहुत
ईर्ष्या होने लगी। छोटी रानी ने जब संतान को जन्म दिया
तो अन्य रानियों ने एक चाल चली। उन्होंने छोटी रानी से
कहा कि उसकी माँ बहुत बीमार है। उन्होंने उसे बुलाया
है अतः उसे उन्हें देखने ले लिए जाना चाहिए पता नहीं
वो जीवित रहे या नहीं। रानी बच्चे को घर पर ही छोड़
अपनी माँ से मिलने चली गयी। वहाँ जाकर उसने देखा कि
माँ तो बिलकुल स्वस्थ है। माँ से पूछने पर पता चला कि
उसने कोई सन्देश भेजा ही नहीं था। वह समझ गयी कि यह
उसकी सौतों का षड्यंत्र है। उसने अपनी पुत्री को वापस
लौटने को कहा। इस बीच छहों रानियों ने अपनी योजना के
अनुसार बच्चे को एक नौले (बावड़ी) में फेंक दिया। वह
रानी दुखी मन से घर लौटी। घरवालों ने उसे बताया कि
उसके कोई संतान नहीं हुई थी उसने एक शिलाखंड को जन्म
दिया था। रानी दुखी होकर इधर उधर घूमने लगी उसे प्यास
लगी तो वह उस बावड़ी से पानी पीने के लिए झुकी तो उसे
वहाँ एक बालक दिखाई दिया उसने माँ के हार को पकड़ लिया
रानी ने उसे बाहर निकाल लिया। कुछ लोग ऐसा भी कहते हैं
कि रानी ने दूब घास की रस्सी बनाकर उस बच्चे को
निकाला। तभी से इस व्रत में महिलायें दूब की लम्बी
जड़ों को धागे की तरह पहनती हैं जिसे "दुबज्यौड़'' कहा
जाता है। आधुनिक समय में स्त्रियाँ धागों से बनी कंठी
या गंडे को धारण करती हैं।
कुल
मिलाकर यह पर्व भी जनमानस
के व्यस्त जीवन में हर्षोल्लास, प्रकृति प्रेम और
आस्था का प्रतीक बनकर आता है और हमें संबंधों में
संवेदना की गहराई का अनुभव कराकर चला जाता है।
१ सितंबर
२०१६ |