एक थी बिन्नो, उसके बचपने
में देखा था उसे...साँवले दुबले तन पर मैले-कुचैले चिथड़े, तेल
चिपुड़े बालों की कस कर गुंथी चोटी और उसमें लगे लाल रिबन,
आँखों में लिपा ढेर सारा काजल, माथे के बीचों-बीच बडा सा काला
टीका, तुनक भरी चाल, खीजती आँखेँ, झल्लाये बोल... लगा ही नहीं
था कि जीवन के संघर्षों में जूझती-पिसती स्त्री की सी
भावभंगिमा लिये यह लड़की महज आठ-नौ साल की है।
एक दिन घर के बाहर बैठी थी
"बिन्नो जरा साबुन तो पकड़ा दे",
नल पर कपड़े धो रही माँ ने पुकारा, मगर खेलने में मस्त बिन्नो
कहाँ सुनने वाली थी। माँ का दिमाग गरमाया तो पास पड़ा एक कंकर
उठा कर उसकी पीठ पर दे मारा..
“क्या है जब देखो तंग करती रहती है, दो घड़ी सुकून से खेल भी
नहीं सकते इस घर में",
कह कर बिन्नो धाँय-धाँय कर रोने लगी।
कंकर छोटा था चोट लगने की कोई गुंजाइश नहीं थी, फिर भी उसका
यों गला फाड़-फाड़ कर रोना...माँ घबरा गई और उसे पुचकारने लगी।
कभी कभी बिन्नो जरा-जरा सी बात पर ऐसा तूफान खड़ा कर देती कि
माँ हैरान रह जाती। नन्हें से दिल में ना जाने कितना स्याह
गुबार समेट रखा था उसने जो जब-तब यहाँ-वहाँ उबलता गिरता रहता
और कभी कभी... बड़ी से बड़ी बात में दम साधे ऐसी जम जाती जैसे
जमीन में धँसा पेड़।
वैसे बड़ी-बड़ी बातें तो बड़े-बड़े शहरों में बड़े-बड़े घरों में
होती हैं, उसके टीन-टप्पर जोड़ कर जस-तस खड़े किये गये खोलीनुमा
ढाँचे में तो रोजमर्रा की आम घटनाएँ ही घटती थीं, मसलन बाप का
लगभग रोज रात को देर से पी कर आना, माँ से गाली-गलौच, मारपीट
करना, माँ का टसुवे बहाते, पल्लू से नाक पोंछते, मरियल सी
सिसकियाँ लेते हुए घर के काम-काज और सिलाई करना।
घर में बिन्नो का जरा भी मन न लगता...जब से पिछले बरस उसका चार
साल का भाई तेज बुखार में चल बसा तब से उसे घर काटने को दौडता,
घर में उस नन्हें-मुन्ने की यादें बिखरी पड़ी थीं। उसका जान से
प्यारा मुन्ना इतनी आसानी से उसके हाथ से कैसे छूट गया, अब तक
वह इस सदमे से बाहर नहीं निकल पाई थी। घर से बाहर भटकने के
बहाने ढूँढा करती, कभी पास-पड़ोस की लड़कियों के साथ ऊधमबाजी
करती तो कभी कहीं-कहीं से जमा की गई टमाटर, करेले, गेंदे,
गुलाब की पौधों को घर के आगे बची कच्ची जमीन में रोपती। उनको
बढ़ता, फलता-फूलता देखने में उसे बहुत सुकून मिलता। जब उसकी
रोपी टमाटर की पौध पर पहला टमाटर निकला तो उसे उतनी ही खुशी
हुई जितनी किसी औरत को बच्चा जन कर पहली बार उसका मुँह देखने
पर होती है।
बाप पास की एक पॉश कालोनी में साफ-सफाई का काम करता था, जो कुछ
कमाता दारूबाजी में हवा हो जाता। माँ पास-पडोस के लिए सिलाई कर
और दो घरों के बर्तन माँज घर की रोटी का जुगाड़ करती थी। पिछते
साल से बिन्नो का स्कूल जाना छूट गया था, उसकी पढ़ाई-लिखाई पर
एक रूपया भी खर्च करना उसके बाप को फिजूलखर्च दिखता...माँ भी
उसकी कोई जरूरत नहीं समझती थी, उसका सोचना था कि लड़की जात चाहे
पढ़-लिख भी जाये मगर खटना तो चूल्हे-चौके में ही है ना... वैसे
भी आजकल तो पढ़े-लिखे जन लाटसाहब बने बेकार ही घूमते हैं। नौकरी
मिलती नहीं और दिमाग इतने बड़े हो जाते हैं कि हाथ के कामकाज से
भी जाते हैं। माँ चाहती थी कि बिन्नो उसके साथ लग कर घर के काम
सीखे साथ ही सिलाई-बुनाई में भी हाथ साध ले ताकि अगर आगे खसम
भी बाप जैसा मिला तो कम से कम अपना और बच्चों का पेट तो भर
सकेगी।
जब दूसरी बार बिन्नो को देखा था तो सोलह की हो चली थी। कद ताड़
की तरह खिंच गया था, गुरबत के बावजूद यौवन चढ़ आया था, नैन नक्श
निखर गये थे मगर चेहरे पर छाई खीज और मुर्दानगी ने अभी भी पीछा
नहीं छोड़ा था। दिमाग काफी चलने लगा था, बाप के सितम झेलती माँ
को पीठ पीछे खूब चढ़ाती, "क्यों झेलती है ये सब तू ...मार क्यों
नहीं भगाती उस स्याले को... हमारा पेट तेरी कमाई से भरता है,
घर भी तू ही चलाती है, फिर क्यों उसके जूते चाटती है..."
"ऐसा मत बोल बिन्नो जो भी हो वो तेरा बाप है।"
"बाप काहे का... गोद में बच्चा डालने से बाप हो जाता है
क्या... सारी कमाई अय्याशी में उड़ा देता है, फूटी कौड़ी नहीं
देता है घर में और खाने के बखत बराबर चला आता है ससुरा... बाप
होता तो मुन्ने की बीमारी में बखत से दवा-दारू कर उसे बचा ना
लेता... हमारे मुन्ने को वही खा गया हरामजादा... "
"बिन्नो बस कर...", माँ कान पर हाथ रख चिल्लाती।
माँ उसके उग्र तेवरों से चिंतित थी। भीतर से तो उसे बिन्नो का
अपने बाप को गालियॉ बकना जरा भी बुरा ना लगता, कहीं ना कहीं
उसे भी दिल में ठंड पड़ती, फ्रिक तो उसे इस बात की थी अगर
बिन्नो ने मर्द के जुल्म के प्रति स्वीकार भाव कायम ना किया तो
आगे उसकी गृहस्थी कैसे चलेगी? अपने तीखे तेवरों की वजह से उसे
मुझसे भी ज्यादा गालियाँ और मार सहनी पड़ेगी। माँ उसे सीता के
जमाने से चली आ रही स्त्रियों की स्थिति को ‘जगत के चलन’ के
नाम पर "ऐसा ही होवे हैं..." कह कर समझाती मगर बिन्नो को तो एक
ही बात समझ आती थी कि अगर जो कोई स्याला तुझ पर हाथ उठाये तो
तू उसकी कमर तोड़ डाल भले ही वो तेरा खसम क्यों ना हो।
उनकी छोटी सी खोली में दिन चींटी की चाल से घिसट रहे थे। माँ
अक्सर बीमार रहने लगी थी। भाई को खो कर माँ के खो जाने के डर
से घबराई बिन्नो ने सिलाई मशीन किसी कुशल कारीगर की तरह सम्भाल
ली। उसके हाथ में गजब की सफाई थी। अच्छे पैसे बनने लगे थे, वो
इस बार माँ की दवा-दारू के साथ कोई कोताही बरतनी नहीं चाहती
थी।
वह कयामत की रात थी। दूजा पहर चढ़ चुका था, बाप बाहर खड़ा दरवाजा
खटखटा रहा था।
भीतर बिन्नो माँ को दरवाजा खोलने नहीं दे रही थी... "सड़ने दे
उसे बाहर...ये हमारा घर है धरमशाला नहीं कि जब जी चाहा मुँह
उठाये चला आये...", बिन्नो की गुस्सैल आँखों से डरी माँ चाह कर
भी दरवाजा नहीं खोल पाई। थोड़ी देर बाद खटखट बन्द हो गई। बिन्नो
भी विजयी मुस्कान लिये सो गई, मगर आने वाले तूफान से डरी सहमी
माँ ने रात आँखों में जाग कर काटी। सबेरे तड़के वापस से खटखट
शुरू हुई। पहले से तेज, जोरदार...। माँ ने भाग कर दरवाजा खोला
तो जो गालियों लातों-घूसों की बौछार शुरू हुई कि पूछो मत...।
माँ पिट रही थी और बिन्नो हमेशा की तरह दम साधे सब देख रही थी।
उसकी नसें फडक रही थीं, खून उबल रहा था, उसकी नजरें रह रह कर
दीवार से सटे खड़े एक लट्ठ पर जा रही थीं, भीतर से कोई कह रहा
था, उठा ले इसे और तोड़ डाल कमर उस स्याले की जो तेरी माँ को
धान की तरह कूट रहा है। मगर ना उसके हाथ बढ़े, ना ही चकर-चकर
चलने वाली जबान से कुछ फूटा।
माँ के लिए तो यह कोई नयी बात नहीं थी, कुछ दिनों बाद उसने बात
आई गई कर दी मगर उस दिन के बाद से बिन्नो को जैसे साँप सूँघ
गया। उसकी करनी की सजा उसकी माँ ने भुगती, ये गम उसे घुन की
तरह खाए जा रहा था। सारा वक्त दिमाग में एक ही बात घूमती रहती,
क्यों उस दिन लट्ठ उठा कर बाप की हड्डियाँ नहीं तोड़
डालीं...कैसे वो सिर्फ कागजी शेर बन कर रह गई।
बिन्नो ने माँ को भड़काना छोड़ दिया था बस चुपचाप उसके कामों में
हाथ बँटाती थी...माँ भी खुश थी चलो उसके पिटने की कीमत पर ही
सही मगर बिटिया को जगत के चलन की अकल तो आई। अब तो बस उसे
बिन्नो के हाथ पीले करने की चिन्ता थी पर इससे पहले कि माँ कोई
ढँग का लड़का देखती, बाप एक बढ़ई रामदीन से उसका रिश्ता पक्का कर
आया। ब्याह के खर्च का वास्ता देकर जो रकम रामदीन से हाथ लगी
थी वह बाप ने अपनी अंटी में खोंस ली।
रामदीन कहीं से भी ऐसा नहीं था जिसके साथ फेरे लेने का खयाल
बिन्नो के दिल में गुदगुदी पैदा करे। उम्र में लगभग दुगना,
मोटा काला साँड जैसा, पान तम्बाखू से सड़े दाँत... सुनने में
आया था कि गुस्से में तो बिन्नो के बाप का भी बाप है...इसिलिए
पहली बीवी जल्दी ही छोड़ भाग खड़ी हुई थी। बिन्नो के बाप से उसका
दारू के अड्डे पर ही याराना हुआ था, वहीं उसे पता चला था कि
रामदीन अपनी रोटी-पानी के लिए अदद लड़की ढूँढ रहा है और इसके
लिए वो ब्याह का पूरा खर्चा उठाने को भी तैयार है। माँ को अपने
ज्यादा दिन बचे नहीं दिखते थे वो बस अपने जीते जी बिन्नो को
उसके ठौर-ठिकाने पर लगा देखना चाहती थी। रोने-धोने,
रूठने-मनाने का कार्यक्रम निपटने के बाद बिन्नो चुपचाप सर
झुकाये रामदीन के घर आकर बैठ गई।
ना आँखों में सपने थे ना दिल में अरमान, दहकता लावा शान्त हो
कर बुझी राख में तब्दील हो चुका था। रगों में दौड़ता
आक्रोश..विद्रोही तेवर भीतर के किसी खामोश कोने में दफन कर
बिन्नो अपनी माँ का प्रतिरूप बन चुकी थी। खामोश आँखेँ, सूना मन
और हर वक्त कोल्हू के बैल की तरह पिसता तन, बस अब यही बची थी
बिन्नो।
रामदीन खाने-पीने का बड़ा चटोरा था, जरा सा नमक भी कम ज्यादा हो
जाये तो भरी थाली उठा कर फेंक देता था, इसी चक्कर में बिन्नो
का हाथ रसोई में भी सध गया। ब्याह को कुछ दिन गुजर जाने के बाद
रामदीन के हाथ खुलने लगे। अक्सर घर पी कर लौटता और टोकने पर
गाली गलौच करता। बिन्नो खामोशी से सब जुल्मो-सितम सह रही थी
मगर उसकी भी तो कोई सीमा होती है ना...और दो बरस बाद एक दिन वो
सीमा पार हो गई।
रामदीन देर से पीकर लौट दरवाजा पीट रहा था, बिन्नो को न जाने
क्या सनक सवार हुई उसने दरवाजा नहीं खोला...उसे पता था कि इस
दुस्साहस की सजा में उसका हाल उस दिन की तरह माँ जैसा या फिर
उससे भी बुरा हो सकता है, मगर फिर भी न जाने क्यों वो जैसे काठ
हो गयी। लगता था जैसे वो कयामत की रात खुद को दोहरा रही है...
सुबह तड़के जब रामदीन ने घर में घुस कर गाली-गलौच, मारपीट शुरू
की तो सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया, वो बिन्नो को खींच कर घर के
बाहर ले आया और सब तमाशबीनों के सामने लातों से कूटने लगा पर
यकायक बिन्नो में ना जाने कहाँ से गजब की फुर्ती आई कि उसने
पास के एक खोमचे में लगी त्रिपाल से बाँस निकाला और रामदीन पर
पलटवार किया। बस उस एक पल में बिन्नो के भीतर पैठ किये सारे
अवरोध हवा हो गये।
बचपन से लेकर अब तक का सारा जमा आक्रोश, नफरत, दर्द, कड़वाहट,
आज जैसे इकट्ठे हो उसके हाथों में उतर आये थे, उसकी ताकत बन
कर...जो उस लट्ठ के रूप में रामदीन के ऊपर दनादन बरस रहे थे।
तमाशाबीनों ने दाँतों तले उगलियाँ दबा लीं। किसी औरत का ऐसा
ताकतवर स्वरूप उस गरीब बस्ती में पहली बार देखा जा रहा था।
मर्द सहम गये थे, औरतों की जोश से मुट्ठियाँ भिंच गई थीं।
रामदीन को पस्त कर लड़खड़ाती बिन्नो किसी विजयी सूरमा की तरह चल
रही थी, शरीर पर चोटें, नील, सूजन थी, शायद एक-आध हड्डी भी
चरमराई थी। मगर उसे जैसे उनका जरा भी गुमान ना था। तब मैंने
पहली बार उसकी आँखों में चमक देखी थी, चेहरे पर हमेशा छाई रहने
वाली मुर्दानगी गायब हो चुकी थी, वहाँ से असीम सुख और संतोष
टपक रहा था, बरसों से दिल में दहक रही अदम्य इच्छा को शांत
करने का संतोष।
बिन्नो का ये रूप देख मुझे भी संतोष हुआ। मगर उसके भविष्य को
लेकर शंकाएँ भी पनप रही थीं। कहाँ जायेगी, क्या करेगी अब ये
बेचारी...। बेघर, बेसहारा, अकेली जवान औरत की क्या गत होती है
यह मुझे पता था। रेल की पटरी या किसी नदी-कूएँ में छलाँग...
जिन्दा रह गई तो जिस्म की ताक में घूमते भूखे भेडियों से
सामना...। मुझमें उसकी इस दुर्दशा को देखने की हिम्मत नहीं थी
इसलिए उस दिन के बाद मैंने बिन्नो को उसके हाल पर छोड़ उसका
पीछा करना बंद कर दिया।
कुछ साल यों ही गुजर गये। मैं बिन्नो को लगभग भुला ही बैठी थी।
अगर उस दिन छाबड़ा बाजार से ना गुजरती तो शायद बिन्नो से कभी
सामना भी ना होता। शारीरिक रूप से तो वो बिल्कुल बदल चुकी थी।
सूखे शरीर की जगह हष्ट-पुष्ट कद्दावर काया ने ले ली थी और
चेहरा भी अच्छा खासा भर गया था। शायद मैं उसे पहचान भी ना पाती
अगर उसकी आँखों में वो चमक, वो साहस ना दिखता जो आखिरी मुलाकात
में दिखाई दिया था। रामदीन की धुनाई करके पनपा बिन्नो का वह
दबंगई रौबदार व्यक्तित्व आज तक कायम था। मुझे यह जान कर बेहद
खुशी हुई कि तब उसने रेल की पटरी या नदी-कूएँ को नहीं चुना था
साथ ही महा आश्चर्य भी... कि आज बिन्नो एक ढाबा और सिलाई की
दुकान सफलता पूर्वक चला रही है।
मेरी जिज्ञासा बढ़ी तो खोज खबर के बाद पता चला कि उसकी बस्ती की
एक औरत की सहायता से उसे एक कोठी में काम मिल गया था।
रहना-खाना-पीना सब उधर ही था, काम कुछ ज्यादा नहीं था, एक
बुड्ढा-बुड्ढी थे बस उनकी देखभाल, खाना-पकाना करना था। उनके
पास चंदर नाम का नौकर भी था जो बाहर के काम-काज सम्भाला करता
था। चंदर की बीवी मर चुकी थी एक तीन-चार साल का बेटा था जो
अपनी नानी के पास रहता था। चंदर की आँख बिन्नो पर रहती मगर वो
तो अब कंटीला झाड़ बन चुकी थी, किसकी हिम्मत थी जो उसे छूने की
हिमाकत करता। तभी चंदर की सास गुजर गई और उसे अपने बच्चे को
साथ रखना पड़ा। सुबह सवेरे वो भी चंदर के साथ कोठी पर आ जाया
करता और रात तक उधर ही रहता।
बिन्नो का उस बच्चे से जुड़ाव बढ़ने लगा। वह उसका खयाल रखती,
उसके साथ खेलती, नींद आने पर गोद में सुलाती। बच्चे को जैसे
उसकी माँ मिल गई थी और बिन्नो को उसका प्यारा बिछड़ा भाई। दोनों
अपनी अपनी कमियाँ बाँट रहे थे। बच्चे के साथ ही सबने बिन्नो को
पहली बार हँसते खिलखिलाते देखा था।
बिन्नो के मालिक-मालकिन जब अपना सब कुछ बेच कर विदेश में बसे
बेटे के पास चले गये तो तीनों के सामने गम्भीर समस्या आ खड़ी
हुई। चंदर को बच्चे की परवरिश की चिन्ता थी और बिन्नो को बच्चे
का साथ छूटने का गम। एक दिन चंदर ने हिम्मत करके बिन्नो के
सामने शादी का प्रस्ताव रखा। मगर कहते हैं ना दूध का जला छाछ
भी फूँक-फूँक कर पीता है, बिन्नो के तो शादी के नाम से ही
रोंगटे खड़े हो गये और उसने साफ इंकार कर दिया। चंदर गिड़गिड़ाया,
बच्चे की परवरिश का वास्ता दिया तो बिन्नो ने कहा-
"बच्चे की देखभाल मैं खुशी से करूँगी मगर इसके लिए ब्याह नाम
का जहर पीना मंजूर नहीं। बस तब से दोनों में एक मूक समझौता हो
गया और बिन्नो चंदर के साथ रहने लगी।
चंदर बिन्नो की पाक कला का जबरदस्त मुरीद था, उसने इस बार कहीं
नौकर होने के बजाय अपना ढाबा खोलने की सोची। छोटी सी तंग गली
में जैसे तैसे जुगाड़ कर एक छोटा सा ढाबा खोला। बिन्नो के पाक
कौशल और चंदर की मेहनत के बल पर ढाबा खूब फूला फला, अच्छी कमाई
होने लगी तो ढाबा तंग गली से निकल कर मेन मार्केट में आ गया।
ढाबा अच्छे से चलता कर साथ वाली जगह पर बिन्नो ने अपनी देखरेख
में सिलाई, फॉल, पीको के लिए भी मशीनें और दो-चार कारीगर रख
लिये।
वह सारा दिन ढाबे से दुकान के बीच सत्तर चक्कर काट लेती, दोनों
जगह उसी का राज चलता, किसी कामगार की हिम्मत नहीं थी कि उसके
आगे चूँ भी करे, यहाँ तक कि चंदर की भी नहीं...। वैसे चंदर को
चूँ-चपड़ करने की जरूरत भी नहीं थी, उसका बैठे बिठाये धंधा पानी
चल रहा था, बिन्नो उसके बच्चे की माँ न होते हुए भी माँ से
ज्यादा प्यार दे रही थी, उसके लिए तो इतना ही बहुत था।
उन दोनों के सम्बंध के बारे में लोग पीठ पीछे बातें किया करते
थे। कहते थे बिन्नो चंदर की रखैल है, जरूर कुछ जादू
टोना किया
है जो वो उसकी उँगलियों पर नाचता है। सारा घर, बिजनेस सब उसी
के हवाले कर रखा है। सच झूठ का तो पता नहीं पर बिन्नो एक
गृहस्थन के सभी फर्ज पूरे कर रही थी, बस पति होने के नाम पर
पत्नी को गालियाँ बकने, मार पीट करनें का हक उसने चंदर को नहीं
दिया था।
बिन्नो जो चाहती थी वो पा गई थी। अपनी जिन्दगी अपनी शर्तों पर
जीने का हौसला और हक उसे मिल गया था। उसका सुखी संसार देख कर
मेरी तृप्त आत्मा से बस इतना ही निकला, सदा खुश रहो बिन्नो...।
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