अभिव्यक्ति-समूह : फेसबुक पर

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 १०. ८. २०१५

इस सप्ताह-

अनुभूति में-1
स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमारे जनतंत्र को समर्पित विविध विधाओं में अनेक रचनाकारों की रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- लगभग ३०० कैलोरी के व्यंजनों की शृंखला स्वस्थ कलेवा में, हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- छुँकी अंकुरित मोठ कचूमर के साथ

बागबानी में- आसान सुझाव जो बागबानी को उपयोगी और रोचक बनाने में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं-
२७- सब्जियों का सूप।

कलम गही नहिं हाथ में- अभिव्यक्ति के पंद्रहवें जन्मदिन का अवसर और नवांकुर पुरस्कारों की घोषणा

सुंदर घर- घर को सजाने के कुछ उपयोगी सुझाव जो घर के रूप रंग को आकर्षक बनाने में काम आएँगे- २७- चिक और चटाई का पारंपरिक सौंदर्य

- रचना व मनोरंजन में

क्या आप जानते हैं- आज के दिन- (१० अगस्त को) संगीतज्ञ विष्णु नारायण भातखंडे, राष्ट्रपति वाराह वेंकट गिरि, लेखिका कृष्णा अग्निहोत्री... विस्तार से

नवगीत संग्रह- में प्रस्तुत है- संजीव सलिल द्वारा डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' के नवगीत संग्रह- चीखती टिटहरी हाँफता अलाव का परिचय।

वर्ग पहेली- २४९
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल और
रश्मि-आशीष के सहयोग से


हास परिहास
में पाठकों द्वारा भेजे गए चुटकुले

साहित्य एवं संस्कृति में- स्वतंत्रता दिवस विशेषांक

समकालीन कहानियों में प्रस्तुत है भारत से
जयनंदन की कहानी- लोकतंत्र की पैकिंग

मुदित चंद्र अब गरीबी से पूरी तरह निकल आया था। कंपनी में उसने छोटी नौकरी से ही शुरुआत की। अब जब सैंतीस वर्ष पूरे हो गये तो उसके जीवन में काफी कुछ बेहतर हो गया। बेटी की नौकरी लग गयी। उसने मनपसंद लड़के से शादी कर ली। दोनों बेटों ने प्रतिष्ठित कॉलेजों से इंजीनियरिंग कर ली और बहुत ऊँची पगार वाली नौकरी भी ज्वाइन कर ली। उसकी अपनी तनख्वाह ४० हजार के आसपास पहुँच गयी। काफी पहले शहर के एक कोने में अपना घर बना लिया। अब कोई निजी जिम्मेवारी बची नहीं रह गयी। उसकी अपनी जरूरतें भी बहुत सीमित थीं। लेकिन एक सार्वजनिक जिम्मेवारी वह बराबर महसूस करता था। बहुत गरीबी और गुरबत से निकला था, फाँके और बेबसी के दिन उसने झेले थे, इसलिए इन हालात से गुजर रहे लोगों पर उसकी नजर बराबर बनी रहती थी। गाँव में दो-ढाई बीघे की मामूली खेती पर मजबूरी में टिके अपने चचेरे भाइयों की दुर्दशा उसे बराबर याद आती रहती। वह अपने सरप्लस पैसे में से कुछ उन्हें भेज दिया करता। पत्नी को ऐसा करना बिल्कुल पसंद नहीं था। आगे-
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शशि पुरवार का व्यंग्य
नेता जी का भाषण
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शशि पाधा का संस्मरण
शौर्य, संकल्प एवं साहस की प्रतिमूर्ति

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गोपीचंद श्रीनागर का आलेख
डाकटिकटों में राष्ट्र चिह्न
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पुनर्पाठ में अजय ब्रह्मात्मज का आलेख
हिंदी फिल्मों में राष्ट्रीय भावना

पिछले सप्ताह-

भीष्म साहनी के जीवन से
रोचक प्रसंग - भ्राताजी
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कृष्णा सोबती की कलम से
हम हशमत - भीष्म साहनी

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स्मृति की खिड़की से
आज के अतीत
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नाटक के नेपथ्य में-
हानूश का जन्म

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वरिष्ठ रचनाकारों की चर्चित कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में प्रस्तुत है भीष्म साहनी की कहानी वाङ्चू

तभी दूर से वाङ्चू आता दिखाई दिया। नदी के किनारे, लालमंडी की सड़क पर धीरे-धीरे डोलता-सा चला आ रहा था। धूसर रंग का चोगा पहने था और दूर से लगता था कि बौद्ध भिक्षुओं की ही भाँति उसका सिर भी घुटा हुआ है। पीछे शंकराचार्य की ऊँची पहाड़ी थी और ऊपर स्वच्छ नीला आकाश। सड़क के दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे सफेदे के पेड़ों की कतारें। क्षण-भर के लिए मुझे लगा, जैसे वाङ्चू इतिहास के पन्नों पर से उतर कर आ गया है। प्राचीनकाल में इसी भाँति देश-विदेश से आनेवाले चीवरधारी भिक्षु पहाड़ों और घाटियों को लाँघ कर भारत में आया करते होंगे। अतीत के ऐसे ही रोमांचकारी धुँधलके में मुझे वाङ्चू भी चलता हुआ नजर आया। जब से वह श्रीनगर में आया था, बौद्ध विहारों के खंडहरों और संग्रहालयों में घूम रहा था। इस समय भी वह लालमंडी के संग्रहालय में से निकल कर आ रहा था जहाँ बौद्धकाल के अनेक अवशेष रखे हैं। उसकी मनःस्थिति को देखते हुए लगता, वह सचमुच ही वर्तमान से कटकर आगे-

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