मुदित चंद्र अब गरीबी से पूरी
तरह निकल आया था। कंपनी में उसने छोटी नौकरी से ही शुरुआत की।
अब जब सैंतीस वर्ष पूरे हो गये तो उसके जीवन में काफी कुछ
बेहतर हो गया। बेटी की नौकरी लग गयी। उसने मनपसंद लड़के से शादी
कर ली। दोनों बेटों ने प्रतिष्ठित कॉलेजों से इंजीनियरिंग कर
ली और बहुत ऊँची पगार वाली नौकरी भी ज्वाइन कर ली। उसकी अपनी
तनख्वाह ४० हजार के आसपास पहुँच गयी। काफी पहले शहर के एक कोने
में अपना घर बना लिया। अब कोई निजी जिम्मेवारी बची नहीं रह
गयी। उसकी अपनी जरूरतें भी बहुत सीमित थीं। लेकिन एक सार्वजनिक
जिम्मेवारी वह बराबर महसूस करता था। बहुत गरीबी और गुरबत से
निकला था, फाँके और बेबसी के दिन उसने झेले थे, इसलिए इन हालात
से गुजर रहे लोगों पर उसकी नजर बराबर बनी रहती थी।
गाँव में दो-ढाई बीघे की मामूली खेती पर मजबूरी में टिके अपने
चचेरे भाइयों की दुर्दशा उसे बराबर याद आती रहती। वह अपने
सरप्लस पैसे में से कुछ उन्हें भेज दिया करता। पत्नी को ऐसा
करना बिल्कुल पसंद नहीं था। एक बार उसने उसकी औकात को मानो
अपने तराजू पर तौल दिया, "आप अपने आपको समझते क्या हैं? ऐसी
कौन सी बड़ी तनख्वाह है आपकी और कौन सी बड़ी पूँजी जमा कर ली है
आपने? शहर के सुनसान और अविकसित इलाके में अपना एक फालतू सा
राममड़ैया बना लिया है तो तीसमार खाँ नहीं हो गये आप? कौन रहेगा
उस घर में जाकर? हमें शहर की सबसे अच्छी जगह पर डुप्लेक्स
फ्लैट चाहिए। हमने कंपनी के इस अतिसाधारण फ्लैट में जीवन गुजार
दिया...अब जब हमारे दोनों बेटे कमाने लगे हैं तो कुछ तो शौक
पूरा कर लें। अब आपकी अल्टो-फल्टो कार भी मुझे नहीं सुहाती।"
मुदित चंद्र सन्न रह गया। आदमी अपना दुर्दिन कितनी जल्दी भूल
जाता है। गाँव से आयी यह औरत शुरुआती दिनों में सार्वजनिक नल
से पानी ढोती रही, लाइन में लगकर फारिग होती रही, कोयले के
चूल्हे पर खाना बनाती रही, एक कमरे के किराये वाले घर में दिन
गुजारती रही। आज उसे कंपनी का यह ठीक-ठाक सा फ्लैट खराब लग रहा
है। टीवी, कम्प्यूटर, माइक्रोवेव ओवन, फ्रीज, वाशिंग मशीन, गैस
चूल्हा, सोफा, एयरकंडीशन, कार आदि की सुविधायें भी उसे अधूरी
जान पड़ रही हैं।
मुदित जानता था कि वह सिलौटी देवी को समझा नहीं सकता। दोनों
बेटे उदार और उपकार माँ के ही समर्थक थे। चूँकि इन लोगों ने तो
अभाव कभी देखे ही नहीं थे। इनका ख्वाब अब जमीन पर नहीं आसमान
में करवटें ले रहा था। अपने पिता मुदित की दुनिया उन्हें बहुत
सतही और संकुचित लगती थी।
मुदित की इच्छा थी कि गाँव के अपने तंगहाल परिवार से किसी एक
जहीन लड़के को यहाँ लाकर अच्छी तरह पढ़ा-लिखा दें, ताकि वह काबिल
होकर अपने परिवार की स्थिति बदल सके। इस प्रस्ताव पर पहले तो
सिलौटी उखड़ गयी कि किसी पराये बच्चे की तीमारदारी उससे नहीं
होगी। दोनों बेटों ने भी उसे मोबाइल पर भाषण पिला दिया, "आपके
दिमाग में क्या अंट-शंट आता रहता है। माँ जीवन भर क्या यही सब
करती रहेगी, हम उसे घर में एक स्थायी नौकरानी रखकर आराम देने
को सोच रहे हैं और आप उसे जोते रखना चाहते हैं। हद हो गयी।"
मुदित ने तय किया कि इन लोगों से बिना कहे उस बच्चे के लिए
हरेक माह एक अच्छी रकम मनीऑर्डर कर देगा। वह ऐसा करने भी लगा।
कुछ ही माह बीते होंगे कि इसकी भनक सिलौटी को लग गयी। उसने खुद
तो झगड़ा किया ही बेटों से भी चुगली करके बात सुनवा दी। उपकार
की सलाह पर उसने मुदित के ज्वाइंट सैलरी एकाउंट के बैंक पासबुक
और एटीएम कार्ड अपने कब्जे में कर लिये। कहा, "आज से सारा
इंतजाम मैं देखूँगी। आपको अपनी जरूरत के लिए जितने पैसे चाहिए
होंगे, माँग लीजिएगा।"
मुदित उजबक की तरह उसका मुँह देखता रह गया। गाँव के बोरा छाप
स्कूल से महज सातवीं क्लास पास सिलौटी आज कितनी एडवांस हो गयी।
गाँव से यहाँ आकर साथ रहने के लिए वह उन दिनों कुछ भी शर्त
मानने को तत्पर थी। आज वह बेटों की शह पर न सिर्फ उसकी शासक बन
गयी बल्कि खुद को ज्यादा अक्लमंद भी समझने लगी।
एटीएम से वह खुद ही पैसे निकालती और उसे पाँच सौ रुपल्ली पकड़ा
देती, इस नोट के साथ कि "आपको खैनी-पान-सिगरेट आदि की लत तो है
नहीं, कभी-कभार पकौड़ी और फुचका पर आपकी लार टपक पड़ती है।
सब्जी-भाजी और सौदा-सुलुफ तो मैं ही करती हूँ। इतना तो आपके एक
महीने के लिए काफी होगा। गाड़ी में जब पेट्रोल भराना हो तो मुझे
बता दीजिएगा।"
महीने में दो-तीन बार ठेले से फुचका या पकौड़ी खाने में कितना
खर्च होता! तीन-साढ़े तीन सौ तो जरूर ही बच जाया करता।
मुदित को आते-जाते अनगिनत भिखमंगे रोज दिख जाते थे। इनमें से
कुछ तो बेहद लाचार-बेहद अपाहिज होते। घर में होने से भी बाहर
से माँगने की आवाजें आती रहतीं। ऐसे कितने अभागे, लाचार,
अपाहिज, भूखे, नंगे होंगे इस देश में? शायद लाखों-करोड़ों। इनकी
रायशुमारी या सर्वे किसी संस्था या सरकारी मशीनरी ने करने की
जरूरत नहीं समझी होगी। मुदित बहुत पहले से रोज सोचता आ रहा था
कि अपनी अच्छी तनख्वाह से कुछ पैसे इनके लिए भी निकालने चाहिए,
लेकिन बस सोचकर ही रह जाता। शायद ही वह महीने में पच्चीस-तीस
रुपया भीख में दे पाता होगा। किसी-किसी महीने तो यह अदनी राशि
भी खरचना मुमकिन नहीं होता। बाइक से या कभी कार से ऑफिस गये और
फिर वापस आ गये। सघन ट्रैफिक के बीच में रुककर कुछ करना उचित
नहीं लगता। कभी सरकारी उपेक्षा से खीजते हुए यह भी मन में आता
कि आखिर कितनों की मदद की जाये, कोई एक तो है नहीं।
मुदित को दो चार मिनट के लिए रोज एक अपराध बोध घेर लेता। वह
खुद को इनकी जगह रखकर देखता। उसके भी कोढ़ फूट जाते, उसका भी
कोई घर न होता, कोई तालीम न होती, कोई मददगार या रिश्तेदार न
होता तो...? गंदे, लावारिस, बेकार और बेपहुँच वाले किसी भूखंड
पर प्लास्टिक, तिरपाल, बोरे, गत्ते, पुआल, टिन, लकड़ी आदि से
सिर छुपाने का एक ठौर बनाता, जो कुछ ही दिन बाद सामूहिक
अगलग्गी का या फिर बुलडोजर का शिकार बन जाता। सरकार के किसी
खाते में या सूची में उसका नाम नहीं होता, अतः उसके लिए कोई
अनुदान नहीं, कोई योजना नहीं, कोई कार्यक्रम नहीं, कोई
व्यवस्था नहीं, कोई तारणहार नहीं। जानवरों से भी बदतर उसकी
खानाबदोश और यतीम जिंदगी को न कोई नागरिकता, न कोई अधिकार, न
उसका कोई भगवान। क्या इस तरह के लोग पुश्त दर पुश्त इसी हालत
में रहेंगे, कभी इनका कायाकल्प नहीं होगा?
मुदित अपने कोटे के बचे पैसे इन अभागों में वितरित करने लगा।
सिलौटी तक इस दानशीलता की खबर पहुँचने में कई महीने लग गये। जब
वह जान गयी कि श्रीमान बहुत बड़े राजा हरिश्चन्द्र बन रहे हैं
तो अगली बार से वह पाँच सौ में दो सौ घटाकर तीन सौ पर आ गयी।
साथ में यह फिकरा भी पकड़ा दिया, "रह-रहकर आप पर पुण्य कमाने का
दौरा क्यों पड़ने लगता है? कभी यह तो न हुआ कि दो-चार धाम जाकर
दर्शन कर आयें। बार-बार खीजती रही लेकिन आज तक कभी एक तीर्थ भी
ले जाना गवारा न हुआ। इस महँगाई में तीस-पैंतीस हजार कमाते हैं
तो बड़े धर्मात्मा बनने चले हैं, जैसे सारे भिखमंगों का इन्हीं
से उद्धार हो जायेगा। महीने में तीन-चार लाख कमाने वाला तो
इन्हें एक कौड़ी दान में नहीं देता।"
मुदित को सिलौटी के संभाषण की आखिरी पंक्ति गलत नहीं लगी।
सचमुच जो जितना कमाता है वह उतना ही काइयाँ होता है।
छोटे बेटे उदार तक जब सिलौटी ने यह संवाद पहुँचाया तो उसने
अपने सेल पर आधे घंटे का प्रवचन पिला दिया, "पापा, मैं चाहता
हूँ कि लोअर मिड्ल क्लास की जिंदगी से हम ऊपर उठकर दुनिया की
तमाम बड़ी सहूलियतों को हासिल करने में सक्षम हो सकें। आज तक आप
या मम्मी ने हवाई जहाज पर पाँव तक नहीं रखे, ट्रेनों में प्रथम
श्रेणी की यात्रा नहीं की। मेरी इच्छा है कि मैं आपलोगों को
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, स्विट्जरलैंड आदि
खूबसूरत देशों की यात्रा पर ले जाऊँ। पुणे, दिल्ली, मुंबई,
बंगलोर आदि महानगरों में हमारे फ्लैट हों। मैं और उपकार भैया
इसीलिए अच्छे पैकेज के मोह में बार-बार जॉब बदल रहे हैं। आप
जिस पैसे को सरप्लस समझ रहे हैं, वह सरप्लस नहीं है। आप जिस
तनख्वाह को बड़ी तनख्वाह समझ रहे हैं, वह बहुत तुच्छ है। आपकी
ही कंपनी में ऐसे सौ से ज्यादा उच्च अधिकारी होंगे जिनकी
तनख्वाह सालाना पचास लाख से ज्यादा होगी।"
इसके आगे उदार ने अनुदार होकर क्या कुछ कहा उसने कुछ नहीं
सुना। उसका ध्यान बस इसी एक बिन्दु पर अटक कर रह गया कि ऐसे सौ
से ज्यादा अधिकारी होंगे जिनकी तनख्वाह सालाना पचास लाख से
ज्यादा होगी...और ऐसे ठेकेदारकर्मियों की संख्या कितनी होगी,
जिनकी तनख्वाह महीने में दो हजार से भी कम है? ऐसे लोग पूरे
देश में कितने होंगे जिनकी आमदनी महीने में सौ रुपये भी नहीं
है? वह तो समझ रहा था कि जिम्मेवारी न हो तो एक छोटे शहर में
एक छोटे परिवार के लिए महीने का दस हजार ही काफी है।
आखिर क्यों लेते हैं लोग इतने-इतने पैसे? हजारों कंपनियाँ
होंगी, जिनमें ऐसे हजारों अधिकारी होंगे, जो इतनी मोटी तनख्वाह
ले रहे हैं। जनता के प्रतिनिधि कहाने वाले सांसद और विधायक
सरकार से सारी आलीशान सुविधायें लेकर भी अपना भत्ता और तनख्वाह
खुद से ही बढ़ाकर लाखों की रकम हर माह अपने खाते में भर रहे
हैं। हजारों-लाखों उद्योगपति, व्यवसायी, घोटालेबाज, ठेकेदार,
फिल्म स्टार, स्पोर्ट्स स्टार जो साल में करोड़ों की बचत कर रहे
हैं, क्या करते हैं वे इन मोटे पैसों का?...वही विदेश यात्रा,
बड़े शहरों में आलीशान कोठी, कार, ड्राईवर, नौकर-चाकर, गैजेट्स,
निवेश और फिर स्विस बैंक में डिपॉजिट। अनुमानतः इस तरह का एक
अमीर बराबर दस हजार गरीब।
अपनी कंपनी पर उसकी निगाह फैल गयी।
सत्तर हजार में चालीस हजार स्थायी कर्मचारियों की जबरन
स्वैच्छिक अवकाश देकर छँटनी। उनकी जगह दर्जनों ठेकेदारों का
निबंधन और फिर इनकी मार्फत असंगठित श्रेणी के चालीस-पचास हजार
सिखुआ-नवसिखुआ मजदूरों का प्रवेश। इनमें से बहुतों को कोई
साप्ताहिक अवकाश नहीं, खासकर सिक्युरिटी गार्ड का काम करने
वालों को। किसी भी कारण से नागा करने पर वेतन की कटौती। मतलब
इन्हें न बीमार पड़ने का हक, न कोई पारिवारिक जिम्मेवारी निभाने
का हक। इनकी पगार सूखा-सुक्खी एक हजार रुपये से लेकर अधिकतम
चार हजार। कंपनी की बचत और मुनाफे का ग्राफ तेजी से ऊपर। पहले
उत्पादन तीन से चार मिलियन टन और सत्तर हजार को आजीविका। अब
वार्षिक उत्पादन सात मिलियन टन और स्थायी कर्मचारी सिर्फ तीस
हजार। देखते-देखते विदेशों में कई और कंपनियों की खरीद और
ग्लोबल कंपनी का दर्जा हासिल। देश के कुछ और हिस्सों में ग्रीन
फील्ड स्टील प्रोजेक्ट लगाने हेतु एमओयू हस्ताक्षरित और
दलितों, वंचितों तथा छोटे किसानों को हटाकर भूमि अधिग्रहण का
काम शुरू।
काम कसाई का लेकिन चेहरा हातिमताई का। कंपनी के शीर्ष
दरबारियों, दलालों और ढिंढोरचियों द्वारा जन-कल्याण,
समाज-कल्याण और जनजातीय-कल्याण करने के सुर्खियों वाले बड़े-बड़े
खोखले दावे। काम के नाम पर सिर्फ ढोंग, दिखावा, खानापूरी,
स्थानीय असंतोष, नाराजगी व क्षोभ की आग पर पानी डालते रहने का
पाखंड। समाज सेवा के भारी-भरकम कागजी दिखावे पर आयकर में भारी
छूट तथा यूनेस्को, यूनीसेफ और यूएनओ से मोटी-मोटी अनुदान राशि
की खेपें। कितनी राशि आयी और कहाँ लगी, जनता को इसका कोई इल्म
नहीं।
अब तो सरकारी प्रतिष्ठानों का भी यही हाल। वहाँ भी छंटनी और
आउटसोर्सिंग का खेल जारी। लेकिन गाज सिर्फ मजदूरों पर।
अधिकारियों की ऊँची तनख्वाह पर कोई संकट नहीं। तीन हजार-चार
हजार रुपये के मासिक वेतन में पारा शिक्षक बहाल। जबकि स्थायी
शिक्षकों की तनख्वाह बीस हजार से लेकर चालीस-पचास हजार तक।
समान योग्यता और समान काम के लिए सौतेलेपन की यह असहनीय हद।
फिल्म-स्टारों को एक-एक फिल्म करने के करोड़ों की फीस, डेढ़-दो
मिनट वाले विज्ञापन में अपना चेहरा दिखाने के कई-कई करोड़।
इनमें स्पोर्ट्स स्टार भी शामिल। कहते हैं अमिताभ बच्चन और
शाहरूख खान एक विज्ञापन करने के जितने पैसे लेते हैं, उतना
बिहार के एक जिले के सारे किसान कठिन परिश्रम करके भी नहीं
कमाते।
क्या इतने बड़े भेदभाव और चोटी-खाई के अंतर पर कोई देश या समाज
शांत और अनुशासित रह सकता है? मुदित ने अपने अतीत को एक बार
फिर लौटकर देखा। जब तक गाँव में रहा कभी भरपेट खाना नहीं मिला,
जबकि खेती में पूरी तरह झोंक डाला था खुद को। जब जमीन कम हो तो
कितनी भी मेहनत कर ली जाये, उपज सीमा से बाहर तो नहीं हो
जायेगी। अगर वही स्थिति रह जाती अर्थात वह गाँव में ही रह जाता
तो या तो चोर बन जाता या डकैत या नक्सलाइट। उसके लिए यह एकदम
नागवार था कि किसी का गोदाम भरा हो और किसी का चूल्हा भी न
जले। किसी के पास लाखों-करोड़ों हो और किसी के पास इतना कम हो
कि जीना दूभर हो जाये। उसकी कंपनी में बडी संख्या में मजदूरों
की छंटनी के उपरांत अधिकारियों की तनख्वाह में दुगुनी-तिगुनी
की वृद्धि। धनवान और निर्धन की खाई घटाने की जगह और चौड़ी।
मुदित ने तय किया कि वह एक मामूली आदमी है, कोई बड़ी क्रांति या
आंदोलन का सूत्रपात तो नहीं कर सकता, लेकिन इतना तो कर ही सकता
है कि अपनी सैलरी को वह सीमित कर दे, शायद इससे अपने हिस्से का
पाप वह कम कर सके, दूसरों तक कोई संदेश जा सके या उनमें एक
शर्म पैदा हो सके।
उसने प्रबंधन को लिखकर दे दिया कि उसका वेतन चालीस हजार से
घटाकर बीस हजार कर दिया जाये और आगे उसे कोई वेतन-वृद्धि या
वेतन-पुनरीक्षण का लाभ न दिया जाये। उसकी सारी पारिवारिक
जिम्मेवारी अब खत्म हो गयी है। जहाँ हजारों जरूरतमंदों को
जरूरत भर पैसे नहीं मिल रहे, वहाँ उसके लिए यह एक गुनाह है कि
जरूरत न रहने पर भी ज्यादा पैसा ले।
प्रबंधन के पास अब तक कोई ऐसा मामला नहीं आया था। बात शीर्ष
प्रबंधन तक पहुँच गयी। वे भौंचक रह गये कि चालीस हजार मिल रहा
है तो वह कम करने के लिए कह रहा है, लेकिन वे तो लाखों ले रहे
हैं तथा इस फिराक में रहते हैं कि और बड़ी राशि मिले, ज्यादा से
ज्यादा तरक्की हो। यह तो एक बड़ी खबर और एक बड़ी चुनौती बन
जायेगी कि एक छोटा कर्मचारी होकर ऐसा बड़प्पन दिखा रहा है और वे
शीर्ष पर हैं, कुल प्रॉफिट का उन्हें वार्षिक लाभांश भी मिलता
है फिर भी वे संतुष्ट नहीं हैं और कोई त्याग की भावना उनमें
नहीं है। दूसरी तरफ निचले स्तर के कर्मचारियों का जहाँ तक सवाल
है तो उनकी तरफ से यूनियन ज्यादा से ज्यादा पैसा दिलाने के लिए
हमेशा जूझती रहती है। पिछले छह महीने से प्रबंधन और वर्कर्स
यूनियन के बीच वेतन पुनरीक्षण पर रगड़ा चल रहा है। ऐसे परम
संतोषी कर्मचारी होने लगेंगे तो यूनियन की सौदेबाजी की धार
क्या कुंद नहीं पड़ जायेगी?
शीर्ष प्रबंधन के निर्देश पर मुदित के विभाग प्रमुख ने उसे
बुलाकर जोरदार झाड़ पिलायी, "ये क्या नौटंकी कर रहे हो तुम?
पैसे अगर तुम्हें ज्यादा हो रहे हैं तो चैरिटी कर दो...दुनिया
में इतने गरीब हैं, उन्हें बाँट दो। या फिर पैसे नहीं चाहिए तो
नौकरी से रिजाइन कर दो।"
"नौकरी से रिजाइन तो मैं नहीं कर सकता सर। एक तो निष्क्रिय
होकर घर में बैठना संभव नहीं है, दूसरा मुझे बीस हजार तो चाहिए
ही चाहिए, तीसरा पैसे जब मिल जाते हैं तो चैरिटी करना या दान
देना मेरे वश में नहीं रह जाता।'
"कहीं ऐसा करके तुम हीरो तो नहीं बनना चाह रहे?"
"अगर ऐसा है तो आपकी तनख्वाह तो काफी ज्यादा है सर, शायद
बत्तीस लाख सालाना। कितना भी रईसी से रहते होंगे तो साल में
बारह-पन्द्रह लाख तो बच ही जाता होगा। आप ही अपनी तनख्वाह कम
करवा कर हीरो क्यों नहीं बन जाते?"
"तुम यहाँ से जा सकते हो। कंपनी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है
कि किसी की सैलरी कम कर दी जाये।"
"प्रावधान तो बनाने से बनता है सर।"
"लगता है तुम्हारा दिमाग फिर गया है। हैरत है कि इस महँगाई के
जमाने में पैंतीस-चालीस हजार रुपये तुम्हें ज्यादा लग रहे
हैं।"
"आप अगर ऐसा मानते हैं कि पैंतीस-चालीस हजार ज्यादा नहीं है और
आप जैसे उच्च अधिकारियों के लिए लाखों-लाख भी कम हैं, फिर उनके
लिए आप क्या कहेंगे जो डेढ़-दो हजार से लेकर चार-पाँच हजार
रुपये तक में अपना खून-पसीना बहा रहे हैं? उनका काम कैसे चलता
होगा, कभी प्रबंधन ने सोचा?"
"तुम छोटी मुँह बड़ी बात कर रहे हो। प्रबंधन को क्या करना है,
क्या सोचना है, इसमें तुम्हारी राय वांछनीय नहीं है। तुम्हारा
इस तरह का कुछ भी कहना अनुशासनहीनता माना जायेगा।"
"मैं अपनी हैसियत जानता हूँ सर कि मेरे जैसे आदमी का कुछ भी
बेसुरा कहने से आप जैसे लोगों की सत्ता की लय बाधित हो जाती
है। इसीलिए तो मैंने सिर्फ अपनी सैलरी घटाने की अर्जी दी है।"
हमें पता है कि तुम्हारे दो बेटे इंजीनियर हैं और तुम्हारी
बेटी भी इसी कंपनी में जॉब कर रही है। क्या वे लोग तुम्हारे इस
निर्णय से सहमत हैं?"
"मेरे इस निर्णय से उनका सहमत होना जरूरी नहीं है सर। मैं अपना
मालिक स्वयं हूँ।"
यूनियन के तीन-चार बड़े ओहदेधारी उनके घर पधार गये। इनके आने से
सिलौटी देवी भी इस विस्मयकारी प्रस्ताव से अवगत हो गयी। भीतर
ही भीतर गुस्से से वह खौलकर रह गयी। लगता है मति सचमुच ही मारी
गयी है इस आदमी की। यूनियन वालों ने कहा, "तुम पर यह क्या खब्त
सवार हो गया है भाई। हमलोग रात-दिन लड़ते-मरते रहते हैं कि कैसे
अपने साथियों की पगार और बेहतर बनायें और तुम हो कि बदतर करने
के लिए आवेदन कर रहे हो! इसका अंजाम तुम्हें पता है? प्रबंधन
को एक हथियार मिल जायेगा कि वर्कर तो इतना ही में बहुत संतुष्ट
हैं। मान लो कि तुम्हें अधिक की जरूरत नहीं है, लेकिन ऐसे
हजारों लोग हैं, जिनकी जिम्मेवारी सारी की सारी बची हुई है।"
"प्रबंधन को अगर हथियार मिल जायेगा तो इसके निशाने पर ज्यादा
तो वे लोग ही हैं। उनकी पगार तो वर्करों से कई गुणा ज्यादा है,
पहले वे कम करें अपनी पगार। ऐसे भी मैंने आवेदन दूसरों के लिए
नहीं अपने लिए दिया है।"
यूनियन वाले चले गये। उन्होंने यही निष्कर्ष निकाला कि जरूर इस
आदमी के दिमाग का कोई स्क्रू ढीला हो गया है। वे सिलौटी से कह
गये कि इसे किसी मनोचिकित्सक से इलाज करवा लीजिए अन्यथा इसकी
स्थिति आगे और बिगड़ सकती है। कंपनी को अगर लग गया कि यह मानसिक
असंतुलन के दौर से गुजर रहा है तो इसे नौकरी में बना रहना
मुश्किल होगा। सिलौटी ने उसकी जी भरके बखिया उधेड़ी और गुस्से
से फनफनाकर मोबाइल से बड़े बेटे से संपर्क किया और कहा कि जल्दी
से जल्दी वह घर आये। उसके बाप पर एक गंभीर दौरा पड़ा है।
उदार उसे समझा चुका था, अब उपकार की बारी थी। उसने उनकी हालत
पर तरस खाते हुए कहा, "आप दुनिया को बहुत कम जानते हैं पापा।
आप जिन्हें लेकर समझते हैं कि आपके पास सब कुछ है, वह आपका
भ्रम है। आपने सही मायने में सुख और ऐश्वर्य को देखा ही नहीं
है। जिनकी पगार आपको बहुत ज्यादा लगती है, वस्तुतः कंपनी उनके
ही बल पर चलती है, न कि वर्करों के बल पर। कच्चे माल के जुगाड़
से लेकर तैयार माल की बिक्री तक सारा इंतजाम उनके ही जिम्मे
होता है। उनकी पगार आपको ज्यादा इसलिए लगती है कि आप उन्हें
अपने चश्मे से देख रहे हैं। आपने एक टीवी खरीद लिया और उसे तब
तक चलाते रहेंगे जब तक वह पूरी तरह बेकार न हो जाये। यही शर्त
कार, फ्रीज, ओवन, मोबाइल, फर्नीचर, वाशिंग मशीन आदि के लिए भी
लागू है। लेकिन वे पचास-साठ लाख में कार खरीदेंगे और तीसरे साल
में बदल डालेंगे। एक लाख में टीवी खरीदेंगे और ढाई-तीन साल में
दूसरा मॉडल ले लेंगे। उनकी कलम पचहत्तर हजार की होगी, मोबाइल
एक लाख का होगा और एक नहीं कई-कई होगा, घड़ी डेढ़ लाख की
इंर्पोटेड होगी। उनके पास कैसियो होगा, कैमरा होगा, कम्प्यूटर
होगा। तात्पर्य यह कि उनके घर हर गैजेट होगा, और सबके सब
अनमोल...बेशकीमती...नायाब। उनके घर की दीवारें और फर्श ताजमहल
की चिकनाई और शोभा को भी पीछे छोड़ देंगी। उनके पास
हीरे-जवाहरात की दर्जनों अँगूठियाँ होंगी और आभूषणों से आलमारी
तथा लॉकर ठसाठस भरे होंगे। वे चालीस-पचास हजार के जूते और
ब्रांडेड पतलून तथा कमीज पहनेंगे। आपकी तरह नहीं कि जब तक फट
नहीं जाये, दूसरा नहीं लेंगे। आप एक बाल्टी पानी से नहा लेते
हैं, वे अपने बाथ टब में तैरते हुए पचास बाल्टी से
नहायेंगे...।'
मुदित चन्द्र बुरी तरह चिढ़ गया, 'क्या यही लोकतंत्र है। कोई
राजा और कोई रंक।"
"कैसा लोकतंत्र, कहाँ है लोकतंत्र? आप फिर भूल कर रहे हैं
समझने में। जिसे आप लोकतंत्र कह रहे है, वस्तुतः लोकतंत्र की
पैकिंग में वह राजतंत्र ही है। कौन चुनकर जाता है संसद और
विधानसभा में? क्या कोई गरीब या साधारण आदमी? इस समय लोकसभा
में सौ से ज्यादा ऐसे सदस्य हैं जो अपने बाप-दादा या मृत पति
की विरासत के बल पहुँचे हैं। किसकी कूबत है कि चुनाव लड़ने के
लिए पचास लाख से एक करोड़ तक खर्च कर सके। क्या इसे आप लोकतंत्र
कहेंगे?"
मुदित चन्द्र को लगा कि वह अपने बेटे की बात नहीं सुन रहा
बल्कि नींद में एक बहुत बुरा सपना देख रहा है। उसने जागते हुए
से अकबका कर पूछा, 'इस तरह देश कब तक चलेगा?"
"देश और दुनिया सदियों से ऐसे ही चल रहा है, पापा। राजा और रंक
यहाँ कब नहीं थे? देश को चलाने और सँभालने के लिए बहुत बड़े-बड़े
लोग हैं। आप इतना बड़ा बोझ अपने सिर पर मत लीजिए। नहीं ढो
पायेंगे आप। आपको सिर्फ अपनी घर-गृहस्थी और सुख-दुख देखना है,
आपकी यही सीमा रेखा है।"
क्या आजादी का यही मतलब है? मुदित की आवाज गले में ही रुँधकर
रह गयी। वह समझ गया कि उसके पास ऐसा कोई सवाल नहीं है जिसका
जवाब उसके बेटे के पास न हो। वह समझ गया कि त्याग, उपकार,
भलाई, नेकी आदि मानवता के तमाम पर्यायवाची शब्दों के अर्थ उसके
बेटों के शब्दकोश में अपना अर्थ खो चुके हैं। बहुत चिंतन-मनन
करके उसने दोनों के नाम उदार और उपकार रखे थे, लेकिन ये नाम
आँख के अंधा नाम नयनसुख कहावत को चरितार्थ कर गये। गनीमत है कि
पिता का अर्थ घिसकर भी कुछ बचा हुआ सा लगता है।
अगले दिन उपकार अपनी माँ सिलौटी देवी के साथ मुदित के विभाग
प्रमुख को समझा आया कि उसके पिता के आवेदन को गंभीरता से न
लिया जाये। मस्तिष्क में कुछ रासायनिक असंतुलन के कारण वे
मानसिक अवसाद से गुजर रहे हैं। जल्दी ही ठीक हो जायेंगे।
पन्द्रह दिनों की उन्हें छुट्टी दे दी जाये, चिकित्सा के लिए
वह अपने साथ चेन्नई लेकर जा रहा है।
उपकार
ने चेन्नई के लिए तीन हवाई टिकट मँगवा लिये। वह हवाई जहाज से
चेन्नई ले जाकर दिखाना चाहता था कि देखिए जिंदगी के मायने
सिर्फ जमीन ही नहीं आकाश भी है, अंतरिक्ष भी है।
जिस दिन जाना था, मुदित उसी दिन बिना कुछ कहे लापता हो गया।
टिकट रद्द करवाने पड़े। काफी खोजबीन के बाद पता चला कि वह गाँव
चला गया है और अपने साथ एक सेविंग डिपॉजिट को बीच में ही तोड़कर
उसके पचास हजार रुपये भी लेता गया है। |