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१०. २. २०१४

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
जयप्रकाश नायक, अमित दुबे, शशिकांत सिंह शशि, कुलभूषण व्यास और धनपत राय झा की रचनाएँ।

कलम गही नहिं हाथ-

शारजाह-आजकल-रोशनी-में-नहा-रहा है। सड़कें और पार्क तो सजाए ही गए हैं, शहर के नौ आलीशान भवनों पर प्रकाश और संगीत का एक-विशेष-खेल-...आगे पढ़ें

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है- सर्दी के मौसम में सूपों की पुरानी शृंखला को जारी रखते हुए- मिनेसट्राने

आज के दिन (१० फरवरी को) १९३१ में बालकवि बैरागी का जन्म और १९७५ में कवि सुदामा पांडेय धूमिल का निधन हुआ था।...

हास परिहास के अंतर्गत- कुछ नये और कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी का आनंद...

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला- ३२  विषय- 'शादी उत्सव गाजा बाजा' में रचनाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया है। टिप्पणी के लिये देखें- विस्तार से...

लोकप्रिय उपन्यास (धारावाहिक)- के अंतर्गत प्रस्तुत है २००३ में प्रकाशित रवीन्द्र कालिया के उपन्यास— 'एबीसीडी' का छठा भाग

वर्ग पहेली-१७२
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि-आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-

साहित्य संगम में प्रस्तुत है जयंती पापाराव की तेलुगु कहानी का रूपांतर रंगम पेटी

दादाजी का कर्मकांड समाप्त हुआ। कर्मकांड की समाप्ति के बाद रंगून की पेटी सबकी आँखो के सम्मुख चम-चम चमकती हुई, कलात्मक रूप से विराजमान थी। मन में अतीव उत्सुकता के बावजूद हर कोई उस पेटी के बारे में, मुँह खोलने से सकुचा रहा था। दादाजी के बारे में बारे में बातचीत करते हुए, सभी लोगों की दृष्टि बार-बार उस पेटी पर जा टिकती थी। मेरे पिता सबके चेहरों का सूक्ष्मता से अध्ययन कर रहे थे। फिर कुछ देर निहार कर, अपने छोटे भाई की ओर उन्मुख हुए- भाई! उस रंगम पेटी को खोलो। उन्होने चाबी का गुच्छा चाचाजी की ओर बढ़ा दिया। मेघों से आच्छादित आकाश में जिस तरह चन्द्रमा झाँक उठता है उसी तरह सबके चेहरे प्रसन्नता से दमक उठे थे। दादाजी के एक मित्र ‘रंगून साहब’ ने उस पेटी को हमें सौंपा था। वे हमारे ही गाँव के रहने वाले थे। बर्मा में खूब पैसा मिलता था। यह कहकर, उनके रिश्तेदार उसे अपने साथ रंगून ले गए थे। उनका शरीर बलिष्ट था अत: बडे आराम से उन्हें आरा मशीन में काम मिल गया। आगे-
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रतनचंद जैन की लघुकथा
 मुक्तिदेव
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डॉ. विनय का आलेख
कालचक्र का देवता और उसका संसार
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डॉ. अशोक उदयवाल का आलेख
मनभावन मूँगफली

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पुनर्पाठ में- प्रकृति अंतर्गत
महेन्द्र रंधावा का आलेख- ऋतुओं की झाँकी

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पिछले सप्ताह-


विनय मोघे का व्यंग्य
शादी का मौसम आया
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चीन से गुणशेखर का संस्मरण
मैं कौन हूँ कहाँ से हूँ
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नर्मदा प्रसाद उपाध्याय का ललित निबंध
अस्ताचल का सूर्य

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पुनर्पाठ में- प्रकृति अंतर्गत
प्रभात कुमार से जानें- पर्यावरण या जनावरण

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समकालीन कहानियों में भारत से
ललित साह की कहानी- ज्वालामुखी

गाड़ी आधा घंटा लेट आई... यानी साढ़े सात बजे। इससे मुझे कोई परेशानी नहीं हुई, क्योंकि न तो मैं इंटरव्यू देने जा रहा था और न तार पाकर किसी मरणासन्न रिश्तेदार से मिलने। साधारण यात्रा थी, देर-सवेर सब चलेगा। मेरा बर्थ नंबर सात था। दरवाजे के पास वाली नीचे की सीट। आठ नंबर मेरे ऊपर था एवं एक से छः नंबर सामने के लेडीज केबिन के भीतर। सचमुच ऐसे केबिन किसी एक परिवार या जनाना सवारियों के लिए निरापद तथा आरामदायक होते हैं। अंदर से सिटकनी बंद करो और रात भर सुख की नींद सोओ, घर जैसा। एक नजर ध्यान से देखने पर केबिन में बैठे लोग मुझे एक ही परिवार के लगे। एक वृद्धा। दो लड़कियाँ- किशोर वय की। जरूर बहनें होंगी। क्योंकि दोनों के कपड़े ही नहीं, नाक-नक्श भी एक जैसे थे। एक लड़का भी था सात-आठ साल का तथा एक वृद्ध, जिनकी दाईं आँख पर छोटा-सा हरा पर्दा लगा था, एक युवती- गोरी, स्वस्थ एवं सुंदर। मेरे ऊपर की बर्थ खाली थी, लेकिन बगल वाले बर्थ पर... आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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