तिब्बत से-
कालचक्र
का देवता और उसका संसार
डॉ. विनय
सेंगे खबब यानि शेर के मुँह से निकलनेवाली, लंड्हेन
खबब यानि हाथी के मुँह से निकलने वाली, माजा खबब यानि
मोर के मुँह से निकलने वाली और ताछोंग खबब यानि घोड़े
के मुँह से निकलने वाली नदियों का मायका तिब्बत अपनी
लहूलुहान यादों में आज भी अपनी सांस्कृतिक परंपरा को
समेटे है। सदियों पुरानी सभ्यता के वारिस अपने ही घर
से बेघर रहने के बावजूद अपनी संस्कृति के रंग को फीका
न पड़ने देने के लिए प्रयासरत हैं। अक्टूबर, १९४९ में
चीन द्वारा तिब्बत को अपना अंग घोषित करने के बाद चीन
ने वह सब-कुछ किया जो एक सत्ताधीश करता है, लेकिन
तिब्बत ने हर हाल में अपनी संस्कृति को बचाकर रखा है,
ठीक उसी प्रकार जैसे उन्होंने अपनी कला में कालचक्र के
देवता को बचाकर रखा है।
बौद्ध भाषा, लिपि, कला, एवं बोन धर्म
७८०
और १०३० देशान्तर पूर्व तथा २७ और ३७ अक्षांश उत्तर
रेखाओं तक फैला तिब्बत बुद्ध धर्म के रंग में रँगा है।
बौद्ध धर्म का जो स्वरूप तिब्बत ने अपनाया वह प्रमुख
रूप से महायान परंपरा का है, जिसकी छाप हर सांस्कृतिक
एवं सामाजिक गतिविधियों में देखी जा सकती है।
तिब्बत का
मूल धर्म 'बोन' है जो आज भी थोडे तिब्बती जन समुदाय के बीच
जिंदा है। बौद्ध धर्म का उदय और विकास तिब्बत के धर्मराज
सम्राटों के दृढ़ संकल्पों और प्रयासों का फल है, जिसकी
आधारशिला सोइचन गंपो के समय में पड़ी। तिब्बत की भाषा 'भोट'
चीनी भाषा से बिल्कुल ही अलग है। उसकी लिपि का निर्माण थोनमी
सम्भोट द्वारा सातवीं शताब्दी में भारत की ब्राह्मी लिपि के
आधार पर किया गया तथा वर्णमाला भी संस्कृत के अनुसार बनायी
गयी। यद्यपि चिकित्सा और चित्रकला का प्रवेश तिब्बत में भारत
से आये पंडितों और शिल्पियों के द्वारा हुआ, फिर भी अपनी
भौगोलिक तथा जातिगत विशेषताओं के आधार पर उसमें विशेषता को
जोड़ा।
कहने का सबब यह कि तिब्बत की सभ्यता और संस्कृति को भारत
किसी-न-किसी रूप में प्रभावित करता रहा है। आज भी तिब्बतियों
की सांस्कृतिक परंपरा का प्रमुख संरक्षण केंद्र भारत ही है।
उनके सपनों को सँजोए रख सकने के लिए भारत ने ही जमीन दी है। उन
प्राचीन संस्कृति और कला को सतत जीवन रस देकर परवान चढ़ाने का
काम भी भारत करता आ रहा है। तिब्बती कला
के कई रूप उसके हस्तशिल्प, चित्रकला, स्थापत्यकला, काष्ठकला,
कशीदाकारी, सौंदर्य प्रसाधन आदि में देखने को मिलते हैं,
जिनमें 'रेत मंडल' और 'मक्खन शिल्प' तो बेहद ही अनूठे हैं।
रेत मंडल
संस्कृत में मंडल का अर्थ वृत्त होता है। रेत मंडल का निर्माण
बौद्ध तांत्रिकों का एक धार्मिक कर्मकांड है। रेत मंडल में
बालू का इस्तेमाल इसलिए होता है कि तिब्बतियों की नजर में बालू
एक प्रभावोत्पादक वस्तु है जो बहुमूल्य पत्थरों से बना होता
है। इसके बनाने में बड़े कौशल की जरूरत होती है। बालू का एक-एक
कण मंत्रोच्चार से युक्त होता है जिसके कारण संपूर्ण रेत मंडल
पर आध्यात्मिक ऊर्जा का प्रभाव रहता है।
प्रत्येक मंडल विशिष्ट देवताओं का पवित्र घर होता है, जो उनके
परम आनंद और श्रेष्ठ चेतना को अभिव्यक्त करता है। तिब्बती
बौद्व परंपरा में मंडल का निर्माण शुभारंग के कर्मकांड के लिए
किया जाता है जिसमें गुरु अपने शिष्य को एक विशिष्ट देव की
आराधना की इजाजत देता है। देवता मंडल के बीच में रहते हैं।
देवता और मंडल दोनों ही भगवान बुद्ध के प्रबुद्ध मस्तिष्क की
अभिव्यक्ति हैं। यह कहा जाता है कि मंडल को देखने और उसका
ध्यान लगाने से प्रत्येक व्यक्ति के मन में ज्ञानोदय के बीज
अंकुरित होते हैं।
बौद्ध सूत्रों के अनुसार देव मंडल बनाने के सिद्धांत और तकनीक
की शिक्षा महात्मा बुद्ध ने ही दी थी। सदियों से यह शिक्षा,
अटूट परंपरा के रूप में गुरु से शिष्य तक पहुँचती रही है।
कलाकार मंडल के केंद्र से निर्माण की प्रक्रिया शुरू करते हैं।
स्थायी तौर पर मंडल नहीं बनाये जाते हैं। प्रदर्शनी के बाद रेत
मंडल कर्मकांडीय तरीके से भंग कर दिये जाते हैं, फिर पास की
नदी में रेत को समाहित कर दिया जाता है।
अमूमन रेत मंडल में 'कालचक्र' बनाया जाता है जो 'कालचक्र'
देवता और उसकी दुनिया को दर्शाता है। इस रेतमंडल में 'कालचक्र'
कुल के ७२२ देवता रहते हैं, मंडल का निर्माण यों ही नहीं होता,
बल्कि इसके बनाने में कलाकार स्केल, कंपास और सफेद स्याही की
मदद से कलात्मक रेखाएँ खींचते हैं। धातु की नली के छोर से
रंगीन बालू बड़ी ही बारीकी से समरूप क्रम में डाले जाते हैं।
नवनीत शिल्प
स्थापत्य
कला का एक अनूठा रूप है 'मक्खन शिल्प'। ग्यूम तांत्रिक
महाविद्यालय के संन्यासी इस कला में निपुण समझे जाते हैं।
मक्खन की मूर्तियाँ 'मोनलाम' त्यौहार के दौरान सार्वजनिक
प्रदर्शन के लिए बनायी जाती है। यह त्यौहार हर वर्ष पहले
तिब्बती माह में मनाया जाता है। यह प्रदर्शनी पूर्णिमा की शाम
में लगायी जाती है।
सन १९५९ से
पहले ल्हासा की 'भरकोर' गली में विभिन्न आकार और प्रकार के
मक्खन की मूर्तियाँ बनी थीं। ये ल्हासा के द्रेपुंग, गाडेन और
सेरा आदि मठों के द्वारा बनायी गयी थीं। मक्खन से बनने वाली इन
मूर्तियों के निर्माण में सरेस और विभिन्न रंगों का इस्तेमाल
होता है। आठ सन्यासी और आठ सहायक मिलकर तीन सप्ताह में मध्यम
आकार की मक्खन मूर्तियाँ बनाते हैं। सफेद मक्खन से धार्मिक
श्लोक 'तोरमा' पर लिखे जाते हैं, फूल बनाये जाते हैं। नवनीत
शिल्प का मुख्य भाव 'ताशी ताक्ग्ये' है जिसमें आठ पवित्र चिन्ह
होते हैं।
'ग्यालसी
नादुन' सात सार्व भौम राजचिह्न भी इस कला के मुख्य भाव होते
हैं। 'थुरा पुन्शी' इसकी लोकप्रिय शैली है। इसमें चार अनन्य
मित्रों हाथी, बंदर, खरगोश और चिड़िया की मूर्ति होती है जो
एक-दूसरे के ऊपर खड़े होते हैं। यह मैत्री और सामंजस्य का
प्रतीक है। इसके निर्माण के लिए कोई बँधे-बँधाया नहीं होते
हैं। कलाकारों को अपने मनोनुकूल आकार और रूप अख्तियार करने की
छूट रहती है। मुक्तिकामी तिब्बत की यह रूहानी कला इतिहास के
पन्नों में कैद हो जाने को विवश है। परायी धरती बहुत दिनों तक
गरमाहट का सुकून नहीं दे सकती। तिब्बत की सांस्कृतिक विरासत
उनकी पथरायी आँखों के सपने न बन जाए इससे पहले गौतम के देश को
पहल करनी होगी।
१०
फरवरी २०१४ |