इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
कुमार गौरव अजितेन्दु,
संजीव गौतम, डॉ. दामोदर खड़से, आकुल और कैलाश भटनागर की
रचनाएँ। |
कलम गही नहिं
हाथ- |
पिछले दो सालों से कुछ व्यस्तताओं को चलते यह स्तंभ रुक
गया था।
इसका अपना एक संवाद था, नये साल में आशा है यह संवाद बना
रहेगा।...आगे पढ़ें |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत है-
मकर संक्रांति की तैयारी में लड्डुओं की विशेष शृंखला अंतर्गत-
अलसी के लड्डू। |
आज के दिन (६ जनवरी) को कर्नाटिक संगीत
के गायक जी.एन. बालसुब्रमण्यम, हिंदी लेखक कमलेश्वर, बालीवुड संगीतकार
ए.आर. रहमान और...
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हास
परिहास
के अंतर्गत- कुछ नये और
कुछ पुराने चुटकुलों की मजेदार जुगलबंदी
|
नवगीत की पाठशाला में-
नई कार्यशाला- ३१ के विषय- नव
वर्ष के स्वागत पर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। टिप्पणी के लिये
देखें-
विस्तार से... |
लोकप्रिय
उपन्यास
(धारावाहिक)-
के
अंतर्गत प्रस्तुत है २००३ में प्रकाशित
रवीन्द्र कालिया के उपन्यास—
'एबीसीडी' का पहला भाग।
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वर्ग पहेली-१६७
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य एवं
संस्कृति में-
|
समकालीन
कहानियों के अंतर्गत भारत से संजय कुमार की कहानी
सब्जी वाला लड़का
शाम
का समय था। बच्चे सड़कों पर खेल रहे थे। कोई पहिया घुमा रहा
था; कोई साईकिल चला रहा था; कोई गुल्ली डंडा खेल रहा था; तो
कोई पंतग उड़ने में व्यस्त था। सब मज़े कर रहे थे। मैं अपने घर
में बैठा था और प्रसादजी की एक कहानी पढ़ रहा था। कहानी खतम
होने को आई थी कि मेरे कानों में आवाज पड़ी 'सब्जी ले लो
सब्जी'। यों तो इस तरह की आवाजें तरकारी वाले प्राय: लगाते
थे लेकिन ये आवाज कुछ अलग थी। मैं किताब छोड़कर नीचे आ गया और
इस आवाज के मालिक को तलाशने लगा। मेरी नजर सामने पड़ी। एक छोटा
बालक तरकारी का ठेला धकाते हुए मेरी ओर बढ़ रहा था। बीच बीच
में चिल्लाता जाता 'सब्जी ले लो सब्जी'। उसकी उमर बारह या तेरह
बरस से ज्यादा न लगती थी। लड़का देखने में बहुत सुन्दर था उसके
चेहरे से मासूमियत टपक रही थी। उसे देखकर मेरे मन मैं अनगिनत
सवाल नाग की तरह फन फैलाने लगे। वो अभी इतना छोटा था कि
ठेलागाड़ी उससे धक भी न पाती थी। उसे धकाने के लिए वो अपनी
पूरी ताकत झोंक देता था।
आगे-
*
श्रीप्रकाश का व्यंग्य
बालमखीरा का चूरन
*
संजय जैन का आलेख
सिवनी का जैन मंदिर
*
सतीश जायसवाल का यात्रा संस्मरण
सिक्किम में यति
को खोजते हुए
*
पुनर्पाठ में-रामेश्वर
कांबोज 'हिमांशु'
का दृष्टिकोण
नववर्ष में संकल्प लें
1 |
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पिछले
सप्ताह- |
१
रघुविन्द्र यादव की लघुकथा
न्यू
इयर पार्टी
*
राहुल देव का आलेख
समकालीन कहानियों में नया साल
*
पर्वों की जानकारी के लिये
पर्व पंचांग - २०१४
*
पुनर्पाठ में-गृहलक्ष्मी की कलम से
बधाई हो बधाई
* समकालीन
कहानियों के अंतर्गत भारत से गोवर्धन यादव की कहानी
एक
मुलाकात
दिसंबर
का अंतिम सप्ताह चल रहा है। चार दिन की केजुअल बाकी है। यदि
जेब में मनीराम होते तो मजा आ जाता। दोस्तों की ओर से भी
तरह-तरह के प्रस्ताव मिल रहे थे। परंतु सभी को कोई न कोई बहाना
बनाकर टाल देता हूँ, बिना पैसों के किया भी क्या जा सकता था।
अत: आफिस से चिपके रहकर समय पास करना ही श्रेयस्कर लगा। ३१
दिसम्बर का दिन, पहाड़ जैसा कट तो गया पर शाम एवं रात्रि कैसे
कटेगी यह सोचकर दिल घबराने-सा लगा। उडने को घायल पंछी जैसी
मेरी हालत हो रही थी। अनमना जानकर पत्नी ने कुछ पूछने की
हिम्मत की, पर ठीक नहीं लग रहा है, कहकर मैं उसे टाल गया। खाना
खाने बैठा तो खाया नहीं गया। थाली सरका कर हाथ धोया। मुँह में
सुपारी का कतरा डाला। थोड़ा घूम कर आता हूँ, कहकर घर के बाहर
निकल गया। ठंड अपने शबाब पर थी। दोनों हाथ पतलून की जेब में
कुनकुना कर रहे थे। तभी उँगलियों के पोर से कुछ सिक्के टकराए।
अंदर ही अंदर उन्हें गिनने का प्रयास करता हूँ...आगे-
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