सिक्किम में यति
को खोजते हुए
- सतीश जायसवाल
यति यथार्थ
है या मिथक? यह रहस्य अभी तक अनसुलझा है। इसका अनसुलझा रहे
आना, हिमालय के साथ जुड़ी हमारी आसक्तियों को रहस्यमयता से
जोड़े रखता है। लेकिन सिक्किम के लिए यह मिथक, उनके विश्वास से
जुड़ा हुआ है। पूर्वी हिमालय के इस क्षेत्र में, यहाँ से लेकर
तिब्बत तक यति की मिथक कथाओं का विश्वास लोकव्याप्त है। यह लोक
समुदाय मोटे तौर पर बौ़द्ध धर्मावलम्बी है। इसलिए मुझे लगा कि
बौद्ध अध्येताओं के पास इसके कोई सूत्र मिलेंगे।
गंगटोक का "नामग्याल इंस्टीट्यूट ऑफ टिबेटोलॉजी" बौद्ध धर्म और
मान्यताओं से संबंधित अध्ययन का एक बहुत बड़ा और प्रामाणिक
केंद्र है। मैंने इस केद्र के आचार्य लामाओं से पूछा। उन्होंने
बताया कि सुनने को तो, उन्होंने भी सुना है, लेकिन उसे देखा
नहीं है। उनका मानना है कि यति एक रक्षक देव रूप है। मुझे लगा
कि पुराने लोग जानते होंगे और हो सकता है कि उनमें से किसी ने
यति को देखा भी हो। लेकिन ऐसे पुराने लोग मिलेंगे कहाँ? आज रात
मैं लाचुंग पहुँचूँगा। वहाँ रहने वाले सबसे वृद्ध का पता करके
उनसे मिलूँगा और पूछूँगा।
मुझे यूमथांग जाना है। वहाँ बर्फ पड़नी शुरू हो गई है। यूमथांग
के लिए लाचुंग होकर रास्ता है। रास्ते की इस छोटी सी पहाड़ी
बस्ती में रात रुकना पड़ता है। यहाँ लेपचा जन जाति के लोग रहते
हैं, जो प्रायः बौद्ध धर्मावलम्बी होते हैं। गंगटोक से मै यह
सोचकर चला था कि यहाँ कोई न कोई वृद्ध मुझे मिल जायेगा, जिसने
यति को देखा होगा या उसके पास मुझे सुनाने को, यति की कहानियाँ
होंगी जो उसके अपने अनुभव की होंगी या उसने अपने पूर्वजों से
सुनी होंगी। लेकिन, जब तक हम लाचुंग पहुँचे तब तक रात हो चुकी
थी और वृद्ध लोग सो चुके थे, जिनके साथ बातें करके मैंने उनकी
स्मृतियों को खँगालने की बात सोच रखी थी।
अभी तक जितना सुना है, उसमें यति का दिखना रातों में ही हुआ
है। वह बर्फ की तरह सफेद दिखने वाला विशालकाय जीव है। उसकी
आकृति वनमानुष की तरह, खूब घने रोंएदार होती है। वह हिममानव
है, इसलिए बर्फ के पहाड़ों में कहीं छिपकर रहता है और कभी-कभी
रातों में बाहर निकलता है।
यूमथांग में पड़ रही बर्फ अभी इतने नजदीक नहीं पहुँची है कि
उसकी सफेदी यहाँ से झलकने लगे। यहाँ, अभी घना अँधेरा है।
लाचुंग, चारों तरफ से उसे घेरे हुए पहाड़ों की छाया में है।
इसलिए भी, रात यहाँ कुछ अधिक गहरी और अँधेरी लगती है। अँधेरे
में पानी की आवाज सुनाई पड़ रही है। पास में कोई पहाड़ी झरना या
जलप्रपात होगा। पानी की आवाज रात भर होती रही। नींद पड़ने के
बाद भी वह होती रही होगी। लेकिन दिन भर की थकान के बाद की नींद
उससे गहरी थी और उससे भी ठण्डी रात, गैस्ट हाउस से बाहर पहरे
पर थी।
लाचुंग देशी विदेशी सैलानियों का ऐसा रैन बसेरा है, जो दिन भर
ऊँघता पड़ा, रात का रास्ता देखता है। और सैलानियों के आते ही
एकदम से जाग उठता है। उसकी ऊँघ रात में टूटती है और इस अँधेरी
पहाड़ी बस्ती के, लकड़ी के फर्श और लकड़ी की ही ढलवाँ छत वाले
घरों की खिड़कियों पर कमजोर रोशनियों के आयत और वर्ग झिलमिलाने
लगते हैं। यहाँ पुराने किस्म के ऐसे ही घर हैं। लकड़ी के फर्श
और लकड़ी की ही ढलवाँ छतों वाले।
इस छोटी सी बस्ती में जिनके भी घर जरा बड़े है, उन्होंने अपनी
रिहाइश के लिए एक हिस्सा अलग कर बकाया को गैस्ट हाउस बना लिया
है। एक ऐसे ही, पुराने और घरेलू गैस्ट हाउस में हमारे लिए पहले
से बुकिंग कर रखी गई थी। इसके नीचे वाले आधे हिस्से में किराने
की दुकान है। उस दुकान को और इस गैस्ट हाउस को एक अधेड़ लेपचा
स्त्री चलाती है। ऐसे पुराने और घरेलू किस्म के गैस्ट हाउसों
के बीच, अब यहाँ नये और आकर्षक होटल भी बनने लगे हैं। ये नये
होटल दूर से ललचाते हैं। मेरा मन भी उनकी तरफ झुका। तब उस अधेड़
लेपचा स्त्री ने मुझे रोका और समझाया कि लकड़ी के फर्श और लकड़ी
की छतों वाले घर सर्दी से बचाते भी है।
हमारे टैक्सी ड्राइवर का नाम पेमा भूटिया है। पेमा भूटिया पढ़ा
लिखा नवयुवक है और अपनी उम्र से हल्का नजर आता है। सिक्किम की
सामाजिक आर्थिक संरचना मोटे तौर पर तीन जातीय समुदायों में
बँटी हुयी है। लेपचा, भूटिया और नेपाली। लेपचा और भूटिया तो
जनजातीय समुदाय है और इस समुदाय के लोग बौद्ध धर्मावलंबी हैं।
लेकिन नेपाली समुदाय के साथ आर्थिक मजबूती है। यह मजबूती
सिक्किम की सत्ता राजनीति में दिखती है और यहाँ के बाजार में
भी। पेमा भूटिया ने सुबह-सुबह अच्छी खबर दी कि वहाँ, यूमथांम
में अच्छी बर्फ पड़ चुकी है। बर्फ के लिए अब कटाओ तक जाने की
जरूरत नहीं पड़ेगी। अब वहाँ पहुँचना भी मुश्किल होगा। अभी तो,
यूमथांग ही यहाँ से ३०-३५ किलोमीटर दूर है। कटाओ वहाँ से भी
२०-२५ कि.मी. आगे, ऊपर की तरफ।
बर्फ सबसे पहले सड़क किनारे की सूखी घास पर और उजाड़ झाड़ियों पर
दिखी। सूख रहे साबुन के झाग की तरह की बर्फ को देखकर, उसे बर्फ
मानने को ही मन नहीं करेगा। फिर, पुराने पेड़ों की सूखी टहनियों
पर अटकी हुई बर्फ दिखी। इतनी देर में, उधर से आने वाली हवा
बर्फ को छू आई। बर्फ को छूकर आई हवा ने सीधे कपड़ों के भीतर हाथ
डाल दिया। बदन एकबारगी झुरझुरा गया। पहाड़ों से उतरकर नीचे आ
रही जलधाराएँ वहीं की वहीं जमकर रह गई थीं और अब हवा में कमन्द
की तरह लटक रही थीं।
यूमथांग के हिमलोक में पहुँचना इतना सहसा हुआ कि कुछ समझ में
नहीं आया। थोड़ी देर के लिए तो लगा कि गति के सिद्धांत में किसी
व्यवधान ने मुझे और मेरे मन को यहाँ, एक दूसरे से आगे पीछे कर
दिया है। मेरा गतिमान मन मुझसे पहले पहुँचकर सब देख रहा है और
पीछे रह गया मै, अब अपने मन को ढूँढ रहा हूँ। यूमथांग का यह
हिमलोक लाचुंग और लाचेन नदियों के संगम पर है। इनमें से कौन
लाचुंग है और कौन लाचेन? मैं नही बता पाऊँगा। नदियों के जल को
उनके नाम से जानने का विज्ञान मेरे पास नहीं है। मैं नदियों को
उनके जल से जानता हूँ। जल के साथ मेरे बचपन के कौतूहल और प्रेम
करने के दिनों की यादें जुड़ी हुई हैं। नदी के साथ मेरे
संस्कारों के रिश्ते हैं। नदियों के संगम पर मैंने सूर्य को
अर्ध्य दिया और उस जल का आचमन किया।
पानी बर्फ की तरह ठण्डा था। मुझे लगा कि मेरे हाथ नदी में ही
रह गये। मैं जगन्नाथ हो गया? अपने हाथों के स्पर्श लौटाने में
मुझे समय लगा। नदियों के पाट खूब चौड़े हैं। किसी मैदानी नदी की तरह। जलधाराओं
में खूब तेज बहाव है। जैसा किसी पहाड़ी नदी में होना चाहिये।
बर्फ ने इन जलधाराओं को किनारे की तरफ से ढाँकना शुरू कर दिया
है। दूर की तरफ दिख रही पतली पतली जल धाराएँ जम चुकी हैं। कुछ
दिनों में दोनों नदियाँ पूरी की पूरी जम कर निस्पंद, निश्चल हो
जायेंगी। तब यहाँ केवल बर्फ होगी और बर्फ की सफेदी। नदी, पेड़,
पहाड़ सबके सब आपाद मस्तक सफेद। यहाँ तक कि रातें भी सफेद उजास
से भर जायेंगी। शायद, ऐसी ही हिम उजास रातों में यति निकलता होगा। और किसी
भाग्यशाली को दिखता होगा?
इन पहाड़ों के बीच से ये जो दर्रे निकल रहे हैं-एक लाचुंग और
दूसरा लाचेन इन्हीं के बीच से होकर वह हिम मानव यहाँ से वहाँ
आना जाना करता होगा। किससे पूछूँ ? कल रात लाचुंग पहुँचने में
इतनी देर हो चुकी थी कि तब तक वहाँ के सारे वृद्ध लोग सो चुके
थे। और यहाँ,कोई भी व्यक्ति नहीं दिख रहा है।
यूमथांग इस समय जन विहीन है। बस, याकों के झुंड है, जो वहाँ,
कुछ दूर पर दिख रहे हैं। नदी किनारे झुंड बनाकर बैठे हुये याक
स्थितप्रज्ञ मुद्रा में हैं। मैं उन्हें छूना चाहता हूँ। लेकिन
उनके नजदीक पहुँचने से पहले ही वे सबके सब उठ खड़े हुये और पहले
से भी दूर चले गये।
याक मेरी अनुभूतियों से जुड़ा हुआ प्राणी है। मेरी यह अनुभूति
चित्रमय भी है और संगीतबद्ध भी है। सबसे पहली बार मैने कोई
याक, सत्यजित रे की एक फिल्म, कांचनजंगा में देखा था। वह, किसी
नीरव घाटी से ऊपर, पहाड़ पर आ रहे याकों का झुंड था। उनके गले
में बँधी हुई घंटियाँ उस नीरव घाटी में संगीत तरंगित कर रही
थीं। कोई अदृश्य तार तना हुआ था और उस पर से कोई गूँज उठ रही
थी। तब से, वह गूँज अब तक बनी हुई है और वह अदृश्य तार तना हुआ
था, वह बज रहा है।
पहाड़ ने अब अपना रंग दिखाया। यहाँ खिली धूप है और ऊपर, खुला
आसमान। बीच में बादल, पानी और बर्फबारी। बादलों ने ऊपर के पहाड़
को ढँक लिया और वहाँ बर्फ पड़ने लगी। वहाँ बर्फ पड़ रही है यहाँ
से दिख रही है। कटाओ उसी तरफ है।
पेमा भूटिया ने आगाह किया कि अब यहाँ से निकल चलना चाहिए। थोड़ी
देर में ऊपर की बर्फ वहाँ से उतरकर यहाँ तक आ पहुँचेगी। साथ
में बादल और बारिश भी। हमने यूमथांग छोड़ा तब तक बर्फीली हवा
रफ्तार पकड़ चुकी थी और हमारे पीछे दौड़ती चली आ रही थी। हमारे
पीछे, वहाँ, बर्फीली आँधी होगी और भारी बर्फ पड़ रही होगी। हो
सकता है कि कल जो लोग यहाँ आयेंगे उन्हें दोनों नदियाँ, लाचुंग
और लाचेन बर्फ से ढँकी हुई मिलें।
गंगटोक वापस पहुँचने में शाम को तो होना ही था। लेकिन १०-१२
कि.मी. पहले ही साथ की एक टैक्सी बिगड़ गई और बकाया सभी
टैक्सियाँ वहीं की वहीं कतार बाँधकर उस पहाड़ी कगार पर ठहर गई।
वहाँ डेढ़ दो घंटे लग गये।
झुकती हुई शाम का यह जादुई एकांत अनायास ही हमारे हिस्से में
चला आया। इस जादुई समय में तारे उग रहे हैं और नीचे, तलहटी में
बसे गाँव जाग रहे हैं। आँखें खोलकर तारों को देख रहे हैं।
गाँवों में यह, दिया बाती का समय है। थोड़ी देर में सारे का
सारा आकाश तारों से भर गया। और सारी बस्तियों में रोशनियाँ
दिपदिपाने लगीं। क्या, ये बस्तियाँ दिया बाती के लिए तारों के
उगने का रास्ता देखती हैं?
सिक्किम हरा भरा है। पानी से भरपूर है। यहाँ की हरियाली इसी,
भरपूर पानी से है।
सिक्किम में गरम मसाले वाली बड़ी इलायची खूब होती है। बड़ी
इलायची का सबसे बड़ा उत्पादक और निर्यातक सिक्किम ही है। रास्ते
भर इसी विज्ञापन के बड़े-बड़े होर्डिंग्ज लगे हुए हैं। यहाँ की
जलवायु उसके लिए उपयुक्त है। मैंने अब तक इलायची को फलते हुए
नहीं देखा है। न बड़ी, न छोटी। न उसके पेड़ पौधे, न पत्तियाँ।
यहाँ इस पहाड़ी कगार पर इलायची ही इलायची है। नीलगिरी सी लम्बी
-लम्बी पत्तियों वाली टहनियाँ झुक कर मेरे इतने पास चली आईं कि
मैंने एक हरी पत्ती तोड़कर उसे हथेलियों में दबाया और नाक से
लगा लिया। और उसकी सुवास से नाता जोड़ा।
अंग्रेजों के जमाने में बसाये गये हिल स्टेशनों से अलग, गंगटोक
में कोई मॉल नहीं है। सिक्किम का भारत में विलय, अंग्रेजों के
भारत से जाने के बाद हुआ है। यहाँ का महात्मा गाँधी मार्ग ही
यहाँ का मॉल है। लेकिन बकाया के हिल स्टेशनों की तरह,
अंग्रेजों के जमाने का एक नियम यहाँ भी लागू है। शाम ६:०० से
रात ८:०० बजे तक सबसे भीड़ वाले समय में, यहाँ के महात्मा गाधी
मार्ग पर वाहनों के आने जाने पर पाबंदी है। एन.एच.पी.सी.
(नेशनल हाइडिल पावर कार्पोरेशन ) का गैस्ट हाउस महात्मा गाँधी
मार्ग पर ही है, जहाँ हम ठहरे हुये हैं। हमें रास्ते में देरी
हो गई थी लेकिन उसका एक फायदा हुआ कि हमारी टैक्सी को सीधे
गैस्ट हाउस तक पहुँचने के लिए रास्ता मिल गया।
हिन्दी की मुख्य धारा से अलग थलग पड़ गये कुछ स्थानों में,
हिन्दी साहित्य से जुड़े हुये कुछ ऐसे काम हो रहे हैं जिनका
उल्लेख होना चाहिए। सिलीगुड़ी (प.बंगाल) से प्रकाशित होने वाली
एक अनियतकालीन साहित्यिक पत्रिका "सृजनपथ" मुझे ऐसा ही काम
लगता है। अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थिति के कारण सिलीगुड़ी, एक
तरह से पूर्वोत्तर राज्यों के लिए प्रवेश द्वार भी है। इसलिये,
हिन्दी साहित्य के लिए, यहाँ शुरू किये गये किसी काम को भी
यहाँ से सभी पूर्वोत्तर राज्यों तक पहुँचाया जा सकता है।
"सृजनपथ" को मैं इस तरह भी देखता हूँ। और महत्वपूर्ण मानता
हूँ। डॉ. रंजना श्रीवास्तव इसकी सम्पादक हैं। उनके पति, सुधीर
एन.एच.पी.सी. में एक बड़े अधिकारी हैं। यहाँ, गंगटोक में हमारे
लिए, इस गैस्ट हाउस का इंतजाम सुधीर ने ही किया है।
गैस्ट हाउस के केयर टेकर का नाम तारा है। तारा नेपाली है,
हमारे लिए, जिस ट्रैवल एजेंट को उसने तय किया है वह भी नेपाली
है। दीपक राई। मन तो था कि एक दिन का आराम मिल जाता, लेकिन
दीपक राई ने, कल का कार्यक्रम पहले से ही बना रखा है। सुबह ८:०० बजे नाथुला के लिए निकलना है।
टैक्सी के साथ दीपक राई खुद पहुँच गया। उसने बताया कि
सिविलियनों के लिए नाथुला चौकी, सुबह से ११:०० बजे दिन तक ही
खुली रहती है। जितनी जल्दी पहुँचेगें, वहाँ रहने और देखने के
लिए उतना समय अपने हाथ में रहेगा। यहाँ पहुँचने पर पता चला कि
दिन में ११:०० बजे के बाद, इस बर्फीली चौकी पर मौसम आक्रामक
होने लगता है, तेज बर्फीली आँधियाँ शुरू हो जाती हैं। फिर यहाँ
ठहरना मुश्किल हो जाता है।
अभी धूप खिली हुई है और आकाश चमकीला है। वैसे ही जैसे, वहाँ,
यूमथांग में था। हवा की छुअन में भी वैसी ही ठण्डक है जैसी
वहाँ यूमथांग में थी। यह छुअन पहले तो ठण्डे हाथों से सहलाती
है। फिर, भारी होने लगती है। उसमें नुकीलापन आने लगता है और यह
नुकीलापन बदन में चुभने लगता है।
रास्ते में पड़ने वाले घर खाली हैं। दरवाजों पर ताले लटक रहे
हैं और बाहर सूनेपन का पहरा पड़ा हुआ है। सूने घरों की देहरियों
पर, ऊपर तक बर्फ चढ़ आई है। घरों पर टीन की छप्परें हैं। इन
छप्परों को भी बर्फ ने पूरी तरह से ढाँक लिया है और उनका लाल
रंग भी, अब नहीं दिख रहा है। जब यहाँ भारी बर्फ पड़ती है तब, सब
जमकर बर्फ हो जाता है पीने के लिए पानी भी नहीं बचता। रोजमर्रा
की जिन्दगी दुष्कर हो जाती है। तब यहाँ के लोग उतर कर नीचे चले
जाते हैं। फिर अच्छे मौसम के साथ वापस लौटते हैं। तब तक उनके
घर यहाँ, इस सफेद बियाबान में ऐसे ही अकेले दिन गुजारते हैं।
और उनकी वापसी का रास्ता देखते हैं। बर्फ से ढँके इन सूने घरों
को ऐसे अकेले और उदास देखना, अपने मन में भी वही सफेद बियाबान
रचने लगता है, जो बाहर फैला हुआ है।
यहाँ से आगे नागरिक बस्तियाँ नहीं, सिर्फ सैन्य चौकियाँ है। और
ये सैन्य चौकियाँ रास्ते की दूरियाँ नहीं, सिर्फ पहाड़ों की
ऊँचाइयाँ बताती है। नाथु ला गेट से पहले १३,८४० फीट की ऊँचाई
पर शेरथांग चौकी है। यह ऊँचाई समुद्र सतह से नापी हुई है।
शेरथांग चौकी पर परमिटों की जाँच होती है। नाथु ला समुद्र सतह
से १४,४२० फीट की ऊँचाई पर है।
यहाँ रात एकदम सफेद, हिमउजास होती होगी और नींद इतनी भारी कि
आसमान तक सन्नाटा खिंच जाये। तब कोई, यहाँ बैठा, हारमोनियम
बजाता होगा और काली पाँच के साथ सुर मिलाकर भारी रात का गीत
गाता होगा। रात के ऐसे ही किसी हिम उजास समय में यति निकलता
होगा, यहाँ आता होगा और संगीत सुनता होगा। फिर, रात के हल्की
पड़ने से पहले ही अदृश्य भी हो जाता होगा। जो नींद से बच पाया
होगा, उसने यति को देखा होगा। जो नींद से बचेगा, वो यति को
देखेगा।
नाथु ला गेट से नाथुला चौकी दिखने लगती है। सीधे सर के ऊपर।
उससे ऊपर सिर्फ आसमान है। बीच में कुछ नहीं। यह खड़ी चढ़ाई वाला
रास्ता हृदय रोगियों के लिए खतरनाक हो सकता है। इसलिये उनके,
यहाँ से आगे जाने पर प्रतिबंध है। दमा के रोगियों के लिए भी
परेशानी हो सकती है। लेकिन, यहाँ तक पहुँचने के बाद किसका मन
यहाँ से आगे के खतरे या परेशानी की परवाह करेगा? नाथुला चौकी
यहाँ से०-३ कि.मी. दूर है।
नाथुला गेट भारतीय सीमांत है। सामने, चीन के आधिपत्य वाला
तिब्बत है। यहाँ, भारत और चीन के बीच, बस पतले से काँटेदार तार
का अलगाव है। लेकिन इस पतले से अलगाव के साथ एक अलंघ्य दूरी
जुड़ी हुई है। काँटेदार तार की बाड़ के इधर और उघर, भारतीय और
चीनी सैनिक रात दिन पहरे पर तैनात हैं और उस अलंघ्य दूरी की
रखवाली कर रहे हैं।
उधर की जमीन भी ऐसी ही बर्फ से ढँकी हुई है, जैसी इस तरफ है।
दोनों तरफ की बर्फ एक जैसी ठण्डी होगी, फिर भी उधर की बर्फ को
छूकर देखने का मन करता है। लेकिन छूना मना है। यहाँ से भूटान
का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर "चुम्मा लहरी" दिख रहा है, जो २३९००
फीट ऊँचा है। यहाँ लिखा हुआ है कि भारत के स्वप्नदृष्टा
प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने, १९५८ में यहाँ से
भूटान की यात्रा की थी। उनकी वह यात्रा सड़क मार्ग से हुई थी।
और वे चुम्बी घाटी पार करके भूटान पहुँचे थे। यहाँ से, पूरी की
पूरी चुम्बी घाटी सामने दिख रही है। यह,पंचशील में विश्वास के
दिनों की बात है। जब हिन्दी चीनी भाई चारा अपने उफान पर था।
इधर,बर्फीली हवा में भारत का तिरंगा लहरा रहा है। उधर, चीनी
चौकी पर हँसिया और बाली वाला उनका ध्वज। यहाँ अपनी हद खत्म
होती है और उनकी सरहद शुरू होती है। इधर, सैलानियों का छोटा
मोटा मेला ही है। उधर, केवल सेना का पहरा है। दो पुराने
पारंपरिक पड़ोसी देश अपनी सार्वभौम सत्ताओं के साथ यहाँ कितने
नजदीक हैं? फिर भी दूरियाँ अलंघ्य और सरहदें असहाय। यहाँ, एक
दूसरे के स्वागत और अभिवादन के काम में आने वाले शब्दों के साथ
-साथ दोस्ती और सद्भाव जैसे कुछ औपचारिक शब्दों के हिन्दी चीनी
पर्यायों की एक तैयार सूची बनी हुई है। इस सूची से पर्यटकों का
काम चल जाता है। इसमें शामिल शब्द तार की बाड़ के उधर तैनात
सैनिकों के साथ संवाद कायम करने के काम में आते हैं। इस संवाद
में मुस्कुराना और हाथ मिलाना तो शामिल है लेकिन उपहार लेना
देना एकदम मना है।
मैंने भी बाड़ से बाहर अपना हाथ निकाल कर, उस तरफ खड़े एक चीनी
सैनिक से हाथ मिलाया और उसे छूकर देखा। मैंने उससे, उसका नाम
पूछा और उसकी आवाज़ भी सुनी। उसने अपना नाम बताया-प्राजाँग
सोरी। पंचशील के रास्ते में एक बार हुये धोखे के बाद, यह भारत
चीन व्यापारिक संबंधों का दौर है। इसके लिये प्राचीन रेशम पथ
को नयी शुरुआत के साथ खोला गया है। पुराने व्यापारिक संबंधों
को फिर से शुरू करने के लिये इस ऐतिहासिक रेशम पथ को खोलने का
समझौता किया गया है। यह समझौता नया है, लेकिन रेशम पथ पुराना
है और वह यहाँ से होकर गुजरता है। चीनी यात्री ह्यूएन त्सांग
इसी रास्ते से भारत आया था। गंगटोक के इंस्टीट्यूट ऑफ
टिबेटोलाजी के आचार्य लामाओं ने मुझे इस प्रश्न का कोई सीधा
उत्तर नहीं दिया था कि यति यथार्थ है या मिथक? यह मिथक, बौद्ध
संस्कृति वाले, पूर्वी हिमालय के लोगों का विश्वास है। जैसे
यह,एक मिथक उनका विश्वास वैसे ही चीनी यात्री ह्यूएन त्सांग
(या युआन च्वांग) का भारत आना मुझे किसी फैन्टेसी की तरह रेशमी
और काव्यात्मक लगता है। यह मेरी जिज्ञासाओं को इतिहास से भटका
कर एक काल्पनिक यथार्थ के रास्ते पर अकेला छोड़ देता है। इतिहास
की मानें तो वह चीनी यात्री ६३९ ई॰ में भारत आया था।
ह्यूएन त्सांग ने नाथुला दर्रे से होकर भारत में प्रवेश किया
था। वह अपने साथ चीन का असली रेशम लेकर आया था। इसलिये जब इस
रास्ते को इतिहास में जगह दी गई तो इसे रेशम पथ कहा गया। इस
रेशम पथ की लंबाई ५६३ कि.मी. बताई गई है। वह यहाँ, इस सैन्य
चौकी पर लिखा हुआ है। इस समय मैं वहीं खड़ा हुआ हूँ; इसका मुझे
विश्वास नहीं हो रहा है। वहाँ पहरे पर तैनात, भारतीय सेना के
एक सिपाही ने मेरी इस असमर्थता को ताड़ लिया और उस तरफ उँगली
दिखाकर बताया-वो, सामने दिख रहा है।
लेकिन सफेद बर्फ से आगे मुझे कुछ नहीं दिखा।
मौसम बिगड़ने लगा। पहले बादल घिरे और गहराये। फिर हवा ने जोर
पकड़ा। अब, थोड़ी देर में बर्फीली आँधियाँ चलने लगेंगी। तब यहाँ
कुछ भी नहीं दिखेगा। यहाँ ठहरना भी मुश्किल हो जाऐगा। सैनिकों
ने चौकी खाली करानी शुरू कर दी।
जब तक हम नीचे उतरे और झाँगू तक पहुँचे, तब तक नाथूला चौकी
बर्फीली आंधियों से घिर चुकी थी। और यहाँ, भरी दोपहरी में शाम
की तरह का अँधेरा उतराने लगा था। दुकानों में बिजली की
बत्तियाँ जल रही हैं और सैलानी खरीदारियाँ कर रहे हैं। बाजार
रंग बिरंगी झंडियों और बन्दनवारों से सजा धजा है। इस सजे धजे
बाजार में अच्छी रौनक है।
झाँगू झील इस समय एकदम शांत है। झील के किनारे सजे धजे याक
सैलानियों का रास्ता देखते खड़े हैं। यहाँ आने वाले सैलानी इन
सजे धजे याकों की पीठ पर सवार होकर, झील किनारे फोटो खिंचाते
हैं। और यहाँ की निशानी के तौर पर अपने साथ ले जाते हैं।
बर्फबारी का मौसम जब नीचे तक पहुँचेगा तब यहाँ, झील का पानी जम
जायेगा। तब, यहाँ खड़े ये याक वहाँ दिखेंगे जहाँ, अभी पानी दिख
रहा है। वहाँ लाचुंग और लाचेन नदियों के संगम तट पर
स्थितप्रज्ञ से बैठे हुए याक मुझसे दूर भाग रहे थे। और यहाँ?
सज धज कर ग्राहकों का रास्ता देखते खड़े हैं।
यहाँ पहुँच कर बोध होता है कि यह किसी प्राचीन व्यापारिक पथ पर
पड़ने वाला कोई बहुत बड़ा पड़ाव रहा होगा। बोध होता है कि चीनी
रेशम का वह व्यापारी नाथुला से उतर कर, इसी रास्ते आया होगा और
उसने भी यहाँ पड़ाव किया होगा। यहाँ उसने अपने याकों को भी आराम
दिया होगा जो अपनी पीठ पर रेशम का बोझ लादे ५६३ कि.मी. की दूरी
तय करके आ रहे थे। क्या, ह्यूएन त्सांग याक पर आया था?
सुनते हैं कि मिंग राजवंश की रानियाँ, राजकुमारियाँ सुन्दर और
कमनीय होती थीं। रेशम की शौकीन होती थीं। उन रानियों,
राजकुमारियों की कितनी-कितनी प्रेम कथाएँ और रनिवासों में चलने
वाली दुरभिसंधियों के रहस्य भी अपने साथ लेकर चीनी रेशम का वह
व्यापारी नाथु ला के रास्ते भारत आया होगा? ह्यूएन त्सांग ने
यहाँ के लोगों को और, जाने कितने देशों से यहाँ आकर पड़ाव कर
रहे दूसरे सौदागरों को भी, वह सब सुनाया होगा और सुनाकर
विस्मित किया होगा।
झाँगू का बाजार तिब्बती नस्ल की भोटिया स्त्रियों के हाथों में
है।
मैं कभी तिब्बत नहीं गया हूँ। लेकिन यहाँ ऐसा लगता है कि
तिब्बत में व्यापारिक बस्तियाँ ऐसी ही होती होंगी। दलाई लामा
के साथ उनके जिन अनुयाइयों ने वहाँ से पलायन किया था और भारत
में आकर बसे थे, वे लोग सर्दी के दिनों में, अपने ठंडे पहाड़ी
आवासीय शिविरों से उतरकर नीचे, मैदानों में आते हैं और सड़कों
की पटरियों पर गरम कपड़ों के बाजार सजाते हैं। उनकी दुकानों की
सजावट भी ऐसी ही होती है जो यहाँ बाजार में दिख रही है। शायद
यही, तिब्बत के बाजारों की पारंपरिक संरचना है। यह पांरपरिक
संरचना ही यहाँ, तिब्बत की किसी छोटी मोटी व्यापारिक बस्ती का
बोध कराती है।
झाँगू से निकलकर गंगटोक वापस पहुँचना तो और भी अलग किस्म की
अनुभूति कराता है। यह, पीछे छूट गये किन्हीं बहुत पुराने दिनों
से बाहर निकल कर, एकदम से आज के अपने समय में वापस लौटने जैसा
अनुभव है। |