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७. १०. २०१३

इस सप्ताह-

अनुभूति में-
सीमा अग्रवाल, राजेन्द्र पासवान घायल, दीप्ति शर्मा, अभिषेक जैन और विनय बाजपेयी की रचनाएँ।

- घर परिवार में

रसोईघर में- हमारी रसोई-संपादक शुचि द्वारा नवरात्र के अवसर पर व्रत और अतिथि सत्कार के लिये प्रस्तुत है फलाहारी व्यंजनों का विशेष संकलन।

रूप-पुराना-रंग नया- शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें रूप बदलकर-  टायर से बना सुंदर स्टूल

सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी- दुर्गा पूजा

- रचना और मनोरंजन में

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला- ३० का विषय है "शहर में दीपावली",  रचना भेजने की अंतिम तिथि है- २४ अक्तूबर। विस्तार से यहाँ देखें।

साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये यहाँ देखें।

लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत- इस सप्ताह प्रस्तुत है १६ मई २००६ को प्रकाशित मधुसूदन आनंद की कहानी—तलवार

वर्ग पहेली-१५४
गोपालकृष्ण-भट्ट
-आकुल और रश्मि आशीष के सहयोग से

सप्ताह का कार्टून-
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य एवं संस्कृति में-  

समकालीन कहानियों में भारत से
सिमर सदोष की कहानी तुलसी का बिरवा

आसपास के सभी गाँव मछुआरों के थे-और इनके बीच में होकर बहती थी एक चौड़ी, बेतरतीब-सी पहाड़ी नदी। बारिश होती, तो जैसे इस नदी में एक उफान-सा आ जाता। न होती, तो उतनी ही तेजी से सिकुड़ भी जाती। यह नदी उनकी रोटी-रोजी का जरिया थी, और उनके जीने-मरने का साधन भी। नदी जब उफान पर होती, तो पार जाने के लिए नावों का सहारा लेना पड़ता.... अन्यथा चलकर भी पार चले जाते थे लोक। इस इलाके के लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना ही था। दुकानें भी थीं कुछ....नाम मात्र की। बारिश होती, तो भी लोग मरते-भूख से भी, और पानी में बहकर भी। बारिश न होती, तो भी लोग मरते-सूखा पड़ने के कारण, कई बार महीनों तक रोजगार नहीं मिलता। यही उनकी नियति भी-उनकी नीयत भी। तथापि वे थकते नहीं थे...विपदा के समय भागते भी नहीं थे। कभी गाँव से जाते भी, तो शीघ्र लौट भी आते-मिट्टी का मोह खींच लाता उन्हें फिर से अपने घर। अपने गाँव और आस-पास की धरती के इलावा कुछ भी बाहरी अथवा पराया नहीं था उनके बीच। उनके अपने बीच में ही हो जाता था रोटी-बेटी रिश्ता। किसी के घर खुशी होती, तो पूरे गाँव के लोगों के पाँव थिरकने लगे। आगे-
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डॉ. सरस्वती माथुर की लघुकथा
आँगन की तुलसी
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डॉ.अनुराग विजयवर्गीय की
कलम से- तुलसी का महत्व
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पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे से जानें
नवदुर्गा के औषधि रूप
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पुनर्पाठ में- मीरा सिंह का आलेख-
बेटी की तरह उठती है तुलसी की डोली

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पिछले सप्ताह- मातृनवमी पर माँ के लिये


ज्योति जैन की
लघुकथा- देवी
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अनंत आलोक का आलेख
माता बाला सुंदरी
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अजातशत्रु की संस्मरण
गाँव में नवदुर्गा
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पुनर्पाठ में- देव प्रकाश का आलेख
दुर्गा पूजा का सांस्कृतिक विश्लेषण

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समकालीन कहानियों में
भारत से अमर स्नेह की कहानी माँ

त्रिवेणी तट लोगों से अटा पड़ा है। मानवी सैलाब थमने का नाम ही नहीं लेता। जहाँ तक दृष्टि जाती है छाजन, गुमटियाँ, तम्बू, पंडाल, लहराते झंडे-झंडियाँ, धर्म पताकाएँ। हर तरफ धर्माचारी, भाँग, चरस, सुलफे में लीन। कहीं भी पैर रखने तक की जगह नहीं। दानी-धर्मी, निरंकारी, सेठ-साहूकार, भिखारी, योगी, नागा, साधु-संन्यासी, गृहस्थ, फक्कड़, बाल-वृद्ध, नर-नारी की आवाजाही, रेलमपेल। स्नान-ध्यान, कीर्तन-आरती, हवन-यज्ञ, प्रवचन-भंडारे, घंटे-घड़याल, झाँझ-मंजीरे, धौंसे-डफ-डमरू-ढोल, बिगुल-शंख-करतालों की ध्वनि, जयकार करता जनसमूह और नदी का कोलाहल। कुल मिलाकर इतना शोर कि अपनी भी आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे में एक बूढ़ी औरत भीड़ के बीच एक टीले पर खड़ी दूर तक पास से गुजरते एक-एक चेहरे को गौर से देखती है और निराश होकर पुकारना शुरु कर देती है। जब वह थक जाती है तो वहीं बैठ जाती है और फिर वही क्रम दोहराने लगती है। उसे देखकर लगता है, जैसे बाँस के बीहड जंगल में कोई पक्षी फँसकर चीख-चिल्ला रहा हो। मैं उसे काफी दूर से देखता आ रहा था। आगे-

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यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को प्रकाशित होती है।


प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन

 
सहयोग : कल्पना रामानी -|- मीनाक्षी धन्वंतरि
 

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