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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
भारत से
मधुसूदन आनंद की कहानी- 'तलवार'  


दशहरे का दिन था। सुबह से ही परिवार में उत्साह था। माँ पड़ोस से गोबर ले आई थी। उससे रावण के दस सिर बनाए जाने थे। पिता पिछली शाम को ही गन्ना और लौकी ले आए थे। गन्ना दशहरे के दिन पूजा में रखा जाता है। लौकी रायते के लिए आई थी। माँ ने रात में ही दही जमा दिया था। दही के बर्तन को उन्होंने आटे के कनस्तर में रखा था ताकि थोड़ी गर्मी मिले और दही अच्छा जम जाए।

हम भाई बहनों को उठते ही उन्होंने दही के दर्शन कराए और फिर कहा, "आया जो भैया पायता, राम खिलाए रायता।" हम सब भाई बहनों ने समवेत स्वर में यह दोहराया। हल्की-सी खटास लिए मीठी दही का स्वाद हमारे मुँह में भर गया। छोटा तो सचमुच अपने नन्हें होठों पर जीभ फिराने लगा।

सर्दियाँ शुरू नहीं हुई थीं। दिन में धूप अब भी चुभती थी, लेकिन रात होते ही हल्का-सा जाड़ा बढ़ने लगता। हम लोग स्वेटर पहनकर रामलीला देखने जाते। तभी मूँगफलियों का मौसम शुरू होता। भड़भूजे रामलीला स्थल के बाहर मूँगफलियों का ढेर लगाए बैठे रहते। ढेर के बीचोबीच एक कुज्जे में हल्की आँच रहती। भड़भूजा गरम मूँगफलियाँ ग्राहकों को देता। हम मूँगफलियाँ खाते हुए रामलीला देखते। तब हमारा सोने और उठने का ढर्रा गड़बड़ा जाता और देर से उठने पर हम पिता से डाँट खाते।

लेकिन रात में रामलीला देखकर देर से सोने के बावजूद हम दशहरे के दिन जल्दी उठ गए थे। घर में सचमुच उत्साह था। हमारे नए कपड़े और जूते रात में ही आ गए थे। हर दशहरे पर हमारे नए कपड़े बनते। पिता जूते बनाने वाले के पास हमें ले जाते। वह हमारे पैरों की नाप लेता। दशहरे से पहले हमारे नये कपड़े सिलकर और जूते बनकर आ जाते। हम झूठ-मूठ उन्हें पहनने का प्रदर्शन करते और खुश होते। माँ और पिता हमें खुश देखकर और भी खुश हो जाते। नहा-धोकर जब हम नए कपड़े और जूते पहनकर मटकते तो माँ कहतीं, 'यह रंग बब्बू पर खूब फबा है। दर्ज़ी ने इसकी निक्कर और बुशर्ट अच्छी सिली है पर जूते वाले ने बूट की नोक ठीक नहीं बनाई है।' पिता तब समझाते कि यह चालू फ़ैशन के अनुसार उन्हीं के निर्देश पर मोची ने बनाई है। ऐसे ही माँ अगर किसी बच्चे के कपड़े की सिलाई में कोई कमी निकालतीं तो पिता फ़ैशन का तर्क़ देकर उन्हें चुप करा देते। हमें वे बेहद साधारण कपड़े और जूते तब बेहद अच्छे लगा करते। हम अपने को शहज़ादा समझते।

मोहल्ले के दूसरे घरों में भी कुछ बच्चे अपने नए कपड़े और जूते एक-दूसरे को दिखाते और हर अपनी चीज़ को ज़्यादा कीमती और आकर्षक मानता। पर किसी को भी हीन भावना नहीं होती थी। पूरा मोहल्ला ही प्राय: निम्नमध्यवर्गीय परिवारों वाला था। एकाध जो रईस परिवार था भी उनके बच्चों के कपड़ों और जूतों से उसकी अमीरी नहीं टपकती थी। उन घरों में प्राय: गाय या भैंस होती। एक-दो नौकर-चाकर होते। उनके बच्चे मौसमी फलों के अलावा सेव और संतरे जैसे उन दिनों के महँगे फल खाते। कई बार वे अपनी जेबों में भरे सूखे मेवों से हमें चिढ़ाते और फिर थोड़े अकड़वाले भाव से काजू और चिलगोज़े, बादाम और किशमिश हमें चखा देते। इसके बावजूद हमें अपनी साधारणता को लेकर किसी भी तरह का कोई कांप्लेक्स नहीं होता। हम उन रईस बच्चों के साथ उसी तरह खेलते और उनको पीट भी देते। कई बार हमारी भी पिटाई हो जाती। कई बार उन बच्चों के पास क्रिकेट का बल्ला, कैरम या बैडमिंटन का रैकेट होता, तब हमें वाकई ईर्ष्या होती और हम मां और पिता से उन्हें दिलाने की मांग करते। अमीरों के बच्चे हमें अपने साथ जब ये खेल भी खिलाते तो हमारी मांग धीरे-धीरे कम हो जाती। हम बचपन के उस तमाम सादेपन में भी खुश रहते। दशहरे जैसे त्योहारों पर वह खुशी बढ़ जाती और कई-कई दिनों तक बनी रहती। हमें कभी लगा ही नहीं कि हमारे पास अच्छे कपड़े या खिलौने नहीं हैं। जो भी हमारे पास था, उसे ही हम बहुत ज़्यादा समझते थे और खुश रहते थे। उत्सव और मेले हममें उत्साह और प्रसन्नता उँडेलते।

माँ और पिता के पास तो पहनने के लिए भी कपड़े नहीं थे, जितने हमारे पास थे। पर उनकी खुशी हमसे कहीं ज़्यादा थी। माँ कम से कम पैसों में घर का खर्च चलातीं और पिता चार वक्त की हमारी दाल-रोटी के साथ एक बार के दूध के लिए टयूशन करते। पर हाय-हाय उन्हें नहीं थी। वे हर त्योहार को खुशी से मनाते थे और बिल्कुल साधारण-सी चीज़ें भी हमारी खुशी का सामान बन जातीं। हमारा कच्ची छत और लखौरी इंटों के फ़र्श वाला छोटा-सा घर उस खुशी में दीप्त हो उठता। माँ एक ढिबरी में खाना पकातीं और हम भाई-बहन पिता के साथ लालटेन के चारों ओर बैठे पढ़ते रहते। हमें खिलाने के बाद ही माँ खातीं। अक्सर सब्ज़ी या दाल बहुत कम होती। माँ अचार से उसे बिना किसी असुविधा के - बल्कि पूरे स्वाद से खातीं। त्योहारों पर मीठी पूरियाँ, पूड़े, चिल्ले, जैसी चीज़ें बनतीं। ये त्योहार बार-बार आते और पूरे घर को उत्साह से भर देते। इन साधारण घरेलू पकवानों का स्वाद एक अलग ही उत्सुकता रचता था।

पिता कहते थे हमारे शास्त्रों के अनुसार हिंदुओं के चार वर्ण हैं। रक्षाबंधन ब्राह्मणों का, दशहरा क्षत्रियों का, दीपावली वैश्यों का और होली शूद्रों का त्योहार है लेकिन इनके मनाने में कोई विभाजन नहीं है। सब सभी त्योहारों को समान रूप से मनाते हैं। लेकिन होली पर हम शूद्रों से गले नहीं मिलते थे और दीपावली पर तमाम दलितों को हम खील-बताशे और मिठाई देते थे। तभी बचपन में यह समझ बनी कि हम हिंदू अपने सभी त्योहारों में शूद्रों को शामिल नहीं करते। हम सिखों के गुरु पूरब और लोहड़ी तथा जैनों के जलसे-जुलूसों में ज़रूर शामिल हो जाते थे पर मुस्लिम छात्रों के साथ पढ़ने और खेलने के बावजूद ईद हमने कभी नहीं मनाई। हम बचपन में गुरुद्वारों और जैन मंदिरों में गए हैं, लेकिन मस्जिद में हम कभी नहीं गए। और तो और, वाल्मीकि मंदिर में भी हमारा कभी जाना नहीं हुआ। मुसलमानों और शूद्रों के साथ हमने त्योहार नहीं मनाए और जाने-अनजाने उनसे निष्क्रिय घृणा की। लेकिन यह भी सही है कि हमने कभी उनका बुरा भी नहीं किया और न ही ऐसा सोचा कि उनका बुरा हो। पता नहीं यह कैसे हुआ कि हमारे बचपन के वाटर टाइट कंपार्टमेंट में सिर्फ़ सवर्णों का ही प्रवेश हुआ। हमें उनकी तमाम भावनाओं और संवेदनाओं में अपनी से एक रिश्ता लगता था, पर शूद्र और मुसलमान हमें अपने से अलग लगते थे।

वैसे तब भी हमें थोड़ा अजीब-सा लगता था, जब पिता वर्ण-विभाजन बताते हुए कहते थे हम खत्री हैं और हमारा त्योहार दशहरा है, पर जब हम देखते थे कि दूसरे सवर्ण भी हमारी तरह ही दशहरा मना रहे हैं और हमारा परिवार भी उनकी तरह दीपावली, होली और रक्षाबंधन मनाता है, तो हमारी जिज्ञासा मिटने लगती। मगर हम देखते थे कि ब्राह्मण परिवारों में पुस्तक और कलम-दवात की, वैश्य परिवारों में तराजू और बही-खातों की तथा क्षत्रिय परिवारों में प्राय: तलवार और कटार की पूजा ज़रूर होती है। कुछ परिवारों में ये सारी चीज़ें पूजा में रखी जाती थीं, लेकिन अपने वर्ण को दर्शाने वाली चीज़ें वहाँ ज़रूर होती थी। हम कल्पना करते कि दशहरे को शूद्र कैसे मनाते होंगे। क्या उनके यहाँ भी गोबर के दस सिरों वाला रावण बनता होगा। पर जब हम इन त्योहारों पर इन्हें त्योहारी या तिवहारी माँगते देखते तो हमें लगता कि हमारे कस्बे में तो दलित जातियाँ हमारी तरह ये त्योहार नहीं ही मनाते। हम पिता से पूछते कि ब्राह्मण का प्रतीक चिह्न तिलक, वैश्य का तराजू और क्षत्रिय का तलवार है तो शूद्र का क्या हुआ। वे कोई एक प्रतीक न बता पाते और तब हमारे घर हर सुबह कमाने आने वाली मेहतरानी ही हमारे लिए प्रतीक बन जाती, जिससे बचपन से ही हमारा रिश्ता एक कमीनी उपेक्षा का बनता गया।

दशहरे के दिन पिता में वाकई उत्साह होता। वे बुखारी से पुरानी तलवार को निकालते। उसके कटे-फटे म्यान को सँभालकर एक ओर रखते और फिर काफ़ी देर तक ईंट के टुकड़े से उसे चमकाते। वे बताते यह हमारे पूर्वजों की तलवार है। हम क्षत्रिय हैं और हमारा काम लड़ना है। तलवार की चमचमाहट वर्षों पहले गा़यब हो गई होगी। पर पिता उस दिन उसकी रूह निकाल देते। हम कल्पना करते कि हमारा कोई पुरखा घोड़े पर बैठा है। उसने पगड़ी बाँधी हुई है। उसके लंबी सफ़ेद दाढ़ी है। वह कोई योद्धा है। हमें वह महाराणा प्रताप और शिवाजी जैसा लगता। एक रोमांच और गर्व से हम फूल उठते। पिता तलवार को तौलिये से पोंछकर और चमकाते और फिर ईंटों वाले उस ऊबड़-खाबड़ आँगन में तलवार चलाकर हमें दिखाते। पतले-दुबले पिता तलवार चलाते हुए हमें वीर योद्धा लगते। वे बड़ी फ़ुर्ती से वार करते और हवा में वार रोकने का प्रदर्शन करते। पिता आँगन में ईंट से लाइन खींचकर चार घेरे बनाते और हमें पैंतरों का ज्ञान कराते।

तलवार बिल्कुल सीधी और लंबी थी। उसकी नोक कुछ नुकीली थी और चमकाने पर भोथरी धार निखर आती थी। पिता उस पर सावधानी से उँगली फिराते थे और फिर कहते थे कि इसकी धार लगवानी पड़ेगी। गोबर के सिर बनाने के बाद आटे से रावण और उसकी अगल-बगल राम, लक्ष्मण बनाती माँ के तब कान खड़े हो जाते और वह कहती, "धार का क्या करना है? हमें कौन-सा युद्ध लड़ना है।"
पिता का क्षत्रिय होने का अहसास तब ज़ोर मारने लगता। वे कहते, "घर में हथियार हो तो बुराई का क्या है।"
माँ पूछती, "हमारा दुश्मन कौन है?"
पिता कहते, "कोई नहीं है पर कोई लुटेरा घर में आ जाए तो हथियार ही काम आते हैं।"
माँ प्रश्न करती, "चोर क्या तुम्हें ख़बर देकर आएगा और तुम बुखारी से पहले ही तलवार निकाल लोगे?" फिर माँ अंतिम फ़ैसला सुना देती कि बच्चों वाले घर में मैं तलवार जैसा हथियार बाहर निकालने के पक्ष में नहीं हूँ। पिताजी निरुत्तर हो जाते। वे रावण के पास तलवार खड़ी करके अपने काम में लग जाते। ऐसा प्राय: हर दशहरे पर होता। दशहरा पूजने के बाद जब माँ रावण को उठाती और हम सबको घर से बाहर जाना होता, तो माँ सबसे पहले तलवार को उसकी म्यान में डालकर बुखारी में रख आती। फिर एक साल तक तलवार की घर में कोई चर्चा नहीं होती। अलबत्ता जब घर में सफ़ेदी वगैरह होती तो वह म्यान सहित निकलती और हम उसे म्यान से निकालकर चलाना चाहते। लेकिन हमारा प्रयास तत्काल विफल कर दिया जाता और हम मन मसोसकर रह जाते।

इस बार दशहरे पर पता नहीं पिता को क्या सूझा, उन्होंने हम बच्चों से कहा कि जो भी तलवार चलाकर दिखाएगा, उसे इनाम मिलेगा। उन्होंने पहले पैंतरे सिखाए और फिर तलवार छोटू के हाथ में थमा दी। तलवार उसकी छाती तक आती थी। उसे हाथ में लेते ही, वह उत्साह और रोमांच से भर उठा। वह पिता की तरह तलवार चलाने लगा। पिता उसे देखकर मुग्ध हो रहे थे। उधर माँ ज़ोर-ज़ोर से उससे तलवार रख देने को कह रही थीं। मगर उसमें पता नहीं कहाँ से स्फ़ूर्ति और ताकत आ गई थी। वह और दुगने वेग से तलवार चलाने लगा। माँ और पिता के रोकते-रोकते वह घर से बाहर को भागा। हम भी पीछे-पीछे भागे। उसने शायद बाहर उस कुत्ते को देख लिया था जो मेहतरानी रोटी के लिए दरवाज़े के बाहर फसकड़ा मारकर बैठ जाती और कुत्ते से बात करती रहती। कुत्ता शांत और एकाग्र होकर सुनता। रोटी मिलने पर मेहतरानी उसे रोटी नहीं देती, तभी वह भौंकता। छोटू ने हमारे देखते ही देखते कुत्ते की तरफ़ तलवार कर दी। यह देखकर कुत्ता ज़ोर-ज़ोर से भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने पर छोटू अक्सर दुम दबाकर भाग जाया करता था। पर आज तो उसके हाथ में लंबी तलवार थी। उसने उसकी नोक कुत्ते को चुभो दी। कुत्ता दर्द से चिल्लाने लगा और मेहतरानी 'राम-राम क्या ज़माना आ गया है', कहती हुई, कुत्ते को सहलाने लगी। हमारे देखते-देखते वह भोथरी तलवार कुत्ते को गहरा घाव दे गई। एक मनोवैज्ञानिक घाव पिता को भी लगा लेकिन माँ को कहीं अधिक। वह कुत्ते को हुई पीड़ा से बेहद दुखी हुई। वह छोटू को डाँटने लगीं। उससे तलवार छीन ली गई। त्योहार के दिन घर में हल्का-सा विषाद उतर आया। जो चुभते कोलाहल के ऊपर तैर रहा था।

माँ ने कहा, "मैं कहती हूँ इस तलवार को किसी को दे दो। हथियार अपने पराये में भेद नहीं करता।"
"क्या बात करती हो, पुरखों की तलवार किसी को दे दूँ,' पिता ने कहा।
"यह हमारे किसी काम की नहीं।" माँ ने कहा।
"क्या पुरानी है तो बेकार हो गई? कभी यह हमारे पुरखों के काम आई थी।" पिता ने कहा।
"पर अब यह बेकार है। कौन चोर तलवार लेकर आता है। आजकल चोर-लुटेरे देसी कट्टा रखते हैं।" माँ ने कहा और फिर गुस्से में फ़ैसला दे दिया कि मैं इस ख़तरनाक चीज़ को घर में हरगिज़ नहीं रखूँगी।

पिता को समझ नहीं आ रहा था कि वह इस तलवार पर गर्व करें या अभी जो हुआ है उस पर लज्जित हों। उनके पास कोई जवाब नहीं था।

माँ पिता की भावनाओं को समझ रही थीं। उन्होंने तलवार पर कलावे से नौरते बाँधे गए जो पहले नवरात्र को कनस्तर में बोये जाते थे और जो दशहरे पर लंबे-लंबे उग आते थे। फिर तलवार को रोष और निष्ठुर उपेक्षा के साथ रावण के पास पूजने के लिए रख दिया गया। उस दिन सारे परिवार को वह तलवार रावण की तरह लगने लगी।

१ अक्तूबर २००६ 

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