नवदुर्गा
के औषधि रूप
पं. सुरेन्द्र बिल्लौरे
शारदीय नवरात्र के पहले दिन घट स्थापन कर दुर्गा की
प्रतिमा की स्थापना की जाती है और भक्त पूरे नौ दिन
व्रत और दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हैं। पूरे नवरात्र
अखंड दीप जलाकर माँ की स्तुति की जाती है और उपवास रखा
जाता है। नवरात्र के अंतिम दिन कन्याओं को भोजन कराकर
यथेष्ट दक्षिणा देकर व्रत की समाप्ति की जाती है। साल
में नवरात्र दो बार आते हैं। चैत्र शुक्ल पक्ष
प्रतिपदा से शुरू होने वाले नौ दिवसीय पर्व को वासंतिक
नवरात्र कहा जाता है। नवरात्र में भगवती के नौ रूपों
की पूजा-आराधना का विधान है। इन नव दुर्गाओं के स्वरूप
की चर्चा करते हुए ब्रह्मा जी द्वारा महर्षि
मार्कण्डेय के लिये इस क्रम में रचा है।
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ।।
पंचमं स्क्न्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च ।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम् ।।
नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः ।।
नवरात्र के दिनों को तीन भागों में बाँटा गया है। पहले
तीन दिनों में तमस को जीतने की आराधना, अगले तीन दिन
रजस और आखिरी तीन दिन सत्व को जीतने की अर्चना के माने
गए हैं। नवरात्र पर्व का आध्यात्मिक, धार्मिक और
सामाजिक महत्व के अतिरिक्त औषधीय महत्त्व भी है।
मार्कंडेय पुराण में वर्णित देवी महात्म्य में दुर्गा
ने स्वयं को शाकंभरी अर्थात साग-सब्जियों से विश्व का
पालन करने वाली बताया है। इस अर्थ में शाकंभरी जड़ी
बूटियों की देवी भी हैं जो सालभर हमारे शरीर की रक्षा
करती हैं। नवदुर्गा के रूप में वर्णित ये नव औषधियाँ
प्राणियों के समस्त रोगों को हरने वाली और रोगों से
बचाए रखने के लिये कवच का काम करने वाली हैं। ये समस्त
प्राणियों की पाँचों ज्ञानेंद्रियों व पाँचों
कमेंद्रियों पर प्रभावशील हैं। ऐसा माना जाता है कि
इनके प्रयोग से मनुष्य अकाल मृत्यु से बचकर सौ वर्ष की
आयु भोगता है। देवी के नौ रूपों में स्थित ये औषधियाँ
इस प्रकार हैं-
प्रथम शैलपुत्री (हरड़) -
प्रथम रूप शैलपुत्री माना गया है। इस भगवती देवी
शैलपुत्री को हिमावती हरड़ कहते हैं। यह आयुर्वेद की
प्रधान औषधि है जो सात प्रकार की होती है। हरीतिका
(हरी) जो भय को हरने वाली है। पथया - जो हित करने वाली
है। कायस्थ - जो शरीर को बनाए रखने वाली है। अमृता
(अमृत के समान) हेमवती (हिमालय पर होने वाली)।चेतकी -
जो चित्त को प्रसन्न करने वाली है। श्रेयसी (यशदाता)
शिवा - कल्याण करने वाली ।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी
(ब्राह्मी) -
दुर्गा का दूसरा रूप ब्रह्मचारिणी को ब्राह्मी कहा है।
ब्राह्मी आयु को बढ़ाने वाली स्मरण शक्ति को बढ़ाने
वाली, रूधिर विकारों को नाश करने के साथ-साथ स्वर को
मधुर करने वाली है। ब्राह्मी को सरस्वती भी कहा जाता
है। क्योंकि यह मन एवं मस्तिष्क में शक्ति प्रदान करती
है। यह वायु विकार और मूत्र संबंधी रोगों की प्रमुख
दवा है। यह मूत्र द्वारा रक्त विकारों को बाहर निकालने
में समर्थ औषधि है। अत: इन रोगों से पीड़ित व्यक्ति को
ब्रह्मचारिणी की आराधना करना चाहिए।
तृतीय चंद्रघंटा (चन्दुसूर) -
दुर्गा का तीसरा रूप है चंद्रघंटा, इसे चनदुसूर या
चमसूर कहा गया है। यह एक ऐसा पौधा है जो धनिये के समान
है। इस पौधे की पत्तियों की सब्जी भी बनाई जाती है। ये
कल्याणकारी है। इस औषधि से मोटापा दूर होता है। इसलिये
इसको चर्महन्ती भी कहते हैं। शक्ति को बढ़ाने वाली,
रक्त को शुद्ध करने वाली एवं हृदयरोग को ठीक करने वाली
चंद्रिका औषधि है। अत: इस बीमारी से संबंधित रोगी को
चंद्रघंटा की पूजा करना चाहिए।
चतुर्थ कुष्माण्डा (पेठा) -
दुर्गा का चौथा रूप कुष्माण्डा है। इस औषधि से पेठा
मिठाई बनती है। इसलिये इस रूप को पेठा कहते हैं। इसे
कुम्हडा भी कहते हैं। कुम्हड़ा पुष्टिकारक वीर्य को
बल देने वाला (वीर्यवर्धक) व रक्त के विकार को ठीक
करने वाला है। यह पेट को साफ करता है। मानसिक रूप से कमजोर
व्यक्ति के लिये यह अमृत है। यह शरीर के समस्त दोषों को
दूर कर हृदय रोग को ठीक करता है। कुम्हड़ा रक्त पित्त
एवं गैस को दूर करता है। इन
बीमारियों से पीड़ित व्यक्ति को पेठे के उपयोग के साथ
कुष्माण्डा देवी की आराधना करना चाहिए।
पंचम स्कंदमाता (अलसी) -
दुर्गा का पाँचवा रूप स्कंद माता है। इसे पार्वती एवं
उमा भी कहते हैं। यह औषधि के रूप में अलसी के रूप में
जानी जाती है। यह वात, पित्त, कफ, रोगों की नाशक औषधि
है।
अलसी नीलपुष्पी पावर्तती स्यादुमा क्षुमा।
अलसी मधुरा तिक्ता स्त्रिग्धापाके कदुर्गरु:।।
उष्णा दृष शुकवातन्धी कफ पित्त विनाशिनी। इस रोग से
पीड़ित व्यक्ति को स्कंदमाता की आराधना करना चाहिए।
षष्ठम कात्यायनी (मोइया) -
दुर्गा का छठा रूप कात्यायनी है। इस आयुर्वेद औषधि में
कई नामों से जाना जाता है। जैसे अम्बा, अम्बालिका,
अम्बिका इसको मोइया या माचिका भी कहते हैं। यह कफ,
पित्त, रुधिर विकार एवं कंठ के रोग का नाश करती है।
सप्तम कालरात्रि (नागदौन) -
दुर्गा का सप्तम रूप कालरात्रि है जिसे महायोगिनी,
महायोगीश्वरी कहा गया है। यह नागदौन औषधि के रूप में
जानी जाती है। सभी प्रकार के रोगों की नाशक सर्वत्र
विजय दिलाने वाली मन एवं मस्तिष्क के समस्त विकारों को
दूर करने वाली औषधि है। इस पौधे को व्यक्ति अपने घर
में लगा ले तो घर के सारे कष्ट दूर हो जाते हैं। यह
सुख देने वाली एवं सभी विषों की नाशक औषधि है। इस
कालरात्रि की आराधना प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को करना
चाहिए।
अष्टम महागौरी (तुलसी) -
दुर्गा का अष्टम रूप महागौरी है। जिसे प्रत्येक
व्यक्ति औषधि के रूप में जानता है क्योंकि इसका औषधि
नाम तुलसी है जो प्रत्येक घर में लगाई जाती है। तुलसी
सात प्रकार की होती है। सफेद तुलसी, काली तुलसी,
मरुता, दवना, कुढेरक, अर्जक, षटपत्र। ये सभी प्रकार की
तुलसी रक्त को साफ करती है। रक्त शोधक है एवं हृदय रोग
का नाश करती है।
तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी।
अपेतराक्षसी महागौरी शूलघ्नी देवदुन्दुभि:
तुलसी कटुका तिक्ता हुध उष्णाहाहपित्तकृत् ।
मरुदनिप्रदो हध तीक्षणाष्ण: पित्तलो लघु:।
इस देवी की आराधना हर सामान्य एवं रोगी व्यक्ति को
करना चाहिए।
नवम सिद्धदात्री (शतावरी) -
दुर्गा का नवम रूप सिद्धिदात्री है। जिसे नारायणी या
शतावरी कहते हैं। शतावरी बुद्धि बल एवं वीर्य के लिये
उत्तम औषधि है। रक्त विकार एवं वात पित्त शोध नाशक है।
हृदय को बल देने वाली महाऔषधि है। सिद्धिधात्री का जो
मनुष्य
नियमपूर्वक
सेवन करता है, उसके सभी कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते
हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति को सिद्धिदात्री देवी की
आराधना करना चाहिए।
इस प्रकार प्रत्येक देवी आयुर्वेद की भाषा में
मार्कण्डेय पुराण के अनुसार नौ औषधि के रूप में मनुष्य
की प्रत्येक बीमारी को ठीक कर मनुष्य को स्वस्थ करती है। अत: मनुष्य को देवी
की आराधना के साथ साथ औषधियों का सेवन भी करना चाहिए। |