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संस्कृति


बेटी की तरह उठती है तुलसी की डोली
- मीरा सिंह


आस्थाओं, लोक-मान्यताओं और बहुरंगी लोक-संस्कृति के मामले में राजस्थान की विरासत संभवतया सबसे समृद्ध रही हो। यहाँ ऐसे लोग, जातियाँ व समुदाय हैं, जो अपने प्रकृति प्रेम के लिए ही जाने गए और जिन्होंने पेड़ों के लिए कुरबानियाँ तक दी हैं। अनगिनत ऐसे पेड़-पौधे हैं, जो राजस्थान के लोगों की आस्थाओं और मानस में कुछ इस कदर रच बस गए हैं कि इन पेड़-पौधों को लोगों की ज़िंदगी में भी बेहद ऊँची जगह मिली है। कई पेड़ों को पवित्र मानकर उनकी पूजा की जाती है। राजस्थान के अलग-अलग अंचलों में पीपल वृक्ष के साथ तुलसी का पौधा प्रकृति की उन दिनों में से है, जिन्होंने जनमानस में पूजनीय दर्जा हासिल किया है।

दूल्हे के रूप में भगवान

तुलसी के पौधे को राजस्थान में इतना पवित्र माना गया है कि इसके बिना घर को पूर्ण नहीं कहा जा सकता। तुलसी का पौधा घर में घर के किसी सदस्य की भाँति रहता है। घर के आँगन में तुलसी के पौधे के लिए विशेष स्थान बना होता है, जहाँ इसकी नित्य प्रतिदिन पूजा की जाती है। यहाँ तक कि घर में हर शुभ मौके, पर्व व त्यौहार पर तुलसी के पौधे को भी नई चुनरी ओढ़ाई जाती है।

उदयपुर यानी मेवाड़ अंचल में तो तुलसी के पौधे के साथ और भी दिलचस्प रीति-रिवाज़, परंपराएँ जुड़ी हैं। यहाँ तुलसी को घर में बेटी की तरह रखा जाता है और एक दिन इसकी भी बेटी की ही तरह घर से डोली भी उठती है। जी हाँ यह शादी बिल्कुल घर की किसी बेटी की ही तरह होती है। फ़र्क इतना होता है कि यहाँ दूल्हे के रूप में गाँव के मंदिर के भगवान आते हैं और उत्साह से सराबोर बाराती होते हैं गाँव के ही बाशिंदे।

शादी करनी ही होगी

मेवाड़ अंचल में यह माना जाता है कि अगर घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाया गया है तो एक दिन उसकी शादी करनी ही होगी। बस वर के लिए मारे-मारे फिरने की ज़रूरत यहाँ नहीं होती, क्यों कि गाँव के मंदिर के भगवान को ही तुलसी का दूल्हा बनना होता है। ऐसे में चिंता सिर्फ़ शादी के आयोजन की ही रह जाती है। दूल्हा-दुल्हन के अलावा सारी रस्में, रीति-रिवाज़ बिल्कुल घर की बेटी की शादी की तरह ही होते हैं। रिश्तेदारों, परिचितों को न्योते भिजवाए जाते हैं।

करीबी रिश्तेदारों और दूरदराज रहने वाले घर के सदस्यों को कुछ दिन पहले ही बुलवा लिया जाता है, शादी की तैयारियाँ जो करनी होती हैं। शुभ मुहूर्त निकलवाया जाता है। तुलसी के लिए नए कपड़े लहँगा चुनरी आदि सिलवाए जाते हैं, मंडप सजता है और नियत तिथि व शुभ मुहूर्त पर भगवान की बारात आती है।

मेवाड़ अंचल में यह माना जाता है कि अगर घर के आँगन में तुलसी का पौधा लगाया गया है, तो एक दिन उसकी शादी करनी ही होगी। बस वर के लिए मारे-मारे फिरने की ज़रूरत यहाँ नहीं होती, क्यों कि गाँव के मंदिर के भगवान को ही तुलसी का दूल्हा बनना होता है।

सबके लिए अपने घर का काम

तुलसी की शादी में भेंट देना भी बहुत पुण्य का काम माना जाता है, इसलिए कोई पीछे नहीं रहता। सब इसे अपने घर का ही काम मानते हैं और सबसे बड़ी बात यह कि धर्म के इस काम में किसी के रूठने-मनाने की कोई गुंजाइश नहीं रहती, इसलिए आम शादियों में अपना रुतबा दिखाने और ख़ास ख़ातिर की इच्छा रखनेवाले रिश्तेदार भी तुलसी की शादी में बर्ताव के मामले में नरम ही नज़र आते हैं।

तुलसी को जो दहेज आदि दिया जाता है वह तथा शादी में शामिल हुए लोगों से मिली तमाम भेंटें मंदिर पहुँचा दी जाती हैं। व्यस्तताओं के बहाने लेकर शादी में शिरकत करने से बचने की आदत वाले रिश्तेदार भी तुलसी की शादी के लिए आम तौर पर वक्त निकाल लेते हैं। शादी के बाद प्रीतिभोज होता है और घर के लोग आख़िर में भरे मन से अपने बड़े जतन से घर के आँगन में उगाकर बड़ी की गई तुलसी को उसके असली घर यानी मंदिर के लिए रवाना कर देते हैं।

१६ जनवरी २००६

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