इस सप्ताह- |
अनुभूति में-
तारादत्त निर्विरोध, हस्तीमल हस्ती, सौरभ राय भगीरथ, जगन्नाथ
प्रसाद बघेल और सरोज भटनागर की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- होली आ रही है और उसकी तैयारी में शुचि ने
भेजे हैं चाट के विविध व्यंजन। इस शृंखला में
प्रस्तुत है- मटर की
टिक्की। |
रूप-पुराना-रंग
नया-
शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर
फिर से सहेजें रूप बदलकर-
आइस-ट्रे में भोजन। |
सुनो कहानी- छोटे बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी
कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी-
चरखी वाले
झूले। |
- रचना और मनोरंजन में |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- २६, रंग विषय पर रचनाओं
का प्रकाशन पूरा हो गया है। इन्हें अनुभूति के
होली विशेषांक में
देखा जा सकता है। |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
लोकप्रिय
कहानियों
के
अंतर्गत-
१६ नवंबर २००२ को प्रकाशित राजकुमार
पंड्या की गुजराती कहानी का हिन्दी रूपांतर
कंपन जरा
जरा।
|
वर्ग पहेली-१२७
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य
एवं
संस्कृति
में-
|
समकालीन कहानियों में भारत से
ए असफल की
कहानी-
शब्दवध
मैं
पिछले तीन रोज़ से अपनी कट्टी लिए मिट्टी के तेल की दुकान पर
लाइन में लग रहा था। न स्टोव में तेल था न डिब्बी में। ब्लैक
में ख़रीदते-ख़रीदते कमर टूट रही थी।... नहीं ख़रीदने पर रोटी
नहीं पकती, ना सिलाई होती। आज पाँच बजे ही उठकर चला आया था
लाइन लगाने।...भीड़ देखकर चाय वाला अपना ठेला भी ले आया
था।...भुकभुका तेज़ी से फैल रहा था। ठेले से अख़बार उठा लिया कि
आज का अपना भविष्य फल देख लूँ! तभी नज़र उसमें पे मुख्य चित्र
पर पड़ गई। और वह पहचाना-सा लगा! चेतना धक्का-सा देते हुए पीछे
की ओर खींच ले गई। क़स्बा जो जिला होते ही तेज़ी से गन्दे शहर
में बदलने लगा था... मैं एक दर्ज़ी की दुकान में काज-बटन करता
और वह भी। वह गाता अच्छा था। उसका नाम ग़ुलाम नबी और मेरा नाम
राम सेवक। हम दोनों ही पढ़ते और दर्ज़ीगीरी सीखते थे। एक ही
मोहल्ले में रहते। एक-सा खाते-पहनते। एक-सी जिंदगी। मगर वह
अच्छा गाता था। २६ जनवरी और १५ अगस्त पर हमेशा इनाम लेता। ...
आगे-
*
सुशील यादव का व्यंग्य
जड़ खोदने की कला
*
मधुकर अष्ठाना का आलेख
उत्तर प्रदेश में नवगीत का भविष्य
*
शेफाली शर्मा की कलम से जानकीवल्लभ शास्त्री का व्यक्तित्व
मुक्ति-मरण-विश्राम-न-माँगे-जीवन-का-विश्वासी
*
पुनर्पाठ में महेशचंद्र कटरपंच की चेतावनी-
सावधान! आज पहली अप्रैल है
1 |
अभिव्यक्ति समूह
की निःशुल्क सदस्यता लें।1 |
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पिछले
सप्ताह- होली के अवसर पर |
१
राकेश कुमार सिंह द्वारा प्रस्तुत
संथाली
लोक कथा- वसंतोत्सव
*
विद्यानिवास मिश्र का ललित निबंध
वसंत मेरे द्वार
*
रीतारानी पालीवाल का आलेख
पुकारते हैं साकुरा आओ
*
पुनर्पाठ में अरुणा घवाना के साथ-
प्राकृतिक रंगों की खोज-
घर-बाहर
*
समकालीन कहानियों में भारत से
ममता कालिया की
कहानी-
एक
दिन अचानक
बसन्त
को इस बार सिर्फ तीन हफ्ते का मौका मिला लेकिन उसने रस, रंग और
गंध का
तीन तरफा आंदोलन छेड़ दिया। मेडिकल कॉलेज के विस्तृत और
विशाल कैम्पस का कोई कोना नहीं छूटा, उसके स्पर्श से। सामने
बना बड़ा सा अस्पताल भी एक बार अपनी समस्त गंध, दुर्गंन्ध और
विरूपता के साथ पराजित हो गया। ये
बड़े-बड़े झबरे डेलिया, साथ
में नन्हें-नन्हें नैस्टर्शियम, कैलेन्ड्यूला और सिनेरेरिया
दिन भर धूम मचाए रहते और शाम होते ही रातरानी, राजरानी की तरह
बौरा जातीं। ऑफिस के सामने कतार में लगे गमले भी तरह-तरह के
फूलों से इतराते। ऐसी रंगों की बारात में सफेद रंग सिर्फ
डॉक्टरों के कोट और दीवारों पर नज़र आता।
तीन हफ्ते खत्म होते खुश्क न होते हवाएँ चल
निकलीं। ठंड
एक बारगी कम हो गई। लोगों के बदन से गरम कपड़े उतरने लगे। ...
आगे- |
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