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						 सावधान! आज पहली अप्रैल है
 महेशचंद्र कटरपंच
 
 
 जी हाँ, 
						जनाब सावधान! आज अप्रैल की पहली तारीख है। आज ही आपको अपना 
						वेतन भी मिलेगा और उसे जरा सँभालकर रखिए। अरे वाह! आप इतने 
						घबरा क्यों रहे हैं। नहीं साहब, न तो आपके यहाँ डाका पड़ेगा 
						और न होगी चोरी। यह भी विश्वास रखिए कि आपको पुलिस के 
						हाथों भी परेशान नहीं होना पड़ेगा तो फिर सावधान क्यों हों? 
						यह मत पूछिए, नहीं तो मात खा बैठेंगे आप और फिर हम अपने 
						मौलिक शब्दकोश में से कोई उत्तम सा उपहार निकालकर आपके नाम 
						के साथ जोड़ देंगे। हाँ जी, अब भी नहीं बताऊँगा, वरन् मैं 
						तो केवल चेतावनी दूँगा सावधान! आज पहली अप्रैल है।
 हाँ, मार्च की वह अंतिम रात्रि थी। वही रात्रि जिसे मैं आज 
						तक नहीं भुला पाया हूँ – अनेक प्रयास करने के बाद भी। वह 
						अभी भी मेरी स्मृति से दूर नहीं हो सकी है। मुझे याद है कि 
						अगले दिन मेरी इंटरमीजिएट की परीक्षाओं का अंतिम 
						प्रश्न–पत्र था, मनोविज्ञान का। पिछले सभी प्रश्न–पत्र 
						अच्छे हो गए थे। परीक्षा के इस अंतिम प्रश्नपत्र के लिये परिश्रम करने में जी 
						नहीं लग रहा था। फिर भी कुछ आत्मसंतोष के लिये पढ़ना आवश्यक 
						था। लालटेन जलाकर पढ़ने का उपक्रम कर ही रहा था कि दरवाजे 
						पर डाकिया चिल्ला उठा – टेलीग्राम लीजिये।
 
 टेलीग्राम का नाम सुनते ही हैरानी हो गई। सोचा क्या है, 
						कैसा है, कहाँ का है? शायद भाई साहब का हो, कल मुन्ना का 
						जन्म दिन यहाँ मनाने के लिये भाभी जी को भेज दिया हो और 
						मुझे उन्हें स्टेशन पर उतारने के लिये टेलीग्राम कर दिया 
						हो। शायद मेरा इंटरव्यू कॉल हो? अथवा कौन जाने कहीं कोई 
						शोक समाचार न हो। एक क्षण में ही इतना सब सोचकर प्रकंपित 
						हाथों से लिफाफा फाड़ा और एक ही निगाह में पढ़ गया। उस पर एक 
						संदेश था, जिसका मतलब था- कल फ्रंटियर मेल से भरतपुर पहुँच 
						रहा हूँ – अक्षय कुमार जैन।
 
 नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक थे श्री अक्षय कुमार जैन 
						और मैं भरतपुर जिले से नवभारत टाइम्स का अधिकृत संवाददाता 
						था। मैंने सोचा अचानक कल यहाँ कैसे आ रहे हैं प्रधान 
						संपादकजी। खैर आ रहे होंगे किसी भी काम से। यह भी अच्छा ही 
						हुआ, कल मेरी परीक्षाएँ समाप्त हो जाएँगी। थोड़ी पढ़ाई करके 
						सो गया। सुबह तैयार होकर परीक्षा के लिये गया। वहाँ भी 
						बार–बार घड़ी की ओर देखकर सोचने लगा फ्रंटियर मेल की बात। 
						मेरे अखबार के प्रधान संपादकजी जो आ रहे हैं। पत्रकारिता 
						का मेरा यह प्रथम अध्याय था। पेपर अच्छा हो गया और मैं 
						कालेज से सीधे रेलवे स्टेशन पहुँच गया।
 
 गाड़ी के आने में अभी आधा घंटे की देर थी। जैसे ही गाड़ी आई 
						मैंने उत्सुकतावश आँखें फाड़–फाड़कर एक–एक डिब्बे में झाँककर 
						देखा परन्तु वह परिचित मूर्ति कहीं दिखाई न पड़ी। गाड़ी के 
						चले जाने के बाद काफी देर तक हम प्लेट फार्म पर इधर–उधर 
						देखते रहे कि कहाँ उतरे हैं प्रधान संपादकजी। वह शायद नहीं 
						आए होंगे या कि देरी से पहुँचने के कारण ट्रेन छूट चुकी 
						होगी। हम थके-माँदे भूखे–प्यासे यही सोचते हुए घर लौट रहे 
						थे। घर वालों को मेरी देरी के कारण चिंता हो रही होगी। 
						साइकिल पर विचार मग्न चला जा रहा था कि अचानक पीछे से एक 
						हँसी का सा स्वर सुनाई दिया। चश्मा उतारकर पीछे मुड़ा तो 
						एकाएक कानों में पड़ा "स्टेशन फूल" और सामने देखा 
						चिर–परिचित मित्र मंडली मेरी ओर देखकर हँस रही थी और 
						चिल्ला रही थीं।
 मैं 
						खोया–खोया सा उनकी ओर देख रहा था, तभी प्रकाश बोल उठा – "आ 
						गए अक्षय कुमारजी जैन?" और सब लोग जोर से हँस दिये। मैं 
						सोचने लगा कि इन्हें किसने कहा कि आज अक्षय कुमार जैन आने 
						वाले हैं। यह सब है क्या आखिरकार? एक धीर गंभीर आवाज आई – 
						"टेलीग्राम आया था? टेलीग्राम पर पोस्ट आफिस की स्टाम्प 
						देखी है? मैंने एकदम जेब से वह टेलीग्राम निकाला तो मेरे 
						चेहरे पर पसीना हो आया। मैं बुत सा बना हुआ खड़ा था – काटो 
						तो शरीर में खून नहीं। सचमुच टेलीग्राम पर टेलीग्राफ आफिस 
						की कोई मोहर नहीं थी। मैंने टेलीग्राम को फाड़कर उसके दो 
						टुकड़े कर दिये और मेरी मित्र मंडली मुझ पर प्रहार करने लगी 
						अप्रैल फूल, अप्रैल फूल। तभी उनमें से एक मित्र ने मेरे 
						गले में फूलों की माला डाल दी।
 हम सब बढ़ चले। वे लोग एक चौराहे पर आकर रुक गए। जैसे किसी 
						की प्रतीक्षा कर रहे हों। एक ने घड़ी में देखा, दूसरे ने भी 
						घड़ी में देखा। मैंने पूछा किसकी राह देखी जा रही है? "लो आ 
						गई है वह" इतना कहकर एक मित्र ने फुस–फुसी आवाज में मुझे 
						बताया और एक दिशा की ओर उँगली से संकेत किया। नीली साडी और 
						नीले ब्लाउज में सुसज्जित एक नवयुवती, नेत्रों पर चश्मा, 
						हाथ में नए स्टाइल की एक घड़ी, होठों पर लिपिस्टक लगाए, 
						साइकिल पर पर्स लटकाए चली आ रही थी। अरे यह क्या यह तो 
						हमारी क्लासफेलो हैं। हम वहीं खड़े थे कि उस युवती की 
						साइकिल निकट के एक मकान पर जाकर रुक गई। दरवाजे पर ताला 
						लगा हुआ था और उस पर एक कागज चिपका हुआ था। युवती सहज कागज 
						तक बढ़ गई। लिखा था – "खेद है . . .आपकी अलका कल रात जयपुर 
						चली गई. . .चीरियो . . .टाटा . . .आपके मित्र। उस युवती को 
						समझते देर नहीं लगी और जब तक कि वह लौटकर साइकिल पर 
						पहुँचती, फूल माला मेरे गले से उतारकर उसकी साइकिल पर टाँग 
						दी गई और वातावरण में चारों ओर अप्रैल फूल का स्वर गूँज 
						उठा।
 
 पता चला कि कल रात उन्हें टेलीफोन पर सूचना दी गई थी कि 
						उनकी सहेली अलका की आज वर्षगाँठ है और इस समारोह में 
						उन्हें अवश्य आना चाहिये। तो अब आप सावधान हो जाइये। इन 
						टेलीफोनों, टेलीग्रामों या अन्य समाचारों से। कम से कम आज 
						के लिये सही, परन्तु आप सचेत रहें आज पहली अप्रैल जो हैं।
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