सप्ताह
का
विचार-
वर्तमान को अतीत के बिना नहीं समृद्ध किया जा सकता यदि
हम अपना अतीत भूल गए-तो-वर्तमान-और-भविष्य-क्या-बनाएँगे-
पवन वर्मा |
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अनुभूति
में-
सुधांशु उपाध्याय, डा. भगवान स्वरूप चैतन्य, पंकज त्रिवेदी, गोपाल
कृष्ण 'आकुल'
और सीमा शफ़क की रचनाएँ। |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में संयुक्त
अरब इमारात से
पूर्णिमा वर्मन की कहानी
फुटबाल
लॉन की घास नर्म और गुदगुदी होने लगी थी। क्यारियों में
पिटूनिया के नन्हें पौधे आँखें खोलने लगे थे,
धूप
धीमा धीमा गुनगुनाने लगी थी मौसमी चिड़ियों के झुंड कनेर के पेड़ों पर
चहचहाने लगे थे कुल मिला कर यह कि डाइनिंग रूम से बाहर की ओर खुलने वाले
बड़े दरवाजे के काँच में से दिखता बगी़चा गुलज़ार नज़र आने लगा था। नवंबर
का आखिरी हफ्ता था और आकाश कह रहा था कि सर्दियों का मौसम शुरू हो गया।
नीलम किरण विरमानी ने बाहर की ओर एक नज़र देखा और लस्सी
बिलोने लगीं- मटकी में नहीं, मिक्सी में। स्विच की
छोटी सी क्लिक, ज़ूम की तेज़ आवाज़ और शांति,
लस्सी तैयार। उन्होंने अपनी गोरी चिट्टी कलाई पर बंधी बड़ी सी घड़ी में समय
देखा- सात बज कर अट्ठाइस मिनट। लस्सी को गिलास में पलट कर उन्होंने बेसन के
पराठों वाली तश्तरी उठाई और खाने की मेज पर आ गयीं। विरमानी साहब ठीक साढ़े
सात बजे नाश्ता करने आ जाते हैं ...
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रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य
कसम का टोटका
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प्रौद्योगिकी में रश्मि
आशीष का आलेख-
कहानी
ब्राउज़रों की
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महेश परिमल का निबंध-
कोई मुझे थोड़ा सा समय दे दे
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समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ |
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पिछले सप्ताह
प्रेम जनमेजय का व्यंग्य
हे देवतुल्य ! तुम्हें प्रणाम
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राम गुप्त का आलेख-
नानक की जबानी बाबर की कहानी
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गीता शर्मा का आलेख
विद्यालय हंगरी का और परीक्षा भारतीय फैशन की
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रचना प्रसंग में सदीप निगम से जानें
गल्प नहीं संकल्पना है विज्ञान कथा
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समकालीन कहानियों में भारत से
प्रत्यक्षा की कहानी
ब्याह
मृगनयनी को यार नवल रसिया मृगनयनी .... उसके
कंधे तक बाल झूम रहे थे। जैसे उनका अलग अस्तित्व हो। आँखें
बन्द थीं, नशे में चूर। शरीर का आकार हवा में घुल रहा था। किसी
बच्चे ने साफ खिंची रेखा पर उँगली चला दी हो। सब घुल मिल गया
था। सब।
तस्वीर में वो सीधी सतर बैठी थी। चेहरे पर एक उदास आभा। कोमल,
नाज़ुक, शांत। तस्वीर और सचमुच में कोई तार नहीं था। जैसे किसी
और की तस्वीर देखी जा रही हो।
पीछे शोर शराबा था, हलचल अफरा तफरी थी। गाँव से आईं औरतें तेज़
आवाज़ में बोल रही थीं। क्या बोलती थीं, महत्त्वपूर्ण नहीं था।
बोलती थीं ये महत्त्वपूर्ण था। उनके जीवन का रस यही था। पाँवों
से लाचार, उठने बैठने से लाचार, हाँफती, चुकु मुकु बैठी, शरीर
को जाने किस शक्ति से समेटे, पाँवों में भर भर तलवे आलता
लगाए...
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