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                    विद्यालय हंगरी 
					का और  
					प्रतियोगिता भारतीय फैशन की 
                    
					--डॉ. गीता शर्मा  
                    काटालीन का 
					मेल आया था। वह हंगरी के एक स्थानीय विद्यालय में पढ़ाती है।
					उसके विद्यालय में शृंगार प्रतियोगिता थी और शीर्षक था—
					भारतीय शृंगार और वेशभूषा। उसने अपने विद्यालय की ओर से 
					मुझसे इस प्रतियोगिता के निर्णायक मंडल में शामिल होने का 
					अनुरोध किया था।  
					मुझे सुखद 
					आश्चर्य हुआ। भारतीय शृंगार प्रतियोगिता? ऐसे समय में जब 
					भारतीय सौंदर्य के मानदंड योरोपीय होते जा रहे हैं, योरोप के 
					किसी देश में भारतीय मानदंडों के अनुसार शृंगार करने की 
					प्रतियोगिता में जाने और देखने का लोभ नहीं सँवरण कर पाई। मेल 
					से जवाब देने की बजाय मैंने काटालीन को फोन करने का निश्चय 
					किया। काटा ने बताया कि उसका विद्यालय सरकारी माध्यमिक 
					विद्यालय है, जिसमें केश-सज्जा और शृंगार का पाठ्यक्रम भी है। 
					चूँकि इस बार शृंगार प्रतियोगिता की थीम भारतीय शृंगार से 
					संबंद्ध है इसलिए विद्यालय चाहता है कि कोई भारतीय भी उनके 
					निर्णायक मंडल में हो। मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। 
					 
					प्रतियोगिता वाले दिन सुबह ७:३० पर काटालीन गाड़ी ले कर आ गई। 
					८:१५ तक हम लोग विद्यालय पहुँच गए। योरोपीय विद्यालयों का 
					माहौल भारतीय विद्यालयों से बहुत अलग होता है। यहाँ के अधिकांश 
					विद्यालयों में स्कूल यूनीफॉर्म नहीं होती। अनुशासन भी इतना 
					कड़ा नहीं होता। कार पार्क करके हम विद्यालय की ओर बढ़े। 
					जगह-जगह लड़के-लड़कियाँ झुंड बना कर खड़े थे। पोशाकें तो 
					रंग-बिरंगी थी ही उनके बाल भी कुछ कम रंगीन नहीं थे। गुलाबी, 
					लाल नीले, हरे..न जाने कितने रंगों के बाल, कोई आधे रंगे तो 
					कोई पूरे। विद्यार्थियों के इस झुंड से निकल कर हमने एक बड़े 
					से दरवाज़े में से अंदर प्रवेश किया। बरामदे से होते हुए हम एक 
					बड़े कमरे में पहुँचे। यहाँ एक करीने से आलमारियाँ लगी हुई 
					थीं। काटालीन ने एक आलमारी खोलकर अपना ओवरकोट, मफलर और टोपी 
					उसमें रख दी। एक हैंगर उसने मेरी तरफ बढ़ाया। मैंने भी उसका 
					अनुसरण किया। भारी वस्त्रों से निजात पाकर अच्छा लग रहा था। 
					काटा ने अपना भारी बर्फ का जूता भी उतार कर अलमारी में रखा और 
					हल्की जूतियाँ पहन लीं। 
					 
					योरोपीय देशों की भयानक ठंड में कुछ क्षणों के लिए भी यदि बाहर 
					निकलना हो तो स्वयं को पूरा ढकना आवश्यक होता है जबकि 
					कार्यालय, विद्यालय आदि सर्दियों के मौसम में पूर्णतः गर्म 
					होते हैं। इस कारण वहाँ इतने कपड़ों की आवश्यकता नही होती है 
					अतः लोग कार्यालयों में हल्के कपड़े, जूते आदि रखते हैं, जिससे 
					इन्हे आवश्यकता के अनुसार बदला जा सके। 
					 
					 अब हम हॉलनुमा एक बड़े कमरे में आ गए थे। यहाँ लंबी सी मेज़ के 
					चारो ओर कुर्सियाँ लगी थीं। इन कुर्सियों पर मॉडल लड़कियाँ 
					बैठी थीं। उनकी बगल में प्रतियोगी छात्राएँ खड़ी थीं। हमारे 
					प्रवेश करते ही ‘योनापोत किवानो’ कह कर सबने हमारा स्वागत 
					किया। यों तो मेज़ पर सफेद मेजपोश बिछा था पर हर प्रतियोगी ने 
					अपने सामने का हिस्सा अलग से सजाया हुआ था। बताया गया कि दस 
					अंक उनकी मेज़ की साज- सज्जा और सफाई के भी हैं। 
					 
					अब मैंने ध्यान से उनकी सजावट देखी। लड़कियों ने अपने सामने के 
					हिस्से पर अलग से छोटे-छोटे खूबसूरत कपड़े बिछाए हुए थे। इन पर 
					भारतीय हाथी, दीपक, अगरबत्ती आदि करीने से रखे थे। कुछेक ने तो 
					कृष्ण और राम की छोटी-छोटी मूर्ति भी लगा रखी थी। पास ही 
					प्रसाधन सामग्री सजी रखी थी। उनकी मेज़ की सजावट भारतीय 
					संस्कृति से उनके परिचय की परिचायक थी। 
					 
					अब तक अन्य दो हंगेरियन निर्णायकों से भी परिचय हो चुका था। 
					भारतीय और योरोपीय शृंगार एवं प्रसाधनों के मूल अंतर पर 
					विचार-विमर्श करने के उपरांत हमने अंकों का निर्धारण कर लिया 
					था। प्रतियोगिता के शुरू होने में कुछ ही समय शेष रह गया था। 
					कुछ प्रतियोगी आत्मविश्वास से पूर्ण लग रहे थे जबकि कुछ के 
					चेहरों से घबराहट झलक रही थी। कुछ अपने मॉडल्स का हाथ पकड़े 
					एक-दूसरे को ढाढस दे रहे थे। इस प्रतियोगिता में भारतीय परिधान 
					ही पहनने थे। बुदापैश्त में भारतीय लोगों की संख्या काफी कम 
					होने के कारण यहाँ इंग्लैंड आदि देशों की अपेक्षा भारतीय कपड़े 
					कम ही मिलते हैं और जो मिलते हैं वे काफी मँहगे होते हैं। 
					 
					प्रतियोगिता शुऱू हो गई। उन्हे एक घंटे का समय दिया गया था। 
					छात्राओं के हाथ जल्दी-जल्दी चल रहे थे। ब्रश के हर स्ट्रोक के 
					साथ मॉडल के चेहरे में परिवर्तन आता जा रहा था। काम करती हुई 
					उन लड़कियों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे कोई कलाकार अपनी 
					कलाकृति के निर्माण में व्यस्त हो। उनकी तन्मयता देखने लायक 
					थी। उनमें से अधिकांश छात्राओं के मेक-अप में भारतीय के साथ 
					योरोपीय मेक-अप की भी झलक आ गई थी। पूछने पर पता चला कि यहाँ 
					पर भारतीय प्रसाधन में पारंगत कोई भी प्राध्यापिका नहीं है अतः 
					इन छात्राओं का अधिकांश ज्ञान इंटरनेट तथा सिनेमा से लिया गया 
					है। भारोपीय प्रसाधन के घालमेल का कारण समझ में आ गया। 
					 
					 एक घंटे का समय बीत चुका था। अब प्रतियोगियों को एक-एक करके 
					अपनी मॉडल लड़कियों के साथ निर्णायकों के सामने आना था। 
					अधिकांश मॉडल्स भारतीय लहँगे नुमा लंबी स्कर्ट या सलवार-कमीज़ 
					पहने थीं। तीन छात्राओं ने साड़ी पहनने की कोशिश की थी। १६-१७ 
					वर्ष की इन छात्राओं ने साड़ी को इस कदर लपेटा हुआ था कि उनके 
					लिए कदम उठाना कठिन हो रहा था। उन्हे देखकर बरबस मुस्कराहट आ 
					गई। साड़ी जैसे कठिन परिधान को बिना सीखे पहनना कोई आसान काम 
					नहीं है, यह हम जानते ही हैं। अंततः प्रतियोगिता खत्म हुई। 
					हमने अपना निर्णय आयोजकों को सौंप दिया। निर्णय की औपचारिक उद्घोषणा एक घंटे बाद होने वाली थी। मैं और काटालीन बाहर आए तो 
					मैंने देखा साड़ी पहने वे छात्राएँ एक ओर खड़ी हैं। मैने काटा 
					से पूछ, ”क्या मैं इनकी साड़ी ठीक से बाँध दूँ?”  
					 
					“ज़रूर-जरूर.”. काटालीन के कहने पर मैने उन्हे इशारे से 
					बुलाया। काटालीन ने उनसे हंगेरियन में पूछा तो उन्होने खुशी से 
					सहमति दे दी। 
					 
					मैने कमरे में ले जाकर उनकी साड़ी ठीक की। कहाँ से साड़ी मिली, 
					पूछने पर उन्होने बताया कि यहाँ साड़ी किराए पर मिलती है। 
					साड़ी बँध जाने पर मैने उन्हे चल कर देखने को कहा। वे 
					अपेक्षाकृत आराम से चल पा रही थीं। उनके चेहरे खुशी से खिल गए। 
					‘कोसोनम-कोसोनम’ करके उन्होने धन्यवाद कहा और जल्दी-जल्दी अपने 
					मित्रों को दिखाने के लिए बाहर भागीं। अपना सामान आदि उठा कर 
					जब हम बाहर आए तो देखा कि उन तीनों छात्राओं को तमाम 
					लडके-लड़कियों ने घेर रखा था। वे आकर्षण का केंद्र-बिंदु बनी 
					हुई इतरा- इतरा कर अपनी साड़ी दिखा रही थीँ। तमाम कैमरों के 
					फ्लैश चमक रहे थे। तभी उनमें से एक की निगाह हमारे ऊपर पड़ी। 
					उसने अपनी भाषा में कुछ कहा और अनेक निगाहें हमारी ओर घूम गईँ। 
					उनमें खुशी, गर्व और संकोच का जो मिलाजुला भाव था उसने भारतीय 
					संस्कृति के प्रति सम्मान भरा देख मन बोल उठा—
					कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी.....  |