इतिहास

नानक जयंती के अवसर पर  

नानक की जबानी बाबर की कहानी
--राम गुप्त


नानक और बाबर समकालीन थे। इसी से भारत पर किये गये बाबर के आक्रमणों का नानक ने गंभीर आकलन किया और उसके अत्याचारों से वह मर्माहत भी हुए। उनके द्वारा लिखित बाबरगाथा नामक काव्यकृति इस बात का सबूत है कि मुगल़ आक्रान्ता ने किस तरह हमारे हरे-भरे देश को बर्बाद किया था।

गुरू नानकदेव सन् १४६८ से सन् १५३९ के बीच इस धरती पर रहे थे। उसी अवधि में मुगल़ आक्रान्ता बाबर ने बर्बरतापूर्वक हमारे देश की सीमाओं का अतिक्रमण किया था। बाबर के द्वारा भारत पर पहला आक्रमण पंजाब के ऐमनाबाद अंचल में सन् १५२२ में हुआ। गुरू नानकदेव उन्हीं दिनों अपने तीन साल के विदेश भ्रमण के बाद स्वदेश वापस लौटे थे। जब उन्हें मालूम हुआ कि बाबर की सैन्यवाहिनी ने किस क्रूरता के साथ ऐमनाबाद के हज़ारों नागरिकों के सामूहिक कत्ल के साथ सम्पूर्ण अंचल को नष्ट कर उसे मलवे के ढेर में परिवर्त्तित कर दिया है तो उनको अपार कष्ट हुआ। उन समाचारों को सुन कर नानकदेव को जो अन्तर्वेदना हुई उसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है। वह तत्काल ही वहाँ की पीड़ित जनता के दु:खदर्द में सहभागी बनने के लिये ऐमनाबाद पहुँच गये। नगर की तहस-नहस बस्तियों की उन्होंने पूरी निर्भीकता के साथ परिक्रमा की और लोगों के उस त्रास को अपनी वाणी के माध्यम से व्यक्त करने का प्रयत्न किया। बाबर के आक्रमण से उत्पन्न देश की दर्दनाक स्थिति को नानकदेव ने स्वयं अपनी आँखों देखा था। उसके अमानवीय कृत्यों से पीड़ित जनसामान्य की निस्सहाय स्थिति का आकलन कर उनका दिल इतना पसीज उठा कि स्नेह और सद्भावना के स्थान पर खून के गीत गाने से वह अपने को रोक नहीं पाये। उसी के परिणामस्वरूप उन्होंने बाबरगाथा नामक अपनी काव्यकृति की सृष्टि की।

बाबरगाथा में नानकदेव की चार रचनाएँ संग्रहीत हैं और वह सभी विविध रागों में निबद्ध हैं। गुरू नानक मात्र अच्छे कवि ही नहीं थे बल्कि राग-रागिनियों का भी उन्हें अपूर्व ज्ञान था। बाबरगाथा को उन्होंने उन्नीस रागों में बाँधा है। उसमें न सिर्फ बाबर की क्रूरता का जीवन्त चित्रण है बल्कि उसके माध्यम से हमें तत्कालीन सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों का भी यथेष्ट परिचय मिलता है। उसमें देश के उस अध:पतन का भी वर्णन है जिसके पार्श्व में उसे बाबर के आक्रमण का शिकार होना पड़ा। नानकदेव जैसे सूक्ष्मदर्शी महापुरूष से वह विघटनकारी तत्व ओझल भी कैसे हो सकते थे जिन्होंने हमारे तत्कालीन समाज को अपनी अधोगति की सीमा तक पहुँचा दिया था। अपनी कृति के माध्यम से उन्होंने न केवल एक आक्रान्ता के अमानवीय अत्याचारों की ओर जनसामान्य का ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा की बल्कि अपने उस शक्तिशाली अभियान के परिणामस्वरूप उनको कारावास भी भुगतना पड़ा।

काव्यकृति के चारों चरणों का सारांश नीचे प्रस्तुत है-

बाबरगाथा के पहले चरण में लालो बढ़ई नामक अपने पहले आतिथेय को संबोधित करते हुए नानकदेव ने लिखा है : हे लालो, बाबर अपने पापों की बरात लेकर हमारे देश पर चढ़ आया है और ज़बर्दस्ती हमारी बेटियों के हाथ माँगने पर आमादा है। धर्म और शर्म दोनों कहीं छिप गये लगते हैं और झूठ अपना सिर उठा कर चलने लगा है। हमलावर लोग हर रोज़ हमारी बहू-बेटियों को उठाने में लगे हैं, फिर जबर्दस्ती उनके साथ निकाह कर लेते हैं। काज़ियों या पण्डितों को विवाह की रस्म अदा करने का मौका ही नहीं मिल पाता। हे लालो, हमारी धरती पर खून के गीत गाये जा रहे हैं और उनमे लहू का केसर पड़ रहा है। लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि बहुत जल्दी ही मुगल़ों को यहाँ से विदा लेनी पड़ेगी, और तब एक और मर्द का चेला जन्म लेगा।

इस स्थल पर संभवत: सन् १५२२ में मुगलों के भारत आगमन और १५४१ में उनके यहाँ से पलायन का संकेत निहित है। मर्द का चेला शायद शेरशाह सूरी को कहा गया है। शेरशाह ने सन् १५३९ में हुमायूँ को पराजित कर दिल्ली में अपने शासन की स्थापना की थी। हिन्दू और मुसलमान दोनों को एक नज़र से देखने वाला वह भारत का पहला बादशाह था।

कविता के दूसरे चरण में नानक ने लिखा : हे ईश्वर, बाबर के शासित खुरासान प्रदेश को तूने अपना समझ कर बचा रक्खा है और हिन्दुस्तान को बाबर द्वारा पैदा की गयी आग में झोंक दिया है। मुगलों को यम का रूप प्रदान कर उनसे हिन्दुस्तान पर हमला करवाया, और उसके परिणामस्वरूप यहाँ इतनी मारकाट हुई कि हर आदमी उससे कराहने लगा। तेरे दिल में क्या कुछ भी दर्द नहीं है?

तीसरे चरण का सारांश है : जिन महिलाओं के मस्तक पर उनके बालों की लटें लहराया करती थीं और उन लटों के बीच जिनका सिन्दूर प्रज्ज्वलित और प्रकाशमान रहता था, उनके सिरों को उस्तरों से मूंड डाला गया है और चारों ओर से धूल उड़ उड़ कर उनके ऊपर पड़ रही है। जो औरतें किसी ज़माने में महलों में निवास करती थीं उनको आज सड़क पर भी कहीं ठौर नहीं मिल पा रही है। कभी उन स्त्रियों को विवाहिता होने का गर्व था और पतियों के साथ वह प्रसन्नता के साथ अपना जीवनऱ्यापन करती थीं। ऐसी पालकियों में बैठ कर वह नगर का भ्रमण करती थीं जिन पर हाथी दांत का काम हुआ होता था। आज उनके गलों में फांसी का फन्दा पड़ा हुआ है और उनके मोतियों की लड़ियां टूट चुकी हैं।

चौथे चरण में एक बार फिर सर्वशक्तिमान का स्मरण करते हुए नानक ने कहा है : यह जगत निश्चित ही मेरा है और तू ही इसका अकेला मालिक है। एक घड़ी में तू इसे बनाता है और दूसरी घड़ी में उसे नष्ट कर देता है। जब देश के लोगों ने बाबर के हमले के बारे में सुना तो उसे यहाँ से भगाने के लिये पीर-फकीरों ने लाखों टोने-टोटके किये, लेकिन किसी से भी कोई फ़ायदा नहीं हो पाया। बड़े बड़े राजमहल आग की भेंट चढ़ा दिये गये, राजपुरूषों के टुकड़े-टुकड़े कर उन्हें मिट्टी में मिला दिया गया। पीरों के टोटकों से एक भी मुगल़ अंधा नहीं हो पाया। मुगलोंे ने तोपें चलायीं और पठानों ने हाथी आगे बढ़ाये। जिनकी अऱ्जियां भगवान के दरबार में फाड़ दी गयी हों, उनको बचा भी कौन सकता है? जिन स्त्रियों की दुर्दशा हुई उनमें सभी जाति और वर्ग की औरतें थीं। कुछ के कपड़े सिर से पैर तक फाड़ डाले गये, कुछ को श्मशान में रहने की जगह मिली। जिनके पति लम्बे इन्तज़ार के बाद भी अपने घर नहीं वापस लौट पाये, उन्होंने आखिर अपनी रातें कैसे काटी होंगी?

ईश्वर को पुन: संबोधित करते हुए गुरू नानकदेव ने कहा था : तू ही सब कुछ करता है और तू ही सब कुछ कराता है। सारे सुख-दुख तेरे ही हुक्म से आते और जाते हैं, इससे किसके पास जाकर रोया जाये, किसके आगे अपनी फ़रियाद पेश की जाये? जो कुछ तूने लोगों की किस्मत में लिख दिया है, उसके अतिरिक्त कोई दूसरी चीज़ हो ही नहीं सकती। इससे अब पूरी तरह तेरी ही शरण में जाना पड़ेगा। उसके अलावा अन्य कोई पर्याय नहीं।

बाबर के आक्रमण और उसकी सेनाओं द्वारा किये गये अत्याचारों से गुरू नानकदेव कितने व्यथित, पीड़ित और चिन्तित थे, यह उनकी उक्त वाणी से प्रकट होता है। तत्कालीन परिस्थितियों से वह पूरी तरह निराश और हताश भी थे, तब भी ईश्वर की लीला समझ कर उन्होंने उसे सहन किया। लेकिन जिस तरह बाबरगाथा के रूप में उनकी वाणी प्रकट हुई थी, उसे इतिहास की एक अमूल्य निधि नहीं कहा जायेगा क्या? -- (न्यूज़फ़ीचर्स)

 १४ जून २०१०