सामयिकी भारत से

टी वी की रियेलिटी शो संस्कृति पर प्रभु जोशी के विचार-


जरूरी है, सांस्कृतिक फूहड़ता को रोकने का साहस


भौतिक सुखों की भरमार से `ऊबे और अघाये` अमेरिकी समाज के टेलिविजन-दर्शकों के जीवन में, एक ऐसा भी 'संतृप्त' समय आया, जब वे चैनलों से रोज-रोज प्रसारित होने वाले सोप-ऑपेराओं के 'नकली आंसुओं' और 'नकली हिंसा' से 'थ्रिल' को खो बैठे। 'यथार्थ-सदृश' लगने वाले यथार्थ को देखने से उन्हें ऊब होने लगी। तब 'मनोरंजन के धंधे' मं लगी कम्पनियों को लगा, अब 'उत्पाद की नई पैकेजिंग' जरूरी है। अब उसके उपभोक्ता को सब कुछ 'असली' चाहिए। असली आंसू, असली गुस्सा और हां असली खून भी।

कहना न होगा कि इसी विचार और संकल्प ने पैदा किया, नया और ज्यादा 'जेनुइन थ्रिल' (!) से भरा 'नया माल', जिसे 'रियलिटी शो' का नाम दिया गया। यहां 'पटकथा लेखक' द्वारा रची गई कहानी का नकली क्लाइमैक्स नहीं था, जो एक 'निश्चित' जगह आता था। इसमें कभी भी और कहीं भी 'क्लाइमैक्स' बन सकता था। एक ही कार्यक्रम में वह कई-कई बार भी आ सकता था। यहां 'अप्रत्याशित' का जादू था। बहरहाल, 'नाच-गाना', 'हंसी-ठट्ठा', 'खून-खराबा' सब कुछ धारावाहिक का विषय बना। बिक्री ने ऊँचाइयाँ छुयी।

उसी की नकल में भारतीय टेलिविजन चैनलों पर 'रियलिटी शोज' शुरू हुए और लगभग उन्हीं नामों के साथ। पिछले दिनों ऐसे दो 'रियलिटी शोज' ने अचानक भम्भड़ मचा दिया। और एक डरी हुई सरकार ने एक दिन आनन-फानन में यह फरमान जारी कर दिया कि 'बिगबॉस' और 'राखी का इंसाफ' रात ग्यारह बजे बाद प्रसारित किये जायेंगे। चूंकि ये कार्यक्रम अपने कण्टेण्ट (विषयवस्तु) के कारण 'अ' श्रेणी में आते हैं, अत: बच्चों को इनके दर्शक बनने से बचाया जाये। मां-बापों को सुलाने के बाद सोने वाले बच्चों वाले 'नये बन रहे समाज' में इस 'समय परिवर्तन' से क्या फर्क पड़ता है, यह तो सरकार खुद भी अच्छे से जानती है। लेकिन ज्यादा बड़ा झटका प्रसारणकर्ताओं को लगा कि प्रायोजकों से मिलने वाली पूंजी का आधार की इस सरकारी हरकत से खिसक रहा है। निश्चय ही इस मुद्दे पर मीडिया चिंतकों की बंधुआ फौज का सात्विक क्रोध सरकार पर टूटा और कहा गया कि प्रकारान्तर से यह अभिव्यक्ति की आजादी का हनन है।

सरकार का यह अधिनायकवाद है। वह यह तय कने वाली कौन होती है कि क्या श्लील-अश्लील या नैतिक-अनैतिक है ? यह तो दर्शक का अधिकार है। फिर, दर्शक भी स्वतंत्र है, जो उसे नहीं देखना चाहते हैं, वे न देखें। कदाचित् ठीक ऐसी बहसें तब भी होने लगी थी, जब 'सच का सामना' नामक 'रियलिटी शो' आरंभ हुआ था, जिसमें कार्यक्रम का संचालक प्रतिभागी के सेक्स जीवन से 'व्यक्तिगत' का 'सार्वजनीनीकरण' करते हुए, उसे 'हरिश्चद्र' का तमगा देता था। निश्चय ही उनको भी 'सच' से कोई मतलब नहीं था, वे तो सिर्फ 'सेक्स' को समाज में पारदर्शी बनाने के अभियान में लगे थे। क्योंकि, अभी सबसे ज्यादा अनुदार 'मध्यमवर्ग' ही है और दुनियाभर में अधिकांशत: 'सांस्कृतिक प्रश्न' इसी वर्ग से उठते हैं। यही वर्ग संस्कृति के प्रश्न पर लहू-लुहान होता है।

उदाहरण के लिए उच्चवर्ग की संस्कृति तो उसका 'पैसा' ही है। अगर पैसा है तो वह कितने ही नैतिक-अनैतिक काम करे, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, वह कितने घोटालों या आरोपों से घिरा हो, वह 'नजर' से नहीं गिरता। उसकी ऊंचाइयाँ उसकी पूंजी ही है। निम्न वर्ग की संस्कृति उसका 'पेट' है। पेट के लिए वह सबकुछ करने को तैयार है। भूख के आगे नैतिक-अनैतिकता के प्रश्न ठीक उतने ही फालतू है, जितने पूंजी के आगे। इसलिए 'चरित्र' की, 'नैतिकता' की फ्रेम मध्यवर्ग के पास रहती है और कुछ कठोर भी। क्योंकि वह 'जरूरत' से थोड़ा ऊपर उठा हुआ है और 'आकांक्षा' के नीचे रह जाता है।

इसीलिए संस्कृति के सवाल अधिकतर मध्यवर्ग की जीवनशैली से नालबद्ध हैं। यदि मध्यवर्ग को ऐसे निषेधों से मुक्त करवा दिया तो एक ऐसी एकरूपता पैदा हो जायेगी, जिसके लिए बहुराष्ट्रीय निगमें लगातार प्रयासरत हैं। क्योंकि तब माल की खपत का प्रवाह एक-सा हो जायेगा। यह नया वर्गहीन समाज होगा, जिसे 'माल' अपने ढंग से बना रहा है और आगे भी बनायेगा। बाजार बंटा हुआ नहीं होगा। एक होगा। इसलिए, आवारा पूंजी की ताकत से चल रहे टेलिविजन चैनल, महानगरीय सांस्कृतिक अभिजन (मेट्रोपोलेटिन कल्चरल इलीट) की जीवनशैली का प्रतिमानीकरण कर रहे हैं। वे कसबों और छोटे शहरों के मध्यमवर्गीय समाज को प्रशिक्षित कर रहे हैं, उसे राजी कर रहे हैं और सहनशील बना रहे हैं, उन मूल्यों की स्वीकृति के लिए जिनसे अभी तो उन्हें 'सांस्कृतिक धक्का' (कल्चरल शॉक) लग रहा है।

ऐसे कार्यक्रमों में सांस्कृतिक रूप से एक अपढ़, तीसरे दर्जे की आयटम गर्ल, 'सामाजिक-न्याय' के नाम पर मध्यवित्तीय परिवार के लोगों को उन्हीं उधार के मूल्यों के कोड़े से पीट रही है, लहूलुहान कर रही है, जो उसने फूहड़ नृत्य भंगिमाओं को सीखने में गंवायी उम्र और अनुभव से हासिल किये हैं। और ध्यान दीजिए ऐसे ही लोगों को हमारे टेलिविजन चैनल्स सेलिब्रिटी बनाने में जुट जाते हैं। वे ही छवियों के निर्माण का कारोबार करते हैं। और, इसलिए वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हल्ला कर रहे हैं, जबकि यह धन्धे की स्वतंत्रता का मसला है। उन्हें पूंजी चाहिए और उसके लिए वे नैतिक अनैतिकता के प्रश्नों को भस्म करने पर हरदम आमादा हैं।

कहना न होगा कि अब इन चैनलों के बीच की गंभीर और प्रकट अंतर-स्पर्द्धा पूरी तरह 'अन्तर्सम्बन्धों' में बदल चुकी है। वे एक-दूसरे के प्रमोटर और पार्टनर है। उनके सामने देश की 'जनता' नहीं है। 'जनता' शब्द का संहार हो चुका है। अब केवल जन-समूह हैं। टारगेटेड ऑडियेंस है। जन-समूह उपभोक्ता हैं। उन्होंने रूचि के अनुकूल 'जनता' का बंटवारा कर दिया है। 'जनता' शब्द अब राजनीति के लिए रह गया है। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में आनन-फानन में प्रायवेट चैनलों को खोलने की जो अनुमति दी गई थी, उस समय कोई 'प्रसारण संहिता' नहीं बनाई गई थी, उसी की 'नियमहीनता' का लाभ लेकर ये तमाम प्रायवेट चैनल्स इतने दुत्साहसी हो गये हैं कि वे कुछ भी प्रसारित कर सकते हैं। क्योंकि पूंजी के लिए वे अपने जमीर का सौदा कर चुके हैं, अत: संस्कृति, नैतिक-अनैतिकता, यहां तक कि 'राष्ट्र-राज्य' का भी कोई मानी नहीं है, उनके लिए। अरून्धती से अधिक तो इनके लिए 'राष्ट्र-राज्य' एक काल्पनिक समुदाय है और ऐसे काल्पनिक समुदाय के लिए अपने पर प्रतिबंध लगाना मूर्खता है। वह स्वतंत्रता का उपभोग अराजक होने तक करने के लिए तैयार है।

जरा याद करिये बिग बॉस कार्यक्रम को चलाने वाला कलर्स चैनल अपने आरंभिक प्रोमोज में भूमण्डलीकरण के चलते नष्ट हो रही संस्कृति को बचाने को दावा करता हुआ आया था। और उसने स्थानीय अस्मिताओं को पुनर्जीवन देने के लिए मराठी, राजस्थानी, बिहारी, हरियाणवी, पंजाबी परिवेशों को केन्द्र में रखकर धारावाहिकों के निर्माण की श्रृंखला शुरू की थी। वही बिग बॉस के जरिये 'यूरो-अमेरिकी ट्रैश' पर आधारित सांस्कृतिक फूहड़ता को यहां के लिए 'प्रतिमान' बना रहा है। एक लम्पट और लुगाड़ी जिन्दगी के बदमिजाज जीवित किरदारों को चुन-चुनकर 'बिग-बॉस' में इकट्ठा करके, वह कौन सी सूचना और सांस्कृतिक सम्पन्नता से इस देश और समाज को भर रहा है ? अबू सलेम जैसे राष्ट्रद्रोही की सहचरी रही अपराधिन को कार्यक्रम में हीरोइक बनाया जाता है और उसका महिमामण्डन किया जाता है। यह कैसा अहिल्योद्धार है ? ये कार्यक्रम नहीं, एक वाश बेसिन है, जहां लफंगई, लुच्चई अपने हाथ धोती है। पाप का प्रक्षालन करके उसे स्वीकार्य और पूजनीय बनाया जाता है।

अब शो में वे पामेला एण्डरसन को ले आये हैं। दरअस्ल, यह 'सांस्कृतिक अस्मिताओं का विनिमय' नहीं बल्कि अस्मिताओं के 'अपहरण' की चाल है। याद करिये नृत्य पर आधारित 'रियलिटी शो' को, जिसमें सात साल की बच्ची पोल डांस की मुद्रा दिखाती है। फिल्म में ग्राहक को पटाने के लिए हेलन द्वारा किये गये डांस को जब छ: साल की छोटी बच्ची यौनिक दुलार का दृश्य देहभंगिमा से पैदा करते हुए प्रस्तुत होती है, तो निर्णायकों की जूरी 'वाह्-वाह्' करती हुई कलापारखी का मुखौटा पहने खड़ी हो जाती है। एक मासूम और अबोध बच्ची द्वारा नृत्य में रतिमुद्राओं का प्रदर्शन अंतत: कौन-सी संस्कृति पैदा करना चाहता है ?

अंत में, लगता है कि पॉमेला एण्डरसन के बाद कलर्स चैनल वालों द्वारा बहुत संभव है, अगले कार्यक्रम में जेन जुस्का को आमंत्रित कर लिया जाये, जिसने अपने बेटों की उम्र के कोई सौ लोगों के साथ सहवास का कीर्तिमान रचते हुए 'हाईहील्ड वुमन' जैसी किताब लिख डाली और उसे अमेरिकी मीडिया ने सेलिब्रिटी बना दिया।

मेरे खयाल से एक डरी हुई सरकार ऐसे फूहड़ कार्यक्रम को समय बदलने भर का सिर्फ आदेश भर दे सकती है। वह प्रसारण की कोई संहिता नहीं बना सकती। ठीक है, आज (कलर्स चैनल) उस आदेश के विरूद्ध न्यायालय से स्थगन आदेश ले आया। जनतंत्र में विकल्प है और एक हत्यारा या हजारों करोड़ का आर्थिक घपला करने वाला भ्रष्टाचारी भी न्यायालय की सीढ़ियाँ चढ़ सकता है। लेकिन, पूछा जना चाहिए कि क्या 'बिग बॉस' और 'राखी का इंसाफ' जैसे कार्यक्रमों में जहां दूषित और विकृत विचार के महिमामण्डन किये जाने को मनोरंजन के धंधे के नाम पर नहीं चलने दिया जाना चाहिए? एक जनतांत्रिक राष्ट्र का चिंतन इतना थरथराता क्यों है कि वह फूहड़ता के लिए राष्ट्रव्यापी स्वीकृति बनाने के गोरख धंधे पर रोक न लगा सके ?

ऐसे कार्यक्रम 'सूचना सम्पन्नता' नहीं, बल्कि 'सांस्कृतिक दरिद्रता' के लिए जगह बना रहे हैं। इनका 'नागरिक बोध' या 'नागरिक चेतना' से कोई सम्बन्ध नहीं है। धन्धे के 'मनमानीपन' और 'जनतांत्रिक' अभिव्यक्ति के प्रश्नों के बीच घालमेल नहीं किया जाना चाहिए।

आखिर हमें यह समझ कब आयेगी। फूहड़ मनोरंजन की उत्पादकता और उपभोग को मौलिक अधिकार के खाते में नहीं डाला सकता।

 

२९ नवंबर २०१०