एक माह पहले की बात है, दीपावली
से कुछ दिनों पहले पूरे भारत में सतर्कता जागरुकता सप्ताह मनाया गया। सतर्कता आयोग
को डर था कि हाल में देश के चुनिंदा खवैयों ने जिस तरह जमकर खाया-पिया है, उसकी नकल
करके, यथा राजा तथा प्रजा के मुहावरे का पालन करते हुए लोग खाने-पीने के त्यौहार
यानी दिवाली तथा उसके आगे-पीछे कहीं कुछ ज्यादा ही खा-पी न बैठें। इसलिए उन्होंने
समय रहते यह सप्ताह ही मना लिया और सप्ताह की शुरुआत में ही लोगों को कसम खिला दी
कि हम न तो कुछ खाएँगे न पिएँगे।
यह कसम बड़े काम की चीज है। इसे खाते ही आदमी बड़ी से बड़ी चीजें उदरस्थ कर जाता है
और डकार भी नहीं लेता। गोया कसम न हुई हाजमे का चूरन हो गया। कसम खाओ और पीछे जो
कुछ खाया-पिया है उसे पचाओ। कसम खाओ और आगे के गरिष्ठ से गरिष्ठ भोजन को भी पचा
जाने लायक सामर्थ्य अपने मोटे पेट में पैदा कर लो।
जो लोग कसम तोड़ने से बहुत डरते और घबराते हैं उनकी तसल्ली के लिए बता दें कि कसमें
और वादे तो तोड़ने के लिए ही होते हैं। वह कसम ही क्या जो तोड़ी न गई। कसम तोड़कर
खा-पी लीजिए। न अल्ला मियाँ नाराज होंगे, न भगवान बुरा मानेंगे। बस जैसे ही उनका डर
सताए, खाए-पिए में से थोड़ा-सा हिस्सा उनके यहाँ भी भिजवा दीजिए। दुनिया का बड़े से
बड़ा भगवान और खुद अल्ला मियाँ चापलूसी पसंद हैं। उनको चढ़ावा चढ़ा दीजिए, गलती की
माफी माँग लीजिए, कान पकड़कर उट्ठक-बैठक लगा लीजिए, बस पीछे का किया-धरा सब माफ हो
जाएगा। जब-जब कसम टूटे, बस यही जरा-सा टोटका आपको करना है।
रोचक बात यह रही कि उत्तर भारत की अधिसंख्य विवाहिता महिलाओं ने इसी सप्ताह के
दौरान एक दिन वाकई न कुछ खाया, न पिया और अपने-अपने सुहाग की रक्षा के लिए करवा चौथ
का व्रत रखा। काश कि अपने देश में नैतिकता, सच्चाई और ईमानदारी की रक्षा के लिए देश
के वे सब मरदुए भी ऐसा ही व्रत ले लेते, जिनको जनता के खून-पसीने से कमाए हुए
करोड़ों-अरबों रुपये खाते-पीते न भगवान का डर सताता है न अल्लाह का खौफ।
तो हम कह रहे थे कि आजकल देश में सतर्कता जागरुकता सप्ताह मनाया जा रहा है। इस
दौरान सभी सरकारी दफ्तरों पर बड़े-बड़े भड़कीले बैनर टाँग दिए गए हैं, जो चीख-चीखकर
सदाचार, ईमानदारी और सत्य-निष्ठा अपनाने का आह्वान तथा ऐलान कर रहे हैं। सरकारी
दफ्तर में जिनका काम फँसा है, ऐसे आम आदमी बड़ी हसरत से इन बैनरों को देखते हैं और
बड़े रहस्यवादी तरीके से मुस्कराकर आगे निकल जाते हैं। अपने तंत्र में भ्रष्टाचार
की कहानी के बारे में ही शायद छह सौ साल पहले कबीर साहब ने कहा था-अकथ कहानी प्रेम
की कछू कही ना जाय।
इधर अपने प्यारे यूपी में ग्राम पंचायतों के चुनाव हुए। बड़े-बड़े दिग्गज लोग ग्राम
प्रधान बनने को लालायित थे। अपने आस-पास के घरों में काम करनेवाली बाइयाँ,
निर्माणाधीन मकानों में काम कर रहे मजदूर-मिस्त्री, पेंटर-प्लंबर सब महीने भर के
लिए गायब हो गए। पड़ोस में रहनेवाले प्रिंटर महोदय को कई प्रधान-प्रत्याशियों ने एक
खास तरह का आर्डर दिया-ऐसे लिफाफे बनवा दीजिए, जिसमें पाँच-पाँच सौ के नोट आसानी से
रखे जा सकें। कुछ समझे? कबीर की अकथ प्रेम-कहानी का अनुगमन करते हुए बहुत से गाँवों
में पुरुषों ने अपनी बीवियों को प्रधानी का चुनाव लड़वाया। नाम बीवी का होगा, काम
होगा या नहीं-पता नहीं, दाम उनके पति लोग पैदा करेंगे। अपना ये प्रांत पैदा करने
में आगे है। चाहे पैसे हों या बच्चे।
स्वास्थ्य और सतर्कता दोनों विभागों के लोग कोशिश कर रहे हैं कि इस प्रवृत्ति पर
कुछ अंकुश लगे। लेकिन दुनिया का ये सबसे बड़ा दोआबा बड़ा संभावनाशील और उर्वर है।
इकबाल मियाँ को हैरत होती थी कि कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। गोकि रहा है
दुश्मन दौरे-जमां हमारा। हम मरजिउवा हैं। रक्तबीज हैं। हमारी हस्ती कैसे मिटेगी?
सबसे बड़ी शिफा तो हमारे गंगा जल में है। बड़ी से बड़ी बुराई पर थोड़ा सा गंगा जल
छिड़क दो। वह पवित्र हो जाएगी, अच्छाई में बदल जाएगी। एक बुराई का सिर काटते ही सौ
और बुराइयाँ हमारे भीतर उठकर खड़ी हो जाती हैं। फिर भी हम एक महान परंपरा के वारिस
हैं। हमारे सामने बापू के तीन बंदर बैठे हैं, जो लगातार बताते रहते हैं- बुरा मत
देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो। हमारे मन में आता है कि हम चौथे बंदर बन जाएँ और
हर आते-जाते से कहें- तुम्हारी खैरियत इसी में है कि बुराई की ओर से पीठ फेर लो और
चुपचाप चलते बनो। नहीं तो कोई गोडसे तुम्हारे सीने में गोलियाँ उतार देगा।
ये दिखावा यह झूठा स्वाभिमान ही हमारा सबसे बड़ा जीवन-दर्शन है, सबसे बड़ा युग-सत्य
है। एक पल कसम खाओ, दूसरे पल भूल जाओ। बुराई के पाँव दबाओ, क्योंकि उसके तले
तुम्हारी गर्दन दबी है और बकौल प्रेमचंद जिन पैरों तले अपनी गर्दन दबी हो, उनको
सहलाने में ही भलाई है। |