साइंस फिक्शन
का जिक्र करने पर सौ वर्षों से भी ज्यादा पुराना एक सवाल अपनी
कब्र फाड़कर सामने आ खड़ा होता है कि इसे स्वतंत्र साहित्यिक
विधा के रूप में मान्यता दी जाए या नहीं। हिंदी साहित्य के
संदर्भों में तो यह सवाल और भी तीखा होकर सामने आता है। हिंदी
लेखकों से बात करने पर सीधे-सीधे दो तरह के विचार सामने आते
हैं। पहला तो यह कि काल्पनिक व गल्प कथा की बेसिर-पैर की उड़ान
को साहित्य का दर्जा नहीं दिया जा सकता। इसके पीछे का तर्क यह
है कि अगर इसे आप एक स्वतंत्र धारा मान रहे हैं तो प्रेत-कथाओ
के कचरे को भी साहित्य में शामिल करना होगा। दूसरा और
अपेक्षाकृत उदार विचार, हिंदी में साइंर्स फिक्शन रचनाओं व
रचनाकारों के घोर अभाव पर एक अफसोस जरूर व्यक्त करते हैं लेकिन
वे न तो खुद इस दिशा में पहल करना चाहते हैं और न ही नए लेखकों
को साइंस फिक्शन लिखने का सुझाव देते हैं।
दरअसल फिक्शन शब्द जुड़ा होने और इसके गलत तजुर्बे के कारण यह
विधा हिंदी वालों के लिए आज तक अजनबी बनी हुई है। हिंदी में
साइंस फिक्शन को 'विज्ञान गल्प' का नाम दिया गया है। सबसे पहले
तो यह स्पष्ट करना बेहद जरूरी है कि फिक्शन को भले ही गल्प कह
लें लेकिन साइंस फिक्शन को विज्ञान गल्प कहना सरासर गलत और इस
विधा के साथ नाइंसाफी है। इसी प्रकार साइंस फिक्शन को 'विज्ञान
फंतासी' करार देना भी उतना ही गलत है। क्योंकि गल्प के
बेसिर-पैर के विवरणों के संयोजन और फंतासी के सस्ते रोमांच का
नाम साइंस फिक्शन नहीं हैं।
हालाँकि साइंस फिक्शन के नाम पर काफी कुछ ऐसा भी लिखा गया है
और यह मनवाने की कोशिश की गई है कि साइंस फिक्शन के नाम पर कुछ
भी चल सकता है। हकीकत में साइंस फिक्शन किसी बेसिर-पैर की
काल्पनिक उड़ान का नाम नहीं, बल्कि स्थापित वैज्ञानिक
सिद्धांतों पर आधारित एक सुसंगठित व बेहद तर्कपूर्ण कथा प्रवाह
का नाम है।
साइंस फिक्शन का महत्तव केवल इस तथ्य से समझा जा सकता है कि कई
प्रमुख साइंस फिक्शनों पर शोधार्थियों ने काम करके कई नई खोजों
को जन्म दिया है। क्योंकि वैज्ञानिक अन्वेषणों और नए
सिद्धांतों के लिए विज्ञापन परिकल्पनाएँ कच्चे माल का काम करती
हैं। इसे मैं थोड़ा और स्पष्ट करना चाहूँगा। दरअसल कोई भी
वैज्ञानिक सिद्धांत पाँच विभिन्न चरणों - क्रमश: संकल्पना,
शोध, प्रयोग, प्रेक्षण और निष्कर्ष से गुजरकर ही आकार लेता है।
नए वैज्ञानिक सिद्धांत नए आविष्कारों को जन्म देते हैं। अत:
किसी भी नए आविष्कार या सिद्धांत के मूल में उसकी संकल्पना
होती है।
साइंस फिक्शन लेखक यहीं अपनी छोटी लेकिन महत्तवपूर्ण भूमिका
अदा करता है। अपनी रचना में वह एक ठोस वैज्ञानिक संकल्पना को
जन्म देकर किसी अज्ञात तथ्य को सामने लाता है और नए शोध की
भूमिका तैयार करता है। यहीं उसकी भूमिका खत्म होती है। किसी भी
साइंस फिक्शन की उत्कृष्टता इस बात में निहित होती है कि उसकी
परिकल्पना का आधार कितना वैज्ञानिक और कितना तार्किक है।
इस दृष्टिकोण से साइंस फिक्शन को विज्ञान गल्प कहना और मानना
दोनों ही गलत है। गल्प या फंतासी की उड़ान स्वच्छंद, असीमित और
बेसिर-पैर की होती है, जबकि साइंस फिक्शन स्थापित वैज्ञानिक
सिद्धातों पर तार्किक ढंग से आगे बढ़ता हुआ सीमाबद्ध रहता है।
इसलिए साइंस फिक्शन का सही तर्जुमा विज्ञान संकल्पना या
विज्ञान परिकल्पना ही हो सकता है, विज्ञान गल्प या विज्ञान
फंतासी कदापि नहीं। विज्ञान संकल्पना लेखक इस मामले में एक
शोधार्थी की भूमिका निभाता है। अपने कथाप्रवाह में भावनाओं के
साथ उन्मुक्त बहने की इजाजत उसे नहीं होती बल्कि मानवीय
भावनाओं और सामाजिक मूल्यों को स्थापित करते हुए उसे वैज्ञानिक
सिद्धातों और सहज तर्क के एक तने हुए तार पर संतुलन साधना होता
है।
यहाँ खासतौर पर नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों की चर्चा एक
उदाहरण के तौर पर करना चाहूँगा। नास्त्रेदमस की भविष्यवाणियों
के रहस्यमय पदों में से कुछ पर्दों में आज की आधुनिक मशीनों का
जिक्र मिलता है। लेकिन इन भविष्यवाणियों के रहस्यमय पदों को
साइंस फिक्शन या विज्ञान संकल्पना का नाम कतई नहीं दिया जा
सकता। जबकि विख्यात चित्रकार लियोनार्डो द विंची के उन चित्रों
को जिसमें उन्होंने वायुमान, पनडुब्बी, टैंक इत्यादि आधुनिक
मशीनों के रेखाचित्र खींचे हैं, साइंस फिक्शन की संज्ञा दी जा
सकती है, क्योंकि इन चित्रों में सीधे-सीधे भविष्य की मशीनों
के उन्नत प्रारूपों की संकल्पना की गई है। इस संदर्भ में सबसे
रोचक तथ्य यह है साइंस फिक्शन मात्र किसी लेखन विधा का ही
नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति के किसी भी माध्यम से व्यक्त वैज्ञानिक
संकल्पना का नाम है।
भारतीय साहित्य में सबसे पहले प्रसिद्ध विज्ञानी प्रोफेसर
जगदीश चंद्र बोस ने बांग्ला भाषा में विज्ञान संकल्पना कथा
लिखी थी जो कि दुर्भाग्य से अब अप्राप्य है। पेड़-पौधों में
जीवन की खोज कर तहलका मचा देने वाले प्रोफेसर बोस ने संभवत:
अपनी विज्ञान कथा में अपनी भावी खोज की संकल्पना की थी। इस
दृष्टिकोण से प्रोफेसर बोस की यह कथा बेहद महत्तवपूर्ण हो जाती
है।
बहरहाल हिंदी साहित्य में आज तक कोई मौलिक विज्ञान संकल्पना
कथा नहीं लिखी गई। साहित्यकारों का एक हिस्सा शुरूआती ना-नुकर
के बाद इसे साहित्य की एक विधा मान लेता है और हिंदी में पहली
विज्ञान कथा के नाम पर देवकी नंदन खत्री के 'चंद्रकांता संतति'
और 'भूतनाथ' को सामने रखता है। दरअसल हिंदी साहित्यकारों में
विज्ञान संकल्पना की साहित्यिक हैसियत के सवाल पर मौजूदा मतभेद
के मूल में देवकी नंदन खत्री की ये रचनाएँ ही हैं। अगर हम
विज्ञान संकल्पना की परिभाषा की कसौटी पर कसकर देखें तो खत्री
जी की ये रचनाएँ महज गल्प या फंतासी ही साबित होती हैं।
'चंद्रकांता संतति' और 'भूतनाथ' की गाथाएँ और इन्हीं की श्रेणी
में आने वाली 'बेताल पचीसी', 'सिंहासन बत्तीसी', 'कराल कथाएँ',
'किस्सा तोता-मैना' और थोड़ा विस्तार में जाएँ तो फारसी
साहित्य की 'किस्सा-ए-गुल-बकाववली', 'हातिमताई',
'दास्तान-ए-अलिफलैला', 'अलादीन और जादुई चिराग' तथा 'सिंदबाद'
आदि और पश्चिमी साहित्य से ओडिसी, जैसन की कथाएँ, गुलीवर व
परीकथाओं के खजाने को बेहतरीन फंतासी या गल्प का दर्जा तो दिया
जा सकता है, लेकिन इन आधारहीन और ऊंची काल्पनिक उड़ानों को
विज्ञान संकल्पना कथा का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
'चंद्रकांता' व 'भूतनाथ' कथाओं में उल्लिखित अय्यारी कला और
अय्यारी के बटुए के कारण कुछ साहित्यकार इसे हिंदी साहित्य की
विज्ञान संकल्पना कथा के उदाहरण के तौर पर सामने रखते हैं।
लेकिन मात्र कुछ रासायनिक पदार्थों के उल्लेख से ही कोई कथा
विज्ञान कथा नहीं बन जाती है। विज्ञान संकल्पना या साइंस
फिक्शन को सबसे आधारभूत व बेहद जरूरी सिद्धांत यह है कि इसमें
लेखक एक संकल्पना या विचार को एक नए वैज्ञानिक सिद्धांत के तौर
पर पेश करता है और स्थापित वैज्ञानिक मूल्यों व तर्कों की
सहायता से सीमाबद्ध रहते हुए अपनी कथा में वह इसे साबित भी
करता है। तिलिस्मी और दैवीय जैसे इतर मानवीय वृत्तातों के लिए
यहाँ कोई जगह नहीं है। विज्ञान संकल्पना कथाओं में कुछ भी
अचानक या किसी जादुई शक्ति से नहीं घटता बल्कि प्रत्येक घटना
के पीछे ठोस तार्किक और वैज्ञानिक कारण होते हैं।
'चंद्रकांता' या 'भूतनाथ' में लेखक का उद्देश्य किसी नए
वैज्ञानिक सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं, बल्कि पाठकों को
तिलिस्म, रोमांच और जादू के मनगढंत़ जाल में उलझाकर उसे
आश्चर्यचकित करना ही है। भारतेंदु युग से पूर्व हिंदी साहित्य
के नाम पर ऐसी ही कथाओं की भरमार रही है और यह तिलिस्मी कथा
धारा प्रेमचंद के काल तक देखने को मिलती है। तिलिस्म की फंसाती
और सस्ते रोमांच के उद्देश्य वाली इन कथाओं के बेसिर-पैर के
वृत्तातों को 'विज्ञान संकल्पना कथा' का दर्जा कदापि नहीं दिया
जा सकता।
जिस समय भारत में हिंदी साहित्य में तिलिस्मी व जादुई कथाओं का
बोलबाला था ठीक उसी समय फ्रांस के लेखक जूल्स बार्ने अपनी
विज्ञान संकल्पना कथाओं के माध्यम से पश्चिमी साहित्य जगत में
एक नए युग का सूत्रपात कर रहे थे। १६६४ में उनके उपन्यास जर्नी
टू द सेंटर आफ अर्थ ने पश्चिमी साहित्य जगत में हलचल मचा दी।
पृथ्वी के केंद्र की उनकी अवधारणा और ज्वालामुखी की व्याख्या
ने न केवल साहित्यकारों और पाठकों में, बल्कि वैज्ञानिकों में
भी एक नई बहस छेड़ दी। इसके साथ ही नए ढंग के इस कथाशिल्प को
साइंस फिक्शन का नाम भी दिया गया। अपने अगले उपन्यास '२०,०००
लीग्स अंडर द सी' के साथ ही बार्ने ने विज्ञान संकल्पना या
साइंस फिक्शन को एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा के तौर पर पेश
किया। पश्चिमी लेखकों व बुद्धिजीवियों के बीच इस दावेदारी को
लेकर बहस तेज हो गई। साहित्यकार दो खेमों में बंट गए।
विरोधियों ने साइंस फिक्शन को साहित्य का दर्जा देने से इंकार
किया और जूल्स बार्ने को सरफिरा और उनकी कृतियों को 'बकवास'
करार दिया, वहीं जूल्स के समर्थकों ने इसे साहित्य की स्वतंत्र
विधा मानने के लिए अकाट्य तर्क रखे और खुली बहस की मांग की।
लेकिन इन सबसे पूरे जूल्स बार्ने खामोश रहकर अपने सृजन में लगे
रहे। अपनी तमाम कथाओं और अन्य उपन्यासों के साथ उन्होंने साइंस
फिक्शन की नवधारा हरी रखी। बार्ने के तीसरे प्रसिद्ध उपन्यास
'एराउंड द वर्ल्ड इन ८० डेज' के आते-आते विरोधी स्वर धीमे
पड़ने लगे थे।
जूल्स बार्ने से शुरू हुई बहस को अंग्रेजी कथाकार एच.जी.वेल्स
ने अपने मुकाम तक पहुँचाया। एक के बाद एक सशक्त, विचारोत्तेजक
व लोकप्रिय उपन्यासों क्रमश: 'फूड आफ द गाड', 'टाइम मशीन',
'अटैक आफ द मार्स' और 'इनविजिबल मैन' से उन्होंने पश्चिमी जगत
में साइंस फिक्शन को लेकर जारी विवाद को हमेशा के लिए खत्म कर
दिया। उन्होंने साइंस फिक्शन को एक स्वतंत्र साहित्यिक विधा के
तौर पर स्थापित किया और इसके महत्तव को साबित कर दिया।
एच.जी.वेल्स के लिखे उपन्यासों ने विश्व भर में धूम मचाई है।
उनके कई उपन्यासों और कहानियों पर फिल्में भी बनीं, फिर भी
उनके प्रसिद्ध उपन्यासों में 'फूड आफ द गाड' और 'टाइम मशीन'
बेहद महत्तवपूर्ण हैं। इन उपन्यासों के माध्यम से एच.जी.वेल्स
ने विज्ञान संकल्पना या साइंस फिक्शन को पूरी तरह से परिभाषित
किया है। शुरूआत में दी हुई साइंस फिक्शन की परिभाषा और इसके
आवश्यक तत्व एच.जी.वेल्स द्वारा ही प्रतिपादित किए गए हैं।
'फूड आफ द गाड' में विश्व की बढ़ती जनसंख्या की खाद्य समस्या
को विषय बनाकर एक अनोखे तथ्य की तरफ इशारा किया गया है।
वैज्ञानिक फलों और सब्जियों को उनके वास्तविक आकार के कई गुना
विशाल आकार में उगाने में सफलता हासिल कर लेते हैं। लेकिन
प्रयोगशाला में तैयार किया गया वह विशेष उर्वरक गलती से एक
गर्भवती महिला के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है जिससे उसकी
संतान सामान्य शिशु से कई गुना विशाल होती है। बड़ा होकर वह एक
दानवाकार युवक बन जाता है जिसे समाज बहिष्कृत कर देता है। इसके
अलावा प्रयोगशाला की नाली से बहे उस उर्वरक को कुछ बर्रे खा
लेती हैं। शहर में विशाल बर्रों के झुंड का आतंक कायम हो जाता
है। वेल्स ने 'फूड आफ द गाड' के माध्यम से आधुनिक जैविक तकनीक
की आधारशिला रखी। आज यह सभी करिश्में जीन तकनीक के जरिए पूरी
तरह संभव हो चुके हैं।
इसी प्रकार टाइम मशीन में युवा वैज्ञानिक इस बात को साबित करता
है कि जिस प्रकार हम भार, दूरी, वेग की वैज्ञानिक इकाइयों का
निर्धारण करने के साथ-साथ इन्हें नाप या महसूस कर सकते हैं,
उसी प्रकार से हम समय को भी नाप या महसूस कर सकते हैं। यह अपने
आप में एक अनुपम सिद्धांत है क्योंकि सभी बुनियादी वैज्ञानिक
राशियों की इकाइयाँ निर्धारित हैं जिनमें 'समय' भी शामिल है।
लेकिन अन्य भौतिक राशियों की तरह 'समय' को नापने या महसूस करने
और इसी के सापेक्ष उसे कम या ज्यादा करने में हमें सफलता नहीं
मिली है। वेल्स इसके लिए एक मशीन की संकल्पना करते हैं। इस
मशीन से भूत, भविष्य या वर्तमान किसी भी काल की आयामों में
यात्रा की जा सकती है।
विश्व साहित्य में इन कलात्मक विज्ञान संकल्पना कृतियों के
अलावा कुछ अन्य रचनाएँ भी बेहद महत्तवपूर्ण हैं। इनमें एल्डू
एक्सले की 'ब्रेव न्यू वर्ल्स' स्टीफन हापकिन्स की 'ऐरो आफ
टाइम', प्रसिद्ध अमेरिकी नक्षत्र विज्ञानी कार्ल सगान की
'कॉसमास' प्रमुख हैं। इसके अलावा जैव तकनीक और जीन तकनीक पर
रूसी साइंस फिक्शन विश्व भर में अपनी बेहतरीन संकल्पना के लिए
जाने जाते हैं। एक माने में इन वैज्ञानिक क्षेत्रों में रूसी
साहित्य को विशेषज्ञता हासिल है। जैव तथा जीन तकनीक को आज के
अत्यधिक विकसित मुकाम तक लाने में रूसी फिक्शन का महत्तवपूर्ण
योगदान है।
इससे दो कदम आगे 'साइबर' संकल्पना भी रूसी विज्ञान संकल्पना की
ही उपलब्धि है। स्टील के कंकाल पर जीवित ऊतकों की मदद से अनोखा
मानव शरीर विकसित करने की अनोखी संकल्पना 'साइबर' ने अस्सी के
दशक के अंतिम वर्षों में विश्वभर में हलचल पैदा कर दी थी।
साइबोर्गों के कारण उत्पन्न सामाजिक असंतुलन पर कई उपन्यास
लिखे गए और हालीवुड में इस विषय पर कई फिल्में भी बनीं।
लेकिन इन सबसे अलग एक विशेष साइंस फिक्शन कृति की खासतौर पर
चर्चा करना चाहूँगा जो सारे विश्व में 'फ्रेंकेंस्टाइन' के नाम
से मशहूर है। मेरी शेल की इस कृति का विश्व भर की भाषाओं में
अनुवाद किया गया और यह उपन्यास एक मुहावरे की तरह मशहूर हुआ।
क्या मृत्यु के बाद किसी को फिर से जीवित किया जा सकता हैं?
फ्रेंकेंस्टाइन का ताना-बाना इसी सवाल के आसपास बुना गया है।
जेनेवा में चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन कर रहे डाक्टर
फ्रेंकेस्टाइन अपने प्राणों से एक शव को पुनर्जीवित कर देते
हैं और उसे अपना नाम देते हैं - 'फ्रेंकेस्टाइन'। विभिन्न
प्रयोगों से गुजरने के कारण 'फ्रेंकेस्टाइन' काफी बदसूरत और
काफी हद तक डरावना हो गया है। उन्नीसवीं शताब्दी के प्लेग की
महामरी से जकड़े जेनेवा की सड़कों पर जब 'फ्रेंकेस्टाइन'
निकालता है तो लोग उसे शैतान का अवतार समझते हैं और उसे
महामारी की वजह करार देते हैं।
फ्रेंकेस्टाइन लोगों की मदद करता है, वह उनसे दोस्ती करना
चाहता है लेकिन उसे पत्थरों और गालियों के साथ समाज की घोर
उपेक्षा मिलती है। समाज से तिरस्कृत और प्यार को तरसता हुआ
फ्रेंक अंत मे अपने रचयिता की ही हत्या कर डालता है। डा.
फ्रेंकेस्टाइन को कत्ल करने के बाद उनके शव के पास बैठकर वह
शोक भी मनाता है और जब कोई फ्रेंक से पूछता है वह तुम्हारा कौन
था तो वह जवाब देता है : "यह मेरा रचयिता था। म़ेरा पिता था।"
क्या पुनर्जीवित करना संभव है? इस शताब्दियों ने पुराने सवाल
को अपने उपन्यास का आधार बनाकर मेरी शेल ने मृत्यु पर विजय के
बाद पैदा होने वाले प्राकृतिक और सामाजिक असंतुलन की गहराई से
पड़ताल की है। लेकिन इसके अलावा जो सबसे महत्तवपूर्ण तथ्य है
वह यह कि मेरी ने अंधाधुंध वैज्ञानिक विकास और प्रकृति पर विजय
पाने की गुस्ताख कोशिश की चरम परिणति की तरफ इशारा करते हुए
बेहद प्रभावी व प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति की है।
अब हम वापस भारतीय साहित्य की ओर लौटते हैं। रोचक तथ्य यह है
कि हिंदी को छोड़ सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं - मराठी, बांग्ला
और तमिल, में सशक्त व मौलिक संकल्पनाएँ की गई हैं। इसमें
बांग्ला में यह धारा प्रोफेसर जगदीश चंद्र बसु से शुरू होकर
सत्यजित राय तक आती है। जबकि मराठी में जयंत विष्णु नारळीकर और
दिलीप साल्विके विज्ञान संकल्पना कथाओं की मशाल थमे हुए हैं।
ये सभी नाम काफी जाने-पहचाने हैं और इनके बारे में कुछ अलग से
कहने की आवश्यकता नहीं हैं। हिंदी में इधर अनुवाद ही दिखाई
देता है। विज्ञान संकल्पना के नाम पर जो कुछ भी हिंदी में
उपलब्ध है वह या तो विदेशी साहित्य का अक्षरश: अनुवाद है, या
फिर भारतीय भाषाओं में लिखे अन्य साहित्य का।
हिंदी साहित्य की इस विपन्नता पर टिप्पणी करते हुए गुणाकर मुले
कहते हैं: 'साइंस फिक्शन और कथानक को एक साथ पिरोने वाली विधा
का नाम है। इसके तहत लेखक को एक समर्थ वैज्ञानिक सिद्धांत की
संकल्पना प्रस्तुत करनी होती है। इस मौलिक काम के लिए मौलिक
चिंतन की आवश्यकता होती है। जबकि यहाँ स्थिति यह है कि मौलिक
दृष्टि से सोचना अभी तक नहीं आया है। इसके अलावा दूसरी सबसे
बड़ी समस्या यह है कि हिंदी वाले विज्ञान नहीं जानते।
हिंदी वाले विज्ञान नहीं जानते-यह एक आरोप नहीं, बल्कि बेहद
कड़वी सच्चाई है जिसे हमें स्वीकार करना ही पड़ेगा। हिंदी में
विज्ञान के प्रति उदासीनता और उपेक्षा का इससे बड़ा उदाहरण और
क्या हो सकता है कि इस नारे के साथ आंदोलन तो चलाए जाते हैं कि
तकनीकी व चिकित्सकीय शिक्षा हिंदी माध्यम से दी जाए लेकिन
आजादी के पचास साल बाद भी आज तक हिंदी में विज्ञान का कोई ऐसा
शब्दकोश तक तैयार नहीं किया जा सका है जिसमें तकनीकी शिक्षा
समेत चिकित्सकीय शिक्षा के विभिन्न तकनीकी शब्दों या वाक्यों
का व्यावहारिक हिंदी रूपाँतरण प्रस्तुत किया गया हो।
इसके अलावा दूसरा सबसे बड़ा उदाहरण पत्रकारिता का है।
रोज-ब-रोज होने वाली वैज्ञानिक खोजों और नए-नए अनुसंधानों की
खबरों से रोजाना दो-चार होने वाली हिंदी पत्रकारिता में अभी भी
विज्ञान पत्रकारिता की कोई जगह नहीं है। साइंस, पर्यावरण और
चिकित्सा विज्ञान के परिशिष्ट लगातार प्रकाशित करने वाले हिंदी
के समाचार पत्रों में न तो कोई विज्ञान विशेषज्ञ हैं और न कोई
विज्ञान संवाददाता। स्थिति यहाँ तक खेदजनक है कि विज्ञान
संबंधी अंग्रेजी की खबरों के तकनीकी शब्दों का या तो हिंदी में
अनुवाद किया ही नहीं जाता या फिर अगर किया भी जाता है तो पूरी
तरह से मनगढंत़ होता है।
'चंद्रकांता' को साइंस फिक्शन का हिंदी उदाहरण प्रस्तुत करने
वाले हिंदी साहित्य जगत में कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि यह
विज्ञान विषय को लेकर एक संभ्रम का शिकार है। ऐसे में यह कहना
उचित ही है कि हिंदी वाले विज्ञान नहीं जानते। लेकिन बात केवल
हिंदी वालों पर ही आकर खत्म नहीं होती। सच्चाई तो यह है कि
विज्ञान संकल्पना के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम कर रहे मराठी
और बांग्ला साहित्य भी पुरानी पीढ़ी के प्रतिबद्ध लेखकों के
बाद इस विधा में युवा लेखकों का नया हरावल दस्ता तैयार करने
में असफल रहे हैं।
दरअसल इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि कथानक विधा को जानने वाले
विज्ञान से नहीं जुड़े और विज्ञान को जानने वाले कथानक विधा को
नहीं जानते। उदाहरण के तौर पर किसी विषय पर शोध कर रहा कोई
विज्ञानी अगर अपने विषय को सरल हिंदी में एक संकल्पना कथा के
जरिए बताता है तो यह कहीं अधिक प्रामाणिक और सशक्त होगा। बजाए
इसके कि कोई सामान्य कहानीकार विज्ञान संकल्पना लिखने की कोशिश
में मनगढंत़ कल्पना और बेसिर-पैर के वृत्तांतों से कागज काले
करे। |