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२७. ९. २०१०

सप्ताह का विचार- जो कर्म छोड़ता है वह गिरता है, कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है वह चढ़ता है।— महात्मा गाँधी

अनुभूति में- राणाप्रताप सिंह, राजेन्द्र गौतम, अरविंद कुमार सिंह और रचना श्रीवास्तव की रचनाएँ व बापू को समर्पित संकलन तुम्हें नमन।

सामयिकी में- गाँधी जयंती के अवसर पर पवन कुमार अरविंद का आलेख- वर्तमान में गांधी के विचारों की प्रासंगिकता

रसोईघर से सौंदर्य सुझाव- मसूर की दाल और दूध के उबटन में घी मिलाकर शरीर पर लगाने से त्वचा नर्म और चमकदार बन जाती है।

पुनर्पाठ में- समकालीन कहानियों के अंतर्गत १ अक्तूबर २००३ को प्रकाशित एस आर हरनोट की कहानी बीस फुट के बापू जी

क्या आप जानते हैं? १९१५ में गाँधी जी ने जब भारत में सत्याग्रह आंदोलन का प्रारंभ किया उस समय उनकी आयु ४५ वर्ष थी।

शुक्रवार चौपाल- इस सप्ताह चौपाल पर भरत याज्ञिक के मूल गुजराती नाटक के हिंदी रूपांतर महाप्रयाण का पाठ किया गया। इसके अतिरिक्त... आगे पढ़ें...

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला-१० में मेघ बजे शीर्षक के अंतर्गत, इस सप्ताह से वर्षा-गीतों का प्रकाशन प्रतिदिन होगा। आगे पढ़ें...


हास परिहास


सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

इस सप्ताह
गाँधी जयंती के अवसर पर
वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों के स्तंभ गौरवगाथा में मार्कण्डेय की कहानी हंसा जाई अकेला

वहाँ तक तो सब साथ थे, लेकिन अब कोई भी दो एक साथ नहीं रहा। दस-के-दसों-अलग खेतों में अपनी पिंडलियाँ खुजलाते, हाँफ रहे थे।
”समझाते-समझाते उमिर बीत गयी, पर यह माटी का माधो ही रह गया। ससुर मिलें, तो कस कर मरम्मत कर दी जाए आज।“ बाबा अपने फूटे हुए घुटने से खून पोंछते हुए ठठा कर हँसे। पास के खेत मे फँसे मगनू सिंह हँसी के मारे लोट-पोट होते हुए उनके पास पहुँचे।
”पकड़ा तो नहीं गया ससुरा? बाप रे.... भैया, वे सब आ तो नहीं रहे हैं?“ और वह लपक कर चार कदम भागे, पर बाबा की अडिगता ने उन्हें रोक लिया। दोनों आदमी चुपचाप इधर-उधर देखने लगे। सावन-भादों की काली रात, रिम-झिम बूँदें पड़ रही थीं।
”का किया जाय, रास्ता भी तो छूट गया। पता नहीं कहाँ हैं, हम लोग।“ पूरी कहानी पढ़ें...
*

राजेंद्र त्यागी का व्यंग्य
बापू के बंदर राष्ट्र की मुख्यधारा में
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डॉ. सत्येन्द्र श्रीवास्तव का आलेख
मूर्तियों के आगे की दवा और दंश
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प्रणय पंडित का आलेख-
गांधी जी के अहिंसक परमाणु बम का प्रदर्शन स्थल
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समाचारों में
देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ

पिछले सप्ताह

मधुलता अरोड़ा का व्यंग्य
ये साहित्य समारोह

*

डॉ. प्रतिभा अग्रवाल का
ललित निबंध- घर
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संस्कृति में पितृपक्ष के अवसर पर विशेष-
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व
*

डॉ. शेरजंग गर्ग का संस्मरण
एक था टी हाउस

*

साहित्य संगम में पाकिस्तान से अमर जलील
की उर्दू कहानी का हिंदी रूपांतर तारीख का कफन

नमाजियों की आखिरी लाइन में से एक शख्स अचानक उठ खड़ा हुआ वह काले रंग का था। उसके बाल घुँघराले आँखें चमकदार लेकिन अंदर धँसी हुई और चेहरा सपाट था। वह एक मजबूत काठी का नौजवान था। उसके कपड़ों पर जगह जगह पैबंद लगे हुए थे। जिंदगी का बोझ उठाते और सहते उसकी रीढ़ की हड्डी कमान की तरह टेढ़ी हो गई थी। उसने अपनी जगह से उठकर एक उचटती निगाह ईदगाह पर डाली।
ईदगाह तरह तरह के लोगों से भरी हुई थी। ईद की नमाज शुरू होने में बस कुछ घड़ियाँ बाकी थीं। नए उजले और भड़कीले लिबास में लोग आदर से मौलवी साहब की तकरीर सुन रहे थे और ऊँघ रहे थे। मौलवी साहब बहुत जोश में थे। वे कभी बाँहें फैलाकर कभी गिराकर और कभी धीमी आवाज़ में तकरीर कर रहे थे। पूरी कहानी पढ़ें...

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

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