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चाचू आउट हाउस पहुँचा। घोड़ा भीतर बांधा। सदरी की जेब में
ठुंसी अपनी टोपी निकाली और चूल्हे में फेंक दी। राख ठंडी थी।
टोपी की सलवटें धीरे-धीरे ऐसे उधड़ने लगीं मानो मृत्यु से
पूर्व की छटपटाहट हो। लालटेन उठाई, ढक्कन खोला और टोपी पर
मिट्टी का तेल उड़ेल दिया। दियासलाई की तीली जलाई और आग लगा
दी। घोड़ा हल्का-सा हिनहिनाया, मानो टोपी का जलना उसे पीड़ा
पहुँचा गया हो।
चाचू चूल्हे के पास बूट समेत बैठा था।
आँखें जलती टोपी पर थीं।
कमरे में कुछ देर उजाला रहा। वस्तुएं लाल रोशनी और काले धुएं
के बीच दिखने लगी थीं। चूल्हे के बाईं तरफ ऊपर के भीत पर
टंगी लालटेन। उसके दाई ओर दो मोटे डंडों के ऊपर रखा लम्बा-सा
लकड़ी का तख्ता। उस पर चाय-रोटी बनाने-खाने के गिने चुने
बर्तन। पीछे की तरफ जमीन पर लपेटा चाचू का बिस्तर। आगे तक बिछा
खारचा। ठीक ऊपर पांच-छ: मेखें, उनमें लटकाया एक पुराना छाता,
झोला, एक-दो भद्दी-सी कमीज़ें, फेरीदार पतलून और चाचू की एक
पुरानी सदरी।
दरवाजे के उस तरफ घोड़े को बाँधने की जगह थी। उसी के थोड़ी दूर
घोड़े का सामान। एक-दो बोरी और उसके साथ एक बड़ा लकड़ी का
संदूक जिसके बाहर मोटा लोहे का ताला लगा था। चाचू अपनी कमाई
सम्पत्ति इसी में रखता था। |