| आज शहर में एक साहित्यिक समारोह 
है और संयोग से हमारे यहाँ निमंत्रण पत्र आ गया है और वह भी समय से। सुबह से ही घर 
में अफ़रा तफ़री का माहौल है। घर का मुखिया इस कमरे से उस कमरे में आ रहा है, जा 
रहा है। कुछ बोलते बोलते रुक जाता है। अमूमन ये महाशय रविवार को नहाने में आनाकानी 
करते हैं। बिना नहाए बड़े मज़े से नाश्ता, भोजन, फिर शाम का नाश्ता करते हैं, 
लेकिन आज क्या हो गया सुबह ग्यारह बजे ही तौलिया बनियान लेकर खुद को बाथरूम में 
बन्द कर लिया इस हिदायत के साथ कि आज दोपहर का भोजन जल्दी़ कर लेंगे। नहाकर बाहर 
आए और हर दस मिनट बाद घड़ी की तरफ देखते। मैंने सोचा कि आज घड़ी की ख़ैर नहीं। अग़र 
इनका वश चलता तो आज तीस मिनट को साठ मिनट में बदल कर देते और चार बजे ही समारोह 
कक्ष में 
शोभायमान हो जाते। 
 ख़ैर, शाम को पाँच बजे हम दोनों तैयार होकर आटो में इस तरह तनकर बैठे मानो महाभारत 
की शूटिंग देखने जा रहे हों। रब्बा रब्बा करके हाल पर जा ही पहुँचे। मुख्यद्वार 
पर गेंदे के फूलों और आम के पत्तों के बंदनवार कई लड़ियों में लटके हुए थे। एक 
बार को लगा कि हम गलती से शादी के हाल में आ गए लेकिन हाल के बाहर स्वागत स्थल पर 
किताबों का काउन्टर और जानेमाने चेहरे दिखे तो चेहरे पर संतोष का भाव आ गया। हाल 
के अन्दर भगदड़ मची थी, लोग आ रहे थे, जा रहे थे। कुर्सियाँ डर रही थीं कि पता नहीं 
कौन कब उनको लतियाकर चला जाए। कैमरेवाले अपनी फिटिंग कर रहे थे। आयोजक मंच पर बैनर 
लगा रहे थे। ठेके के आदमी धड़ाधड़ सोफे; कुर्सियाँ लगा रहे थे। शाम के सवा छह बज 
चुके थे लेकिन हम भारतवासियों को काम देर से शुरू करने और जल्दी ख़त्म करने की आदत 
होती है। तो साहब, संचालक महोदय ने माइक संभाल लिया। वे सभी लोगों से बैठने का 
अनुरोध करने लगे पर लोग थे कि एक दूसरे के गले मिलना छोड़ ही नहीं रहे थे। 
साहित्यकार स्वाइन फलू से डरनेवाले प्राणी नहीं होते।
 
 थोड़ी ही देर में संचालक ने मंच से उन लोगों का नाम पुकारना शुरू कर दिया जिन्हें 
मंचस्थ होना था। जो मंचस्थ हो रहा था, वह कुर्सी पर बैठकर एक विजयी नज़र अपने आसपास 
और फिर सामने डालता और जो हमेशा मंच पर बैठने के अभ्यस्त हैं वे मोबाइल पर 
बतियाने लगते। जो इस क्षेत्र में नए हैं वे मंच से एक उँगली उठा उठाकर श्रोताओं का 
अभिवादन करते और ऐसी मुखमुद्रा बनाते मानो कह रहे हों कि उन्हें तो इस तरह से कब 
से मंचस्थ होने का इन्तजार था, अब इस लक्ष्य को पा ही लिया अंततः।
 
 संचालक जी ने मंचस्थ लांगों का परिचय देना शुरू कर दिया और घोषणा भी की कि अमुक 
व्यक्ति संचालन के लिये उनका वारिस है। सभी अवाक रह गए कि ये उद्घोषक हैं या 
घोषणापत्र जारी करनेवाले मंत्री। अतिथियों का फूलों के गुच्छे से स्वागत किया गया। 
अचानक संचालक महोदय कक्ष में बैठे प्रबुद्धों का नाम ले ले कर उनका मौखिक स्वागत 
करने लगे। जिन जिनके नाम लिये जा रहे थे, वे आश्वस्त थे कि उनकी उपस्थिति 
सार्वजनिक रूप से दर्ज हो गई। कुछ लोग देर से आने के आदी होते हैं या जानबूझकर देर 
से आते हैं ताकि हाल में उनके प्रवेश पर सबकी आँखें एकबारगी उन पर उठ जाएँ। वे 
हाँफते हुए आते हैं और खाली कुर्सी तलाशते हैं और ये अपेक्षा भी रखते हैं कि कोई 
उठकर उन्हें अपनी सीट दे दे। पर बैठे हुए लोग भी कम घाघ नहीं होते और न उठकर मानो 
यह कहते हैं कि बाहर बहुत रुवाब झाड़ते हो सीनियर होने का। अब खड़े रहो।
 
 धीरे धीरे कार्यक्रम समाप्त होने का समय आता है और ये लीजिये, संचालक महोदय ने 
कार्यक्रम समाप्त होने की घोषणा कर दी है। श्रोता मंच पर चढ़ गए हैं और मंचस्थ 
लोगों का हाथ दबा दबाकर अभिवादन कर रहे हैं। नए मंचस्थ प्रतीक्षा में हैं कि कब कोई 
आकर उनका भी हाथ दबाए पर लोग कन्नी काट जाते हैं। नए मंचस्थ इसका बुरा मान जाते 
हैं, इसे वे अपना अपमान मानते हैं और भुनभुनाने लगते हैं। उनकी यह भुनभुनाहट आयोजक 
तक पहुँचती है पर उनके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती। वे सिर्फ टेढ़ी आँख से इन नयों 
को देखते हैं मानो कह रहे हों कि वे इस क्षेत्र में नए हैं, मंच पर बिठाया, इसी में 
वे अपने भाग्य को सराहें। उँगली पकड़कर पोंहचा न पकड़ें। नए मंचस्थ यह प्रण करके 
नीचे उतरते हैं कि वे भी ख़ुशामदी लोगों की जमात तैयार करेंगे, तब उनके भी दिन 
बहुरेंगे। धीरे धीरे कक्ष खाली होने लगता है। मैं सबसे पीछे रह जाती हूँ। भीड़ 
भड़क्के से घबराहट होती है और बेवजह धक्के खाने से बचती हूँ।
 
 मैं समझ जाती हूँ कि अब सबके सब मिलकर दूसरों की निजी जिन्दगी में प्रवेश कर रहे 
हैं और वे सारी अनाप शनाप बातें करेंगे जिसका कोई अन्दाज़ा नहीं लगा सकता। बातें कर 
रहे हैं, फिक्क से हँस रहे हैं मानो कह रहे हैं, ‘हम ऐसी किस्मत कहाँ 
लेकर आए हैं कि हमारी जिन्दगी में कोई हसीना आए और हमें गुलज़ार कर जाए’। फिर अगले 
साहित्यिक कार्यक्रम में मिलने का वादा करते हुए अपने अपने घरों की तरफ टुर लेते 
हैं। सो आप में से जिसको भी ऐसे साहित्य समारोहों में जाने में रुचि हो वे यह लेख 
पढ़कर अपने को कार्यक्रम के लिये तैयार कर सकते हैं। साहित्यकार बनने और साहित्य 
समारोह में भाग लेने के लिए बुद्धिजीवी होना आवश्यक है यह किसने कहा?
 |