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इतिहास

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गाँधी जी के अहिंसक परमाणु बम का
परीक्षण स्थल

--प्रणय पंडित


गाँधीजी सन् १९१५ में अफ्रीका से भारत लौटे। सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह का उन्होंने जो वहाँ सफल प्रयोग किया था, उसे भारत में लागू करने के लिए आधार भूमि खोजते हुए उन्होंने अहमदाबाद में साबरमती के तट पर आश्रम बनवाया। वह भारत की स्थितियों का अध्ययन कर ही रहे थे कि सन १९१६ में लखनऊ अधिवेशन हुआ, जिसमें भाग लेने के लिए वह लखनऊ पहुँचे। लखनऊ में उन्हें एक सज्जन रामकुमार शुक्ल ने चंपारण के किसानों पर हो रहे अत्याचार के बारे में बताया।

नीलहे साहबों का अत्याचार


बिहार का चंपारण जिला नील की खेती के लिए मशहूर था। यहाँ की जमीन नील की खेती के लिए बहुत उपयुक्त थी और नील सारी दुनिया में केवल चंपारण में ही उगाया जाता था। नील की इंग्लैंड में बहुत खपत थी इसलिए अँग्रेजों ने यहाँ नील के व्यापार के लिए कोठियाँ बना ली थीं। उनकी कोशिश थी कि अधिक से अधिक नील उगाया जाए। इसलिए अँग्रेज सौदागर तो जमीदार भी बन बैठे थे, किसानों को मजबूर कर रहे थे कि वे अधिक से अधिक नील उगाकर उन्हें दें। जबकि किसानों का कहना था कि कुछ हिस्से पर उन्हें धान, गेहूँ, सरसों आदि उगाने दी जाए, ताकि ग्रामीणों को खाने के लिए थोड़ा-बहुत अन्न तो मिल सके। अँग्रेज सौदागर जिन्हें निलहे साहब कहा जाता था, इसके लिए तैयार नहीं थे। वह किसानों पर तरह-तरह से दबाव डालते थे। जब प्रलोभन और छल-बल से काम नहीं निकला, तब वह अन्याय पर उतर आये थे। इससे चंपारण के किसान बेहद दु:खी और मजबूर थे।

नील के सौदागर इन अँग्रेज निलहे साहबों के अत्याचारों को यथावत चित्रण करते हुए एक नाटक लिखा गया -- 'नील दर्पण,' सन १८६० में लिखे इस नाटक में दर्शाया गया कि गाँव के किसान इन अँगरेजों के अत्याचारों से तंग आकर किस तरह गाँव छोड़ गये। एक सम्मानित जमीदार गोलकबाबू को पिछले वर्षों की नील उगायी की बकाया रकम भी नहीं दी गयी। उसके बड़े लड़के नवीन माधव को बुरी तरह पीटा गया। जमींदार को झूठे फौजदारी के मुकदमे में अँग्रेज न्यायाधीश से मिलकर जेल भिजवा दिया। जिस धर्मप्राण सात्विक प्रवृत्ति के जमींदार ने कभी बाहर का पानी तक नहीं पिया, जेल की जहालत को नहीं सह सका और उसने आत्महत्या कर ली। इतने पर भी अँग्रेज सौदागर ने उसके अंतिम क्रिया-कर्म तक के लिए तेरह दिन की मोहलता नहीं दी। अंतत: जमींदार की पत्नी का निधन हो गया। उन्हें गाँव छोड़ना पड़ा और अँग्रेज सौदागर ने उसकी सारी जमीन हड़प ली। इस तरह किसानों की हड़पी जमीनों पर वे लात, घूँसे और हंटर के बल पर मजदूरों से काम कराते, इतना ही नहीं गाँव की बहू-बेटियों को भी बेइज्जत करते। मजदूरी करने पर आनाकानी क
रने से घरों को जला देते। दरअसल, किसानों को उन्होंने गुलामों से भी बुरी दशा में पहुँचा दिया था।

जब यह नाटक नील-दर्पण कलकत्ता में खेला गया, तब तक दर्शक सन्नाटे में आ गये। दर्शकों में ईश्वरचंद्र विद्यासागर भी थे। वे इतने विचलित हुए कि उस अभिनेता पर चप्पल फेंक मारी, जो उस नीलहे सौदागर का अभिनय करते हुए गाँव की लड़की से जबरदस्ती कर रहा था। यह नाटक कई जगह खेला गया। बाद में इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। और नाटककार पर मुकदमा चला।

राजेन्द्र बाबू के घर गाँधीजी

राजकुमार शुक्ल ने गाँधीजी द्वारा अफ्रीका में किये सत्याग्रह के बारे में सुन रखा था। उसने गाँधीजी को चंपारण के किसानों के हालात के बारे में बताया। वह छह महीने तक गाँधीजी के पीछे-पीछे कानपुर, अहमदाबाद, कलकत्ता घूमता रहा। अंतत: वह गाँधीजी को कलकत्ता से पटना ले गया। पटना पहुँचकर राजकुमार शुक्ल गाँधीजी को राजेंद्र बाबू के घर ले गया। राजेंद्र बाबू एक प्रसिद्ध वकील थे और उस समय वह किसी मुकादमे के सिलसिले में जगन्नाथपुरी गये हुए थे। राजेंद्र बाबू के नौकरों ने इन दोनों को देहाती मजदूरनुमा किसान समझा और उन्हें घर में भी नही घुसने दिया, बाहर बरामदे में ही टिका दिया।

नीलहे अँगरेजों की अत्याचार की बात तो सही थी लेकिन उन तक पहुँचा कैसे जाए क्योंकि, न तो राजकुमार शुक्ल ज्यादा जानते थे और न उन्हें सही ढँग से समझा पा रहे थे। दूसरा भी कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो गाँधीजी की मदद कर पाता। आखिर, गाँधीजी ने मौलाना मजरूल हक को चिठ्ठी लिखी। मौलाना गाँधीजी के मित्र थे, जिनसे उनकी लंदन में दोस्ती हुई थी। पत्र मिलते ही मौलाना अपनी गाड़ी लेकर आये और उन दोनों के बीच तय हुआ कि उसी दिन शाम की ट्रेन से मुजफ्फरपुर चलना चाहिए। वहाँ से फिर आगे चंपारण। उन दिनों मुजफ्फरपुर में जोइतराम भगवानदास कृपलानी अर्थात आचार्य जे.बी.कृपलानी अँग्रेजी के प्राध्यापक थे। कृपलानीजी काका साहेब कालेलकर और स्वामी आनंद के मित्र थे और वे गाँधीजी से एकाध बार मिले भी थे। गाँधीजी ने उन्हें तार द्वारा अपने पहुँचने की सूचना दे दी थी। जब गाँधीजी मौलाना हक के साथ मुजफ्फरपुर रेल्वे स्टेशन पर उतरे, तब आधी रात बीत चुकी थी, लेकिन कृपलानी और उनके छात्रों की भीड़ गाँधीजी के स्वागत के लिए स्टेशन पर मौजूद थी। 'गाँधीजी जिंदाबाद' के नारे से सारा स्टेशन गूँज उठा।


अद्भुत अध्यापक कृपलानी

आचार्य कृपलानी एक अद्भुत अध्यापक थे। वे अपना पूरा वेतन और पूरा दिन विद्यार्थियों के बीच बिता देते और जहाँ रात होती वहीं सो जाते। वे गाँधीजी को कहाँ टिकाते? इसलिए वे गाँधीजी को प्रोफेसर मलकानी के घर ले गये।

कृपलानीजी ने बिहार की दयनीय स्थिति और चंपारण की विकट स्थिति से गाँधीजी को अवगत कराया और फिर तार देकर राजेंद्र बाबू को तथा ब्रजकिशोर बाबू को दरभंगा से बुलवाया। सभी ने मिल-बैठकर समस्या पर विचार किया। पता चला कि इस मामले को लेकर दो-चार केस दीवानी कचहरी में चल रहे हैं। इन केसों के कागजातों को देखा गया, तो मालूम हुआ कि इस प्रकार के केस करना बेकार है।

गाँधीजी पटना लौटे और स्थानीय वकीलों के साथ विचार-विमर्श किया। तय हुआ कि किसानों पर हो रहे अत्याचारों के सबूत इकठ्ठे किए जाएँ। सभी नामी-गिरामी वकील इस काम में जुट गये। एक-एक किसान की सच्ची कहानी सुनकर पिटीशन लिखे जाने लगे। यह बात जंगल की आग की तरह फैली और दूर-दूर से किसान आकर अपना दु:ख-दर्द सुनाने ल
गे। धड़ाधड़ पिटीशन तैयार होने लगे।

इधर, गाँधीजी नीलहे साहबों से मिलने लगे। और कलेक्टरों से मिलकर उन्हें किसानों के कष्ट बताकर न्याय की माँग करने लगे। इस पर अँगरेजों ने उल्टे गाँधीजी को धमकाना शुरू कर दिया और उनसे कहा कि वे चंपारण छोड़कर चले जाएँ। गाँधीजी को लगा कि सरकार उन्हें जल्द से जल्द गिरफ्तार कर सकती है।

गाँधीजी यही चाहते थे कि उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाए, ताकि वह अपनी बात कानून के सामने खुले आम कह सके।

तभी समाचार मिला कि मोतीहारी के पास एक गाँव में एक नीलहे साहब ने एक किसान को बहुत बुरी तरह मारा-पीटा है। गाँधीजी उस किसान से स्वयं मिलने चल पड़े। यह इलाका दलदली था। इसलिए गाँधीजी को हाथी पर बैठाकर ले जाया गया। उनके साथ हजारों दीन-दु:खी किसान भी साथ हो लिए। लेकिन गाँधीजी आधा रास्ता ही पार कर पाये थे कि पुलिस उनकी गिरफ्तारी का वारंट लेकर आ गयी।

वारंट में ताजीरात-ए-हिंद की धारा १४४ के अँतर्गत गाँधीजी को हुक्म दिया गया था कि वे चंपारण छोड़कर चले जाएँ नहीं तो उन पर मुकदमा चलाया जाएगा। गाँधीजी ने हुक्म को मानने से इन्कार कर दिया, तो उन्हें मोतीहारी की अदालत में
हाजिर होने का हुक्म दिया गया। दूसरे दिन उन पर इलाके में अशांति पैदा करने के अपराध में मुकदमा चलाया गया।

गाँधीजी की गिरफ्तारी के वारंट का समाचार पूरे बिहार में फैल गया। मोतीहारी में सभी वकील आ जुड़े। कचहरी के आगे हजारों गरीब किसान इकठ्ठे हो गये। गाँधीजी ने भीड़ को शांत और संयत रहने के लिए कहा। भीड़ शांत हो गयी। भीड़ पर जादू-जैसा असर होता देख, अँग्रेज गाँधीजी से बहुत प्रभावित हुए। गाँधीजी कोर्ट में पेश हुए। गाँधीजी पर धारा १४४ का मुकदमा चलना था, लेकिन लगता था कि ब्रिटिश हुकूमत स्वयं कटघरे में खड़ी है। सरकारी वकील और मजिस्ट्रेट परेशान, वह चाहते थे कि मुकदमा आगे के लिए टाल दिया जाए, जबकि गाँधीजी ने कहा, ' मैं अपना गुनाह कबूल करता हूँ। मु
झ पर मुकदमा चलाया जाए।' गाँधीजी ने कहा, 'वारंट में दिये हुक्म के अनुसार मुझे चंपारण छोड़ देना चाहिए, लेकिन मेरी अँतरात्मा की पुकार है कि मुझे चंपारण में रहकर किसानों के कष्ट निवारण के लिए काम करना चाहिए। इससे सरकार के हुक्म की अवज्ञा हो रही हैं, और इस अवज्ञा के अपराध की सजा भुगतने के लिए तैयार हूँ।'

मजिस्ट्रे
ट परेशान कि अजीब आदमी है गाँधी, जो अपना अपराध स्वीकार कर सजा दिये जाने के लिए जोर दे रहे हैं। मजिस्ट्रेट को जब कुछ न सूझा तो उसने चार दिन बाद के लिए पेशी टाल दी। गाँधीजी ने सारी घटना का विवरण तार द्वारा वाइसराय को भेज दिया। वाइसराय ने दूसरे ही दिन गाँधीजी के खिलाफ जो केस दायर था, उसे वापस ले लिया और कलेक्टर को हुक्म दिया कि किसानों पर हो रहे अत्याचारों की जांच की जाए और इस काम में गाँधीजी की मदद ली जाए।

कानून के 'सविनय अवज्ञा भंग' का यह भारत में पहला मामला था। सारे देश में इस घटना की चर्चा चल पड़ी। सबका ध्यान चंपारण की ओर गया। गाँधीजी दो साल चंपारण में रहे। किसानों को राहत मिली। नीलहे साहबों के काले कारनामों पर रोक लगी। यह गाँधीजी की पहली विजय थी और देश के स्वाधीनता संग्राम का प्रथम केंद्र बिंदु-चंपारण बना।

("कादंबिनी" से साभार)

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