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साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है पाकिस्तान से अमर जलील की उर्दू कहानी का हिन्दी रूपांतर- "तारीख का कफन"। रूपांतरकार हैं आलम खुर्शीद।


नमाजियों की आखिरी लाइन में से एक शख्स अचानक उठ खड़ा हुआ वह काले रंग का था। उसके बाल घुँघराले आँखें चमकदार लेकिन अंदर धँसी हुई और चेहरा सपाट था। वह एक मजबूत काठी का नौजवान था। उसके कपड़ों पर जगह जगह पैबंद लगे हुए थे। जिंदगी का बोझ उठाते और सहते उसकी रीढ़ की हड्डी कमान की तरह टेढ़ी हो गई थी। उसने अपनी जगह से उठकर एक उचटती निगाह ईदगाह पर डाली।

ईदगाह तरह तरह के लोगों से भरी हुई थी। ईद की नमाज शुरू होने में बस कुछ घड़ियाँ बाकी थीं। नए उजले और भड़कीले लिबास में लोग आदर से मौलवी साहब की तकरीर सुन रहे थे और ऊँघ रहे थे। मौलवी साहब बहुत जोश में थे। वे कभी बाँहें फैलाकर कभी गिराकर और कभी धीमी आवाज़ में तकरीर कर रहे थे। वे लोगों में सोए हुए ईमान की भावना को जगाने की कोशिश कर रहे थे। लोग गौर से उनकी तकरीर समझने की कोशिश में थे। उनकी निगाहें सामने रखे हुए जूतों पर केंद्रित थी। जूतों स्लीपरों और चप्पलों के तले मिले हुए थे और मुसल्लों के सामने सिजदे की जगह से एक इंच आगे रखे हुए थे। कुछ नमाज़ी ढुलढुल की तरह सजाए हुए बच्चे अपने साथ लाए थे। उनकी एक आँख बच्चों पर थी। मौलवी साहब की सेहत काफ़ी अच्छी थी। लाउड स्पीकर अगर न होता तब भी उनकी पाटदार आवाज़ आखिरी लाइन में खड़े हुए काले आदमी तक जरूर पहुँच जाती।

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