घर
डॉ. प्रतिभा अग्रवाल
पिछले दिनों मोहन राकेश के `लहरों के
राजहंस' की श्यामानंद जालान द्वारा निर्देशित नाटक की
प्रस्तुति देखी। नाटक के तीसरे अंक में भिक्षु आनंद के
एक संवाद ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया, वह निरंतर कानों
में गूँज रहा है कि -- "मैं
घर देखना चाहता था, नंद...घर... कक्ष या उद्यान नहीं।
तुम्हारे पास कक्ष और उद्यान सब है, घर नहीं है...घर
जिसमें आत्मा को विश्राम मिल सके।“ भिक्षु चाहते हैं
घर ऐसा हो जहाँ आत्मा को विश्राम मिले। घर अर्थात्
रहने के लिए बनाया गया आच्छादित आवास। वह चाहे
पक्षियों का घोंसला हो या चीटियों का बिल या दीमकों की
बांबी या गायों की गौशाला, घोड़ों की घुड़साल या फिर
मानव द्वारा अपने रहने के लिए बनाई गई झोपड़ी, मड़ैया,
कच्चा मकान, पक्का मकान, हवेली महल किला आदि।
बड़े शहरों में बड़ी संख्या में लोग सड़कों के किनारे
रहते हैं- टिन, प्लास्टिक, कपड़े आदि से घेर-घारकर
अपना आवास बना लेते हैं। उनके पास ही होते हैं
बहुमंजिले एपार्टमेंट हाउस जिन्हें बांग्ला में `फ्लैट
बाड़ी” कहते हैं। “एपार्टमेंट” शब्द एपार्ट होने की
अर्थात् एक दूसरे से अलग होने की अनुभूति कराता है।
एपार्टमेंट हाउस वस्तुत. एक साथ ही अलग होने और साथ
होने, दोनों की अनुभूति कराते हैं। अस्तु, भिक्षु आनंद
का तात्पर्य अवश्य ही स्थूल घर में पाई जाने वाली उस
सूक्ष्म अनुभूति से था जो घर को विश्राम स्थली बनाती
है। अँग्रेज़ी में प्रयुक्त `हाउस’ और `होम’ शब्द बात
को एकदम साफ़ कर देते हैं। हाउस वह आच्छादित स्थल है
जिसमें व्यक्ति रहता है, होम वह अनुभूति है जो स्थूल
घर में रहने के दौरान आप अनुभव करते हैं--जो आपको
आश्वस्त करती है, निश्चिंत करती है, आपके अभाव को भाव
से परिपूरित करती है, आपको सुकून देती है। भिक्षु को
नंद के आवास में वह आश्वस्ति नहीं अनुभव हुई।
असल में जीवन में आश्वस्ति बड़ी महत्त्वपूर्ण होती है।
माँ-बाप आश्वस्त हों कि बुढ़ापे में बच्चे उनकी देखरेख
करेंगे, बच्चे आश्वस्त हों कि माँ बाप, भाई-बहन सब
हैं, सुख-दुख में हमारे साथी होंगे। चार भाइयों में से
कोई एक बहुत बीमार हुआ या मरणासन्न हुआ तो उसे भरोसा
रहता है कि बच्चों के ताऊ-चाचा हैं, उन्हें
पढ़ा-लिखाकर आदमी बना देंगे।
अलग-अलग इकाई के रूप में रहने वाले परिवारें में घर की
यह अनुभूति धीरे-धीरे कम होती जा रही है। आज से ६० साल
पहले जब हमने होश सँभाला तो `घर बनाने’ और `घर बसाने’
की बात सोची जाती थी, `घर उजड़’ न जाए इसकी चिंता की
जाती थी। तब विवाह-सम्बन्ध दो परिवारों में होता था,
घर का दायरा बड़ा होता था। अब सब कुछ अपने-अपने तक
सिमट आया है। विवाह होने के साथ वर-वधू का हनीमून के
लिये जाना ज़रूरी होता है ताकि नाते-रिश्तेवालों की
भीड़-भाड़ से दूर वे एक-दूसरे को जान-समझ सकें।
दूर-दूर से आए मेहमानों को जानने का मौका फिर कब
मिलेगा कौन जाने, यह सोचकर हम दो-चार दिन भी नहीं
रुकते, उस साथी को जानने-समझने की चेष्टा में लग जाते
हैं जिसके साथ आजीवन (??) रहने को प्रस्तुत हुए होते
हैं। वैसे नाते-रिश्तेदारों का स्थान अब इष्ट मित्रों
ने ले लिया है जिसमें यह बाध्यता नहीं कि आप इनसे,
उनसे सम्बन्ध रखें ही, जिससे मन मिले उसके साथ सम्बन्ध
रखिए अन्यथा छुट्टी। बहुत बार ये सम्बन्ध अत्यंत घनिष्ठ
होते हैं, रक्त-सम्बन्धों से बढ़कर।
तो क्या आज के फ्लैटबाड़ी के ज़माने में हमारी घर की
अनुभूति भी फ्लैटवाली हो गई है, फ्लैट हो गई है? स्थूल
जगह की सीमा क्या हमारी सूक्ष्म अनुभूति को भी संकुचित
कर रही है.?
कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि जगह बड़ी हो या
छोटी, हम धीरे-धीरे संकुचित होते जा रहे हैं। बात सन्
१९६९-७० की है। हम चौरंगी के दो कमरों के फ्लैट से तीन
बेडरूमवाले बड़े फ्लैट में आए। कुछ दिनों बाद कई लोग
एक साथ आनेवाले हुए तो मुझे चिंता होने लगी कि सब लोग
कहाँ रहेंगे, कैसे रहेंगे? घर में बेड तो पाँच ही हैं,
सबको कहाँ सुलाएँगे? मदनजी बहुत गुस्सा हुए,
बोले--``पहले उस छोटे फ्लैट में इतने-इतने लोग एक साथ
रह लेते थे, आज इतने बड़े फ्लैट में भी तुम्हें
परेशानी हो रही है। ड्राइंगरूम में यहाँ से वहाँ तक
बिस्तर लगवा देना, सब लोग सो रहेंगे।” बात तो ठीक थी।
यदि मन में जगह हो तो घर में जगह कम नहीं पड़ती। इसका
मज़ा एक बार बनारस में देखा। कलकत्ता से हम १५-२० लोग
विजय दशमी के अवसर पर बनारस गए- रामलीला देखने के
उद्देश्य से। साथ में विष्णुकांत शास्त्री, श्यामानंद
जालान, विमल लाठ आदि सभी थे, सपरिवार। बनारस में साथ
हुए भानुशंकर मेहता एवं मेरे परिवार के कुछ लोग।
एक दिन रामनगर रामलीला देखने गए। हमलोगों ने एक मिनी
बस कर ली थी। रामनगर शहर से दूर गंगा उस पार है, मेले
के समय यातायात की असुविधा रहती ही है। लौटते समय
भानुशंकर जी ने निकट के कई लोगों को साथ ले लिया- ए
बच्चा! जरा खिसको, चाचा को बैठाओ आदि कहकर जगह करवाते
गए। पता नहीं, कहाँ से जगह निकलती गई। यह आत्मीयता
बनारस वगैरह में बराबर दिखलाई पड़ती है, लोग दूसरों के
लिए जगह बनाते चलते हैं। बड़े शहरों में तो मोटर में
पीछे तीन लोग भी बैठे तो जगह कम लगती है, छोटे बच्चे
गोद में नहीं बैठना चाहते, हम भी साड़ी मुस जाने के डर
से बैठाना नहीं चाहते।
बांग्ला में `घर’ शब्द का इस्तेमाल कमरे के लिए होता
है, मकान को `बाड़ी’ कहते हैं। हिन्दी में घर मकान भी
है और कमरा भी यथा रसोईघर, भंडारघर, नहानघर, पूजाघर
आदि। घर-सूक्ष्मघर-की मानोकामना के प्रति हर व्यक्ति
सजग रहता है, बड़ा हो या छोटा। विजय तेंदुलकर के नाटक
`कमला’ में इस भाव की बड़ी सटीक अभिव्यक्ति प्राप्त
होती है। जयसिंह जाधव खरीदकर लाई औरत, कमला को समझाता
है कि जब मीटिंग में लोग तुमसे पूछें कि तुम अपने घर
में कैसे रहती थी, क्या खाती-पीती थी तो तुम सब सचसच
बताना। कमला की तत्काल तीखी प्रतिक्रिया आई--``हम
चाहें अपने घर में भूखे-नंगे रहैं त का सब जनन कौं
बतान पड़त है का?” अवश्य ही इस कथन में अपने घर के
बेपर्द होने की आशंका थी, वह न हो इसकी चेष्टा थी।
बादल बाबू के नाटक `सारी रात’ में प्रेम की गहन
अनुभूति के साथ ही घर बना रहे इस आकांक्षा को भी
रूपायित किया गया है। शाम को घूमने के लिए निकले
पति-पत्नी तेज़ वर्षा के कारण एक घर में आश्रय लेने को
बाध्य होते हैं। गृहस्वामी एक वृद्ध है जो वास्तविक भी
है और वायवी जैसा भी। वह स्त्री के मन में छिपी किसी
पर-पुरुष की आसक्ति को पकड़ लेता है, स्त्री को अपनी
भावनाओं को व्यक्त करने के लिये प्रेरित करता है,
स्त्री भावनाओं के स्तर पर उसे अर्थात् अपने रंजन को
समर्पण भी करती है पर विवाहिता होने के कारण अपनी इस
दुर्बलता को लेकर चिंतित है, परेशान है। नाटक के अंतिम
अंश के कुछ संवाद दृष्टव्य हैं--
वृद्ध- आज की रात शेष होने को है। बरसात रुक जाने को
है। मैं भी शेष हुआ जा रहा हूँ।
स्त्री- मेरा तब क्या बचेगा?
वृद्ध- क्यों? घर?
स्त्री- मेरा घर बह गया है।
वृद्ध- घर बहा नहीं है। सोचा था बह जाएगा, मैंने ऐसा
ही चाहा भी था, पर बहा नहीं। घर बहा नहीं। बहुत बड़ी
विपत्ति में भी नहीं बहता।
स्त्री- मेरा घर अब किस आधार पर खड़ा रहेगा?
वृद्ध- पता नहीं। प्रेम, विश्वास, परिचय यह सब नहीं-
कुछ और ही है जिस आधार पर घर खड़ा रहेगा।
शायद अभ्यास, शायद रात की नींद, शायद दिन की रोशनी।
स्त्री- और रंजन?
वृद्ध- बरसात रुक गई है, सबेरा हो रहा है, अभी ही
रोशनी हो जाएगी। पानी उतर जाएगा, दिन की रोशनी में
लौटने का रास्ता साफ़ दिखलाई पड़ने लगेगा।
स्त्री- और रंजन?
वृद्ध- रंजन? रंजन एक रात है, निद्राहीन रात। उसे
भूलना न चाहो तो न भूलो।
घर, अर्थात् दाम्पत्य जीवन के प्रति एक अन्य तरह की
आस्था। साथ ही जीवन में स्वतःस्फूर्त प्रेम, कामना,
वासना आदि का स्वीकार। और स्वीकार इस बात का भी कि
दाम्पत्य के बाहर होने वाला यह प्रेम स्वाभाविक है पर
इसका आधार दृढ़ नहीं होता। यह आँधी-तूफान की तरह जीवन
में आता है, कुछ जोड़ता है, कुछ तोड़ता-फोड़ता है पर
बहुत गहरे नहीं जा पाता, प्रायः घर की सुदृढ़ नींव को
ध्वस्त नहीं कर पाता, थोड़ा हिला भले ही दे।
२० सितंबर २०१० |