पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व
संकलित
अपने
पूर्वजों के प्रति श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को
श्राद्ध कहते है। इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं। आश्विन
मास का कृष्ण पक्ष श्राद्ध या महालय पक्ष कहलाता है।
जैसी कि मान्यता है, श्राद्ध पक्ष सोलह दिन का माना
गया है। अनंत चतुर्दशी के अगले दिन पूर्णिमा से शुरू
होकर अमावस्या को पूर्ण होता है। इसमें जिस तिथि को
प्राणी की मृत्यु होती है, उसी तिथि को उसका श्राद्ध
किया जाता है। आश्विन कृष्ण अमावस्या को सर्वपितृ
अमावस्या कहलाती है । जिन पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद
न हो, तो उनका श्राद्ध इस दिन कर पितरों को तर्पण किया
जाता है और दान-पुण्य कर विसर्जित किया जाता है। ऐसा
माना जाता है कि इस दिन पितरों को संतुष्ट करने वाले
स्त्री-पुरुष सभी प्रकार के सुख एवं सद्गति प्राप्त
करते हैं। सामाजिक विरासत के तौर पर पितृ पक्ष को हम
एक प्रकार से पितरों का सामूहिक मेला भी कह सकते हैं।
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा
नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव
हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और
प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी
बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले
चलें।
इस प्रकार की प्रार्थना के साथ पितरों को तृप्त करने
की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या
तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते
हैं। तर्पण करना ही पिंडदान करना है। श्राद्ध पक्ष को
तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और
महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जाना जाता
हैं।
यजुर्वेद की एक प्रार्थना में कहा गया है- 'हे अग्नि!
हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों
ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग
को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का
पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी
उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'-
वेदानुसार यज्ञ पाँच प्रकार के होते हैं- (1) ब्रह्म
यज्ञ (2) देव यज्ञ (3) पितृयज्ञ (4) वैश्वदेव यज्ञ (5)
अतिथि यज्ञ। उक्त पाँच यज्ञों को पुराणों और अन्य
ग्रंथों में विस्तार दिया गया है। उक्त पाँच यज्ञ में
से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराण में श्राद्ध
कर्म की संज्ञा दी गई है।
ऐसा माना गया है कि मृत्यु के बाद व्यक्ति जब देह
छोड़ता है तो जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति की स्थिति
अनुसार तीन दिन के भीतर वह पितृलोक चला जाता है।
इसीलिए 'तीज' मनाई जाती है। कुछ आत्माएँ तेरह दिन में
पितृलोक चली जाती हैं, इसीलिए त्रयोदशाकर्म किया जाता
है और कुछ सवा माह अर्थात सैंतीसवें या चालीसवें दिन।
फिर एक वर्ष पश्चात तर्पण किया जाता है। पितृलोक के
बाद उन्हें पुन: धरती पर कर्मानुसार जन्म मिलता है या
वे ध्यानमार्गी रही हैं तो वे जन्म-मरण के चक्र से
मुक्त हो जाती हैं।
हमारे जो पूर्वज पितृलोक नहीं जा सके या जिन्हें
दोबारा जन्म नहीं मिला ऐसी अतृप्त और आसक्त भाव में
लिप्त आत्माओं के लिए अंतिम बार एक वर्ष पश्चात 'गया'
में मुक्ति-तृप्ति का कर्म तर्पण और पिंडदान किया जाता
है। गया के अतिरिक्त और कहीं भी यह कर्म नहीं होता है।
उक्त स्थान का विशेष वैज्ञानिक महत्त्व है।
हमारे शरीर को जो चेतना संचालित करती है, उसे आत्मा
कहा गया है। आत्मा जन्म के पहले, जीवित रहते और
देहावसान के बाद किस अवस्था में रहती है, इसका उल्लेख
भारतीय शास्त्रों में विशद रूप में है। अध्यात्म
विज्ञान की मानें तो आत्मा का अस्तित्व इहलोक और परलोक
दोनों में समान रूप से है। शास्त्रों में इस बात का
उल्लेख है कि मरने के पश्चात मनुष्य चौरासी लाख
योनियों में भ्रमण करता है।
मृत्यु के पश्चात आत्मा की तीन स्थितियाँ बताई गई हैं।
पहला अधोगति यानी भूत-प्रेत, पिशाच आदि योनि में जन्म
लेना। दूसरा स्वर्ग प्राप्ति और तीसरा मोक्ष। गरुण
पुराण में उल्लेख है कि इसके अलावा भी जीव को एक ऐसी
गति भी मिलती है, जिसमें उसे भटकना पड़ता है। इसे
प्रतीक्षा काल कहा जाता है। इन्हीं भटकी हुई आत्माओं
की मुक्ति के लिए पितरों का तर्पण किया जाता है।
पितरों के मोक्ष के लिए ही राजा भगीरथ ने कठोर तप किया
और गंगा जी को पृथ्वी में लाकर उनको मुक्ति दिलाई।
पुराणों के अनुसार मृत्यु के देवता यमराज श्राद्ध
पक्ष में जीव को मुक्त कर देते हैं। शास्त्रों में
उल्लेख है कि सावन की पूर्णिमा से ही पितर मृत्यु लोक
में आ जाते हैं और कुशा की नोकों पर विराजमान हो जाते
हैं। पितृ पक्ष में हम जो भी पितरों के नाम का निकालते
हैं, उसे वह सूक्ष्म रूप में आकर ग्रहण करते हैं।
श्राद्ध पक्ष में पितृ गण पृथ्वी में रहने वाले
अपने-अपने स्वजनों के यहाँ बिना आह्वान किए भी पहुँचते
हैं और उनके द्वारा किए गए तर्पण और भोजन से तृप्त
होकर आशीर्वाद देते हैं।
श्राद्ध के मनाने का मतलब अपने पूर्वजों को याद कर
उन्हें सम्मान देना है। श्राद्ध पक्ष में शाकाहारी
भोजन ही ग्रहण किया जाता है। श्रद्धा से कराया गया
भोजन और पवित्रता से जल का तर्पण ही श्राद्ध का आधार
है। गरुण पुराण व मत्स्य पुराण में भी लिखा है कि
श्रद्धा से तर्पण की गई वस्तुएं पितरों को उस लोक एवं
शरीर के अनुसार प्राप्त होती हैं, जिसमें वे रहते हैं।
कुछ लोग कौओं, कुत्तों और गायों के लिए भी अंश निकालते
हैं। मान्यता है कि कुत्ता और कौवा यम के नजदीकी हैं
और गाय वैतरणी पार कराती है।
पुराणों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सुपात्र को
विधिवत दिया गया भोजन और दान पितरों तक अवश्य पहुँचता
है। तर्पण से व्यक्ति मातृ ऋण, देव ऋण और पितृ ऋण से
मुक्त हो जाता है। श्राद्ध का अनुष्ठान परिवार का
उत्तराधिकारी या ज्येष्ठ पुत्र ही करता है। जिसके घर
में कोई पुरुष न हो, वहाँ स्त्रियाँ ही इस रिवाज को
निभाती हैं। परिवार का अंतिम पुरुष सदस्य अपना श्राद्ध
अपने जीवन काल में भी करने को स्वतंत्र माना गया है।
संन्यासी वर्ग अपना श्राद्ध अपने जीवन में कर ही लेते
हैं। लोक व्यवहार में मनुष्य एकाग्र चित्त होकर
श्राद्ध पक्ष में पितरों के प्रति समपिर्त हो सके,
इसीलिए इस काल में सांसारिक कामों से दूर रहने की बात
कही गई है।
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